दत्तात्रेय होसबले :संविधान के शब्द ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवाद’
क्या वास्तव में इन शब्दों की आवश्यकता थी?
पूनम शर्मा
कुछ दिन पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. गवई ने कहा था कि “मेरे लिए संसद नहीं, संविधान सर्वोच्च है।” यह बयान संवैधानिक मूल्यों की प्राथमिकता को दर्शाता है। लेकिन अब एक बुनियादी सवाल खड़ा होता है—कौन-सा संविधान? 1950 में लागू हुआ वह मूल संविधान जिसमें ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द नहीं थे, या 1976 में आपातकाल के दौरान संशोधित वह संविधान जिसमें ये दोनों शब्द जोड़े गए?
इसी विषय पर आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने भी जोर देकर कहा कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ जैसे शब्दों को संविधान की प्रस्तावना से हटाया जाना चाहिए क्योंकि ये भारत की आत्मा को परिभाषित नहीं करते। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि बिना इन शब्दों के भी भारत एक पूर्णत: धर्मनिरपेक्ष और विविधतापूर्ण समाज था, है और रहेगा।
यह बहस केवल शब्दों की नहीं, बल्कि भारत की आत्मा और उसकी संवैधानिक दिशा की भी है।
मूल संविधान और उसका दृष्टिकोण
जब 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू हुआ, तो उसकी प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ जैसे शब्द नहीं थे। इसके बावजूद, संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16 और 25-28 जैसे प्रावधान नागरिकों को धर्म, जाति, लिंग, भाषा आदि के आधार पर भेदभाव से सुरक्षा प्रदान करते थे। इसका तात्पर्य था कि राज्य किसी एक धर्म का पक्ष नहीं लेगा, और सभी को समान अवसर व स्वतंत्रता मिलेगी। यही तो धर्मनिरपेक्षता है।
संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भी इस बात पर ज़ोर दिया था कि भारत का संविधान धर्म से निरपेक्ष रहेगा, लेकिन उन्होंने जानबूझकर ‘सेक्युलर’ शब्द को प्रस्तावना में नहीं जोड़ा। क्यों? क्योंकि उन्होंने माना कि भारत की सांस्कृतिक परंपरा और सामाजिक ताना-बाना पहले से ही इस भावना में निहित है।और इतना ही नहीं रामायण के चित्रों का संविधान के भीतर होने का कोई विरोध उस समय नहीं था ।
इंदिरा गांधी और 42वां संशोधन: राजनीतिक मजबूरी या विचारधारा?
1975 में देश में आपातकाल लगाया गया। लोकतंत्र कुचला गया, विपक्ष को जेलों में डाला गया, मीडिया पर सेंसरशिप लगाई गई। इसी दौरान 1976 में 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से प्रस्तावना में दो शब्द जोड़े गए — ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’। यह जोड़ भारत की आत्मा में कोई नया मूल्य नहीं था, बल्कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार की वैचारिक राजनीति का हिस्सा था।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि इंदिरा गांधी उस समय अपनी छवि सुधारने और अपने शासन को वैचारिक जामा पहनाने की कोशिश कर रही थीं। लेकिन इस संशोधन को लेकर कभी जनमत संग्रह नहीं कराया गया। न ही इसकी कोई सार्वभौमिक मांग थी। यह एकतरफा थोपे गए शब्द थे, जिनकी संवैधानिक और सांस्कृतिक प्रासंगिकता पर अब सवाल उठ रहे हैं।
क्या ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द के बिना भारत धर्मनिरपेक्ष नहीं था?
इस प्रश्न का उत्तर स्पष्ट है—भारत में ‘धर्मनिरपेक्षता’ की भावना संविधान में पहले दिन से ही निहित थी, बिना इस शब्द के। भारत वह देश है जहाँ “सर्व धर्म समभाव” की भावना हजारों वर्षों से चली आ रही है। जहाँ गुरु नानक, कबीर, रहीम, तुलसी, चैतन्य महाप्रभु और स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुषों ने धर्मों के बीच समरसता का मार्ग दिखाया।
संविधान में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़े जाने के बाद से, कई बार इसका दुरुपयोग हुआ है। कई राजनीतिक दलों ने इस शब्द को ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ का औजार बना लिया, जिससे बहुसंख्यकों में असंतोष पनपा। यही कारण है कि अब यह मांग तेज़ हो रही है कि धर्मनिरपेक्षता का व्यवहारिक स्वरूप संविधान के अनुच्छेदों में ही निहित है, अलग से इसे प्रस्तावना में जोड़ने की आवश्यकता नहीं।
‘समाजवाद’ शब्द: भारतीय संदर्भ में विदेशी विचार?
‘समाजवाद’ एक पश्चिमी राजनीतिक विचार है, जिसका उद्भव रूस और यूरोप की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से हुआ था। भारत में समाजवादी आंदोलन जरूर रहा है, लेकिन भारत की मूल संस्कृति में व्यक्तिगत स्वतंत्रता, परिवार व्यवस्था और सामाजिक उत्तरदायित्व जैसे मूल्य ज्यादा गहरे रहे हैं।
समाजवाद के नाम पर देश में लाइसेंस राज और सरकारी नियंत्रण को बढ़ावा मिला, जिसने आर्थिक प्रगति को वर्षों तक बाधित किया। 1991 में आर्थिक उदारीकरण के बाद भारत ने समाजवादी नियंत्रण से बाहर निकलकर उद्यमशीलता और निजी क्षेत्र की भूमिका को मान्यता दी।
ऐसे में सवाल उठता है: क्या ‘समाजवादी’ शब्द आज भी भारत के आर्थिक व सामाजिक दर्शन से मेल खाता है?
होसबाले जी का बयान और नया विमर्श
आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने स्पष्ट कहा कि प्रस्तावना में इन शब्दों को जोड़े जाने से देश की आत्मा को ठेस पहुँची है। उन्होंने कहा, “धर्मनिरपेक्षता का मतलब यह नहीं कि हम अपने मूल धर्म को छोड़ दें, बल्कि इसका मतलब है कि हर धर्म को समान दृष्टि से देखें। लेकिन अब इसका अर्थ उलट कर दिया गया है। इसे वोट बैंक का औजार बना दिया गया है।”
उनकी इस बात को लेकर एक वैचारिक विमर्श छिड़ चुका है। कई संवैधानिक विशेषज्ञ, न्यायविद और सामाजिक चिंतक अब इस बात पर चर्चा कर रहे हैं कि क्या संविधान की मूल आत्मा में लौटने का समय आ गया है?भारतीय संविधान की महानता इसकी व्यापकता और समावेशी दृष्टिकोण में है। ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ जैसे मूल्य भारतीय जीवन में पहले से ही रचे-बसे हैं। इन्हें प्रस्तावना में जोड़ना अधिकतर राजनीतिक कदम था, जो आज के समय में विवाद और भ्रम का कारण बन रहा है।
संविधान सर्वोच्च है, यह निर्विवाद है। लेकिन अगर संविधान को राजनीतिक उद्देश्यों से संशोधित किया गया हो, तो उसे पुनः आत्मचिंतन की ज़रूरत है। आज जब मुख्य न्यायाधीश संविधान को सर्वोपरि बताते हैं, तो यह भी आवश्यक है कि हम यह पूछें—क्या हम उस मूल संविधान की ओर लौट सकते हैं, जो बिना शब्दजाल के भी भारत की आत्मा को परिभाषित करता था?