पूनम शर्मा
कर्नाटक कांग्रेस में चल रही हलचल अब एक आंतरिक विवाद से आगे बढ़कर एक संभावित नेतृत्व संकट का रूप ले चुकी है। मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और उपमुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार के बीच की तकरार अब किसी छुपे रहस्य नहीं, बल्कि पार्टी के सामने खड़ी एक खुली चुनौती बन चुकी है। जिस तरह से रणदीप सुरजेवाला को हाईकमान ने बैंगलुरु भेजा है, उससे संकेत मिलता है कि कांग्रेस नेतृत्व इस आग को बुझाने के बजाय उसकी आंच को करीब से महसूस कर रहा है।
कलह की जड़: ढाई-ढाई साल का ‘जेंटलमैन्स एग्रीमेंट’
विवाद की बुनियाद 2023 के विधानसभा चुनावों के बाद बनी सरकार के उस कथित समझौते में है, जिसमें दावा किया गया कि सिद्धारमैया और शिवकुमार ढाई-ढाई साल मुख्यमंत्री पद साझा करेंगे। शिवकुमार खेमा आज इस समझौते को लागू करने की मांग कर रहा है, जबकि सिद्धारमैया खेमा इसे कोरी कल्पना करार दे रहा है।
सवाल ये उठता है:
अगर यह समझौता था तो इसे पार्टी ने आधिकारिक रूप क्यों नहीं दिया? और अगर नहीं था, तो ये अफवाह इतनी मज़बूती से क्यों तैर रही है?
रणदीप सुरजेवाला का बैंगलुरु दौरा: समीक्षा या संकट समाधान?
सुरजेवाला का दौरा एक “संगठनात्मक समीक्षा” के नाम पर हो रहा है, लेकिन हकीकत ये है कि वे एक-एक विधायक से निजी मुलाकात कर रहे हैं, सरकार की गारंटी योजनाओं और कार्यशैली पर फीडबैक ले रहे हैं। यह दौरा केवल प्रबंधन समीक्षा नहीं बल्कि संभावित फेरबदल की जमीन तैयार करने का प्रयास दिखता है।
कांग्रेस के लिए मुश्किलें: राजनीतिक और सामाजिक समीकरण
सिद्धारमैया कांग्रेस के एक मात्र बड़े OBC चेहरे हैं। उन्हें बीच कार्यकाल में हटाना पार्टी के सामाजिक समीकरणों पर असर डाल सकता है, खासकर ग्रामीण और पिछड़े वर्ग के वोटबैंक में। वहीं डी.के. शिवकुमार एक मजबूत संगठनकर्ता, धनबल वाले नेता और वोक्कालिगा समुदाय के प्रभावशाली चेहरे हैं।
यदि कांग्रेस नेतृत्व किसी एक को नाराज़ करता है, तो न केवल पार्टी के अंदर टूट की आशंका है बल्कि 2028 के चुनावों की रणनीति भी खतरे में पड़ सकती है।
विधायकों में असंतोष: कहीं बगावत ना फूट पड़े
पार्टी के कई विधायक मौजूदा सरकार की कार्यशैली से असंतुष्ट हैं। खासकर जब सिद्धारमैया के करीबी सहकारिता मंत्री केएन राजन्ना जैसे नेता खुलकर बयानबाजी कर रहे हैं, तो ये असंतोष और भी मुखर हो जाता है।
विधानसभा के अंदर और बाहर, दोनों ही जगह कांग्रेस को विपक्ष और जनता के सामने एकजुटता दिखानी होगी। अगर खेमेबाजी खुलकर सामने आती है, तो इसका सीधा असर 2026 के स्थानीय निकाय चुनावों और आगे के संसदीय समीकरणों पर पड़ सकता है।
हाईकमान की भूमिका: चुप्पी में भी है संकेत
मल्लिकार्जुन खड़गे और सोनिया-राहुल गांधी की जोड़ी इस पूरे घटनाक्रम पर सार्वजनिक रूप से चुप है, लेकिन सुरजेवाला की सक्रियता ये बताती है कि स्थिति गंभीर है। खड़गे का यह बयान कि “किसी को नहीं पता हाईकमान के दिमाग में क्या चलता है”, अपने आप में दो अर्थ खोलता है — एक ओर चेतावनी और दूसरी ओर रहस्य।
क्या होगा आगे? अब कांग्रेस के सामने दो ही रास्ते हैं:
समझौता और शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण – जिससे दोनों नेता पार्टी के भीतर अपनी अहमियत बनाए रखें और 2028 के चुनाव तक एकजुट रहें।
सामूहिक बगावत और राजनीतिक अस्थिरता – जिससे न केवल कर्नाटक की सरकार हिलेगी बल्कि कांग्रेस की राष्ट्रीय छवि भी प्रभावित होगी।
परिपक्वता की अग्निपरीक्षा
कर्नाटक कांग्रेस की यह लड़ाई केवल दो नेताओं की महत्वाकांक्षा का टकराव नहीं, बल्कि पार्टी नेतृत्व की राजनीतिक परिपक्वता और सामंजस्य की असली परीक्षा है। अगर कांग्रेस इस विवाद को समय रहते सुलझा नहीं पाती, तो कर्नाटक में सत्ता हाथ से निकल सकती है — और वह भी तब, जब भाजपा फिलहाल राज्य में पुनर्गठन के दौर से गुजर रही है।
इसलिए अगला कदम चाहे जो भी हो — वह कांग्रेस के भविष्य की दिशा तय करेगा।