सनातन, राजनीति और विश्व संकट : विश्लेषण

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पूनम शर्मा
आज के भारत में राजनीतिक हलचलों, सांस्कृतिक संघर्षों और अंतरराष्ट्रीय दबावों के बीच सनातन मूल्य, राष्ट्र की आत्मा और आने वाले संकटों की गूंज एक साथ सुनाई दे रही है। एक आम नागरिक से लेकर बड़ी सत्ता तक, हर व्यक्ति इस असमंजस में है कि भारत किस दिशा में जा रहा है, और क्या आने वाले महीने—खासकर सितंबर से दिसंबर तक—देश के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित होंगे?

सनातन संस्कृति की हो रही अवहेलना
आज जिस भारत को हम देख रहे हैं, उसमें सनातन केवल एक शब्द नहीं, बल्कि जीवन का आधार है। लेकिन दुर्भाग्यवश, राजनीतिक एजेंडों, वोट बैंक की राजनीति और विदेशी वैचारिक घुसपैठ के चलते सनातन पर हमले हो रहे हैं। कुछ शक्तियां जानबूझकर सनातन को ‘पुराना’ और ‘रूढ़िवादी’ घोषित कर, युवाओं को उससे दूर कर रही हैं। सोशल मीडिया पर एक सुनियोजित नैरेटिव चलाया जा रहा है कि सनातन केवल मंदिरों तक सीमित है, जबकि उसका प्रभाव जीवन के हर क्षेत्र में है।

कथित लीडर्स और सुरक्षा में बँटा समाज
आज एक ओर जनता बेरोजगारी, महंगाई और सामाजिक असंतुलन से जूझ रही है, वहीं दूसरी ओर लीडरशिप के नाम पर केवल बयानबाजी हो रही है। सुरक्षा तंत्र भी विभाजित नजर आता है—कोई धर्म की आड़ में, कोई जाति की पहचान में, और कोई क्षेत्रीय राजनीति में उलझा हुआ।

“हम बड़े चीज़ समझती है”—ये पंक्तियाँ आज के बुद्धिजीवियों की उस आत्ममुग्धता को दर्शाती हैं जो ज़मीनी सच्चाइयों से कटे हुए हैं।

बांग्लादेशी घुसपैठ और राज्यवार विभाजन की साजिश
बिहार, यूपी, बंगाल और असम जैसे राज्यों में बांग्लादेशी घुसपैठ अब केवल जनसंख्या परिवर्तन नहीं, बल्कि एक सुनियोजित सांस्कृतिक आक्रमण बन चुका है। सीमांचल क्षेत्र के कई गांवों में स्थानीय लोगों की जमीनें छीनी जा रही हैं और उनका वोटर लिस्ट से नाम गायब हो रहा है।

पश्चिम बंगाल से लेकर पंजाब तक, हर राज्य में एक अलिखित ‘सल्तनत’ उभर रही है जो भारत की एकता को चुनौती दे रही है।

राजनीति में सनातन का प्रश्न
आज जब जनता सवाल पूछती है कि मोदी जी कब तक रहेंगे, योगी जी का भविष्य क्या है, तो उसका मूल भाव है कि क्या भारत अपनी सांस्कृतिक नींव को बचाए रख पाएगा? सनातन को अलग-अलग करने की कोशिशें जारी हैं—चाहे वो टीवी डिबेट हो, यूनिवर्सिटी कैंपस हो या सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म।

कुछ नए संगठन केवल “देवों को गोविंद” कहने तक सीमित हो गए हैं, जबकि ज़रूरत है उस सनातन भावना को समझने की जो हर भारतीय के अंदर धड़कती है।

सितंबर से दिसंबर तक कठिन समय: ज्योतिष या जमीनी चेतावनी?
जिस प्रकार से सितंबर से दिसंबर तक के समय को “टफ टाइम” कहा जा रहा है, वो केवल ज्योतिषीय गणना नहीं बल्कि जमीनी हालात की भविष्यवाणी लगती है। रूस, चीन और अमेरिका के बीच बढ़ते तनाव, एलएसी पर चीन की हरकतें, अफगानिस्तान से इस्लामिक आतंक की वापसी और भारत में चुनावी जद्दोजहद—ये सब एक संभावित टकराव की ओर इशारा कर रहे हैं।

विकट समय में राष्ट्र के प्रति ज़िम्मेदारी
जब देश संकट में होता है, तब ज़िम्मेदारी केवल सरकार की नहीं होती, बल्कि हर नागरिक की होती है। आज जब युवाओं का ध्यान इंस्टाग्राम रील्स, ग्लैमर और बाहरी आडंबर में लगा है, तब उन्हें यह समझाने की ज़रूरत है कि सनातन कोई ड्रेस कोड नहीं, बल्कि आत्मा का चैतन्य है।

डिजिटल टक्कर और सूचना युद्ध
आज की लड़ाई केवल हथियारों की नहीं, बल्कि डेटा और नैरेटिव की है। डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर किसकी बात सुनी जा रही है, कौन सा ट्रेंड चल रहा है, और किसके विचार प्रचारित हो रहे हैं—यही भविष्य की राजनीति और सामाजिक दिशा तय कर रहे हैं। ऐसे में भारत के “मूल्य वर्ग” को समझना होगा कि सनातन की लड़ाई केवल मंदिरों की नहीं, बल्कि माइक्रोचिप्स और माइक्रोफोन की भी है।

क्यों हो रही है सनातन की दुहाई?
क्यों आज हर मंच पर “सनातन खतरे में है” कहा जा रहा है? शायद इसलिए क्योंकि एक वर्ग चाहता है कि भारत अपनी जड़ों से कटे, ताकि उसे नियंत्रित किया जा सके। जैसा कि एक वक्ता ने कहा—“सनातन अपने आप खड़ा होकर आगे जाएगा।” यह वक्त है उस आत्मविश्वास को जगाने का, जो राम, कृष्ण और विवेकानंद से लेकर अटल और मोदी तक की विरासत में है।

भारत के सामने आत्म-चिंतन का समय
भारत आज crossroads पर खड़ा है। एक ओर विदेशी दबाव, आंतरिक विघटनकारी ताकतें, और डिजिटल सूचना युद्ध हैं। दूसरी ओर सनातन की वह जड़ें हैं जो भारत को न केवल जीवित, बल्कि जागरूक बनाती हैं।

अब फैसला हमें करना है—क्या हम भीड़ में बहते रहेंगे या भारत की आत्मा की ओर लौटेंगे?

“सनातन को अगर जीवित रखना है, तो केवल पूजा नहीं, बल्कि विचार, व्यवहार और नेतृत्व में उसका प्रतिबिंब लाना

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