भारत की नींव : युवाओं के संस्कार और चरित्र निर्माण

परिवार, शिक्षा और मातृत्व: राष्ट्र निर्माण के सशक्त स्तंभ

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स्वामी विवेकानंद जी ने एक बार कहा था – “सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं का आधार मानव की नैतिक उत्कृष्टता पर टिका है। मानव-चरित्र धन विश्व के समस्त धन-वैभव से कहीं अधिक मूल्यवान है।” पूजनीय मोहन भागवत जी कहते हैं – ” दूषित व्यवस्था एक सज्जन को भ्रष्ट कर देती है, और एक सज्जन ही दूषित व्यवस्था को सुधार सकता है, इसके लिए नागरिकों का चरित्र-निर्माण अनिवार्य है। शिक्षा का ध्येय ये भी है कि हमारे विद्यार्थी नैतिक रूप से समृद्ध और सुदृढ़ हों।” प्रधानमंत्री मोदी जी के अनुसार – “भारतीय संस्कारों में पले-बढ़े बालक अपनी जन्मभूमि और कर्मभूमि दोनों के प्रति समान प्रेम और सम्मान रखते हैं, यही कारण है कि भारतीय विश्व के प्रत्येक कोने में यशस्वी हैं।”

ये वचन कितने सत्य है! बच्चे एक राष्ट्र की भावी नींव और भविष्य होते हैं । शैक्षिक संस्थान उन्हें आधुनिक शिक्षा प्रदान करते हैं, किन्तु उनका मजबूत चरित्र परिवारों में गढ़ा जाता है। केवल पुस्तकीय ज्ञान और धन-संपदा पर्याप्त नहीं। जैसे भौगोलिक या राजनीतिक एकता पर आधारित राष्ट्र दीर्घकाल तक स्थिर नहीं रह सकते, वरन सांस्कृतिक एकता पर स्थापित राष्ट्र, जैसे भारत, युगों-युगों तक अडिग रहते हैं, वैसे ही बच्चों के व्यक्तित्व और चरित्र निर्माण में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का समावेश अनिवार्य है। सुदृढ़ चरित्र वाला बालक ही एक सशक्त समाज और राष्ट्र की रचना कर सकता है, और तभी हमारी सभ्यता रचनात्मक उत्कर्ष की ओर अग्रसर हो सकती है। यह सब तभी संभव है जब परिवार में बाल्यकाल से ही संस्कारों के बीज बोए जाएँ!

प्राचीन भारत के संस्कार
हिंदू परंपरा के अनुसार, संस्कार का अर्थ है – व्यक्ति के जीवन भर में किए जाने वाले संस्कार और अनुष्ठान जो उनके शरीर, मन और आत्मा को शुद्ध कर, जीवन के विभिन्न पड़ावों की चुनौतियों के लिए तैयार करते हैं। सोलह संस्कार व्यक्तित्व को संवारते हैं, जीवन को दिशा देते हैं। विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा एक हजार वर्षों से भी अधिक समय तक हमारी सांस्कृतिक, आर्थिक और सामाजिक सरंचनाओं पर आक्रमणों के बावजूद, हमारे पारिवारिक और सामाजिक मूल्य अभी भी सुरक्षित हैं, क्योंकि रामायण, महाभारत, भगवद गीता, उपनिषदों और पुराणों की कथाएँ हमारी सामूहिक स्मृति में रची-बसी हैं, जिन्होंने हमारे पारिवारिक और सामाजिक मूल्यों को सरंक्षित रखा, संजोए रखा। हमारे संविधान में भी रामायण और गीता के चित्र अंकित हैं, जो उनके गहन महत्व को प्रकट करते हैं।

भारतीय समाज के संस्कार हजारों वर्षों की जीवन-यात्रा के माध्यम से सनातन धर्म की नींव पर बने, जैसे – “सत्य, न्याय, दान”, तर्क करने की स्वतंत्रता, पूजा करने की स्वतंत्रता, भोजन साझा करना, दूसरों की भूमि या संस्कृति पर अतिक्रमण न करना, सर्वे भवंतु सुखिनः, अतिथि देवो भव, सभी के लिए शांति, संतोष, वसुधैव कुटुंबकम, “अहिंसा परमो धर्म, धर्म हिंसा तथैव च”, “आत्मवत सर्व भूतेषु” (दूसरों के सुख-दुख को अपना मानना)। वास्तव में, संस्कार का अर्थ है माता-पिता, गुरु और बड़ों का सम्मान करना, मंदिर जाना और घरों में प्रतिदिन शाम को दीया जलाना, पारंपरिक भारतीय भोजन खाना, हमारी पारंपरिक वेश-भूषा पहनना, घरों में मातृभाषा बोलना, भारतीय त्योहार मनाना, पारस्परिक समरसता और सौहार्दता, संधारणीय (टिकाऊ, सतत) प्रथाओं का उपयोग करके पर्यावरण की रक्षा करना, ब्रह्मचारी जीवन जीना (केवल विवाहित साथी के साथ वैवाहिक संबंध), राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को पूरा करना आदि।

हज़ारों वर्षों से हमारा गौरवशाली इतिहास अनेक आदर्श चरित्रों के माध्यम से हमारा मार्गदर्शन करता आया है। श्रवण कुमार ने अपने अंधे माता-पिता को कंधों पर उठाकर तीर्थयात्रा कराई और उनकी इच्छा पूर्ण करते हुए अपने प्राण न्योछावर भी कर दिए। रामायण में “मर्यादा पुरुषोत्तम” भगवान राम ने पिता दशरथ के वचन का पालन हेतु चौदह वर्ष के वनवास को स्वीकार किया। माता सीता ने कठिन काल में भी पति भगवान राम का साथ निभाकर पत्नी-धर्म का निर्वहन किया। लक्ष्मण ने राजसी वैभव त्यागकर भ्राता राम के साथ वनवास को चुना। भगवान राम के अनुज भरत ने उनकी पादुका को सिंहासन पर स्थापित कर राज्य संभाला। रावण पर विजय के पश्चात भी भगवान राम ने लंका को अपने राज्य में विलय नहीं किया। ये सभी उदाहरण हमें सिखाते हैं कि परिवार के सदस्यों को एक-दूसरे का सम्मान कैसे करना चाहिए, और अन्य राष्ट्रों की संप्रभुता का सम्मान कैसे करना चाहिए। हमारा चरित्र उस आदर्श के समान बनता है, जिसका हम अनुसरण करते हैं। भगवद गीता का यह श्लोक—

                                                                                             कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन

फल की चिंता किए बिना कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक निर्वहन, सफलता और असफलता के प्रति समदृष्टि को प्रेरित करता है। किन्तु यह सत्य है कि काल की कठोरता से मूल्यों का पतन होना स्वाभाविक है हैं। जैसे प्राचीन भवन को समय-समय पर जीर्णोद्धार की आवश्यकता होती है, वैसे ही समाज को संस्कारों का पुनर्जनन चाहिए।

युवाओं के लिए संस्कार और चरित्र निर्माण
नौवीं से बारहवीं कक्षा तक का समय बच्चों के जीवन-वृत्ति की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। इसकी गंभीरता को बच्चों और उनके माता-पिता को समझना चाहिए । यह आयु अति संवेदनशील भी है – युवा ऊर्जा और महत्वाकांक्षा से प्रफुल्लित होते हैं। किशोर अपनी स्वतंत्र पहचान विकसित करते हैं, प्रेम और आकर्षण के बंधनों में बंधते हैं। इसलिए, माता-पिता को उन्हें बहुत स्नेह के साथ मार्गदर्शन करने की आवश्यकता है कि यह समय केवल पढ़ाई पर ध्यान देने का है, जो उनके जीवन और करियर को सँवार  या बिगाड़ सकता है। इंटरनेट और सोशल मीडिया के दुरुपयोग से उन्हें बचाना आवश्यक है, क्योंकि वे हर प्रकार की जानकारी के संपर्क में आते हैं। और माता-पिता को इस पर कुछ निगरानी रखने की आवश्यकता है कि वे क्या देख रहे हैं। अस्थायी प्रेम संबंध बनना, टूटना, और सोशल मीडिया पर इन्हें उजागर करना अक्सर ब्लैकमेलिंग का कारण बन सकता है। यह युवाओं में सामाजिक और भावनात्मक आघात का कारण भी बनता है, जो बदले में उनकी सफल करियर लक्ष्यों तक पहुंचने की यात्रा में बाधा डालते है। शराब और नशीले पदार्थों का दुरुपयोग समाज का कैंसर बन चुका है। हमारी कन्याओं के वस्त्र पहनने के तरीकों पर संवेदनशीलता से विचार और उनका मार्गदर्शन आवश्यक है, ताकि वे भारतीय संस्कृति अनुसार वस्त्र धारण करें। विभिन्न मनोरंजन मीडिया में अश्लीलता खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है। संविधान का अनुच्छेद 19 छह मौलिक स्वतंत्रताएं प्रदान करता है, किंतु ये राष्ट्रीय हित, शालीनता, नैतिकता और सार्वजनिक व्यवस्था की मर्यादा से बंधी हैं।

तो फिर, हमारे बच्चों और युवाओं को सही मार्ग कौन दिखाएगा? माता-पिता। उन्हें प्रतिदिन बच्चों के साथ गुणवत्तापूर्ण समय बिताना होगा, अपनी संतानों से हृदयस्पर्शी संवाद करना चाहिए। घरों में, दैनिक जीवन शैली में, स्वयं संस्कारी जीवन जीकर उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए । यदि माता-पिता स्वयं मोबाइल पर ही अधिकतम समय व्यतीत करें, या धूम्रपान, मद्यपान जैसे दुराचारों में लिप्त हों, तो बच्चे स्वाभाविक रूप से वही अनुकरण करेंगे। परिणामस्वरूप, बच्चे चिंता, उदासीनता, व्यवहारगत समस्याओं जैसे मानसिक विकारों से ग्रस्त हो सकते हैं। तत्पश्चात् वे अवसाद, नशीली दवाओं, शराब, या अश्लीलता के भँवर में सुख की तलाश करने लगते हैं।

ऐसा प्रतीत होता है कि हमारा पवित्र संस्थान “परिवार” संकट के कगार पर है। परिवार की रक्षा ही भारत की रक्षा है। कई युवा बिना विवाह के बंधनों के स्वच्छंद जीवन जीना चाहते हैं, आज एक साथी, कल दूसरा। किन्तु यह कब तक? कुछ युवा दंपति संतानोत्पत्ति से भी विमुख रहने लगे हैं। क्षणिक सुख और स्वार्थपरक आनंद की खोज, भविष्य के परिणामों की उपेक्षा कर, सभ्यता के रचनात्मक उत्थान का मार्ग नहीं हो सकती। वर्तमान में भारत एक युवा राष्ट्र है। यदि ये प्रवृत्तियाँ बनी रहीं, तो शीघ्र ही हम विश्व के अन्य वृद्ध राष्ट्रों की भाँति अपनी युवा शक्ति खो देंगे—यह एक गहन चिंता का विषय है!

केवल क्षणिक सुख की चाह, भविष्य के परिणामों की अनदेखी, सभ्यता के रचनात्मक विकास के लिए उचित नहीं। भारत आज युवा राष्ट्र है, किन्तु इन प्रवृत्तियों के चलते शीघ्र ही हम वृद्धावस्था की ओर अग्रसर होंगे, जैसे अन्य देश, और युवा कुशल कार्यबल खो देंगे—यह चिंता का गहन विषय है।

चरित्र निर्माण में माताओं की भूमिका
माताओं की बच्चों को संस्कार देने में विशेष भूमिका होती है। भारत का इतिहास ऐसी माताओं की गाथाओं से सुसज्जित है, जिन्होंने अपने बच्चों को महान चरित्रों में ढाला। माता कौशल्या ने भगवान राम को वचन निभाने हेतु वनवास जाने से नहीं रोका । माता सीता ने अपने पुत्रों में वीरता, बुद्धिमत्ता और करुणा के बीज बोए। शकुंतला ने एकल पालन-पोषण कर भरत को साहसी और शक्तिशाली बनाया। माता कुंती ने पांडवों को समान प्रेम, युद्धकला, राजनीति, पारिवारिक मूल्यों और जीवन-कौशलों में पारंगत किया। महारानी जयवंता बाई ने महाराणा प्रताप को रामायण और महाभारत की शिक्षाओं से संस्कारित कर युद्धकुशल बनाया। माता जीजाबाई ने पुत्र छत्रपति शिवाजी में बचपन से ही साहस, स्वाभिमान और वीरता का संचार किया, जिन्होंने विपत्तियों में भी धैर्य और शौर्य नहीं खोया। माता का धर्म है अपने बच्चों को चरित्र और राष्ट्र निर्माण के लिए संस्कारों से संवारना – एक महिला एक परिवार का सुनिर्माण सकती है, और उसे नष्ट भी कर सकती है ।

इसके अलावा, हमारे बच्चों को समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को पूरा करने के महत्व को समझना चाहिए, न कि केवल अपने अधिकारों की चिंता करना। हमारे संविधान में मौलिक अधिकारों के साथ-साथ नीति-निर्देशक सिद्धांतों के प्रावधान भी हैं। हमारी संस्कृति की विरासत हमें सिखाती है कि हमारे लिए क्या सर्वोत्तम है, जिसका सार कभी गलत नहीं हो सकता। केवल बदलते समय के साथ, उन्हें साकार करने के साधन बदलते हैं, जिनमें प्राचीन परंपराओं और आधुनिकता के एक आदर्श संगम की आवश्यकता होती है । इसलिए, जब हमारे पास फिर से माता कौशल्या, शकुंतला, सीता, कुंती, जयवंता बाई, जीजाबाई जैसी माताएं होंगी, तब हम फिर से राम, भरत, युधिष्ठिर, महाराणा प्रताप, शिवाजी महाराज जैसे पुण्य पुत्रों को पाएंगे, जो कल के राष्ट्र निर्माण में अमूल्य योगदान देंगे।

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