सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ: संसद की स्थायी समिति में अहम बहस
क्या न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी पद दिए जाने चाहिए?
समग्र समाचार सेवा
दिल्ली, 25 जून: भारतीय न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता हमेशा से बहस का विषय रही है। हाल ही में, सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की सरकारी पदों पर नियुक्ति का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में है। संसद की कानून और न्याय संबंधी स्थायी समिति ने इस संवेदनशील विषय पर विचार-विमर्श शुरू कर दिया है। यह मुद्दा न्यायपालिका की स्वतंत्रता, संभावित पक्षपात और सार्वजनिक विश्वास से जुड़ा है, जिस पर गहन विचार-विमर्श आवश्यक है।
क्यों उठा यह सवाल?
यह बहस कोई नई नहीं है। दशकों से यह सवाल उठाया जाता रहा है कि क्या सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को आयोगों, न्यायाधिकरणों, या राज्यपाल जैसे अन्य सरकारी पदों पर नियुक्त किया जाना चाहिए। इसके पीछे मुख्य चिंता यह है कि ऐसी नियुक्तियां न्यायाधीशों के फैसलों को प्रभावित कर सकती हैं, खासकर उनकी सेवा अवधि के अंतिम चरण में। यह डर रहता है कि सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाले पद की लालच में कोई न्यायाधीश सरकार के पक्ष में निर्णय दे सकता है, जिससे न्यायपालिका की निष्पक्षता पर सवाल उठ सकते हैं।
पूर्व कानून मंत्री अरुण जेटली ने इस मुद्दे पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि “सेवानिवृत्ति के बाद नौकरी की चाहत, सेवानिवृत्ति से पहले के फैसलों को प्रभावित करती है।” यह बात इस बहस के मूल में है।
समिति का विचार-विमर्श: पक्ष और विपक्ष
संसद की स्थायी समिति इस मुद्दे के विभिन्न पहलुओं पर विचार कर रही है।
समर्थन में तर्क: कुछ लोग तर्क देते हैं कि सेवानिवृत्त न्यायाधीशों का अनुभव और विशेषज्ञता राष्ट्र निर्माण में अमूल्य हो सकती है। उन्हें विभिन्न आयोगों और निकायों में नियुक्त करके उनकी बुद्धिमत्ता का लाभ उठाया जा सकता है। यह न्यायिक ज्ञान का एक प्रभावी उपयोग हो सकता है।
विरोध में तर्क: आलोचक इस बात पर जोर देते हैं कि ऐसी नियुक्तियां न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर करती हैं। यह न्यायिक निर्णयों की अखंडता पर संदेह पैदा करता है और जनता के विश्वास को कम करता है। न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद किसी भी सरकारी पद को स्वीकार करने से रोकना चाहिए ताकि उनके निर्णय पूरी तरह से निष्पक्ष रहें।
समिति विभिन्न हितधारकों – कानूनी विशेषज्ञों, पूर्व न्यायाधीशों, शिक्षाविदों और नागरिक समाज संगठनों – से राय ले सकती है ताकि इस जटिल मुद्दे का एक संतुलित समाधान निकाला जा सके।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य और भारत की स्थिति
कई देशों में सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की नियुक्तियों को लेकर सख्त नियम हैं। उदाहरण के लिए, कुछ देशों में न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद एक निश्चित अवधि के लिए सरकारी पदों पर नियुक्त होने से प्रतिबंधित किया जाता है। भारत में भी इस तरह के कानूनों या संवैधानिक संशोधनों की आवश्यकता पर बहस होती रही है।
वर्तमान में, भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है जो सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को सरकारी पद स्वीकार करने से रोकता हो। यही कारण है कि कई पूर्व न्यायाधीशों को विभिन्न आयोगों, न्यायाधिकरणों और राज्यपाल जैसे पदों पर नियुक्त किया गया है, जिससे अक्सर विवाद उत्पन्न होते रहे हैं।
निष्पक्षता और विश्वास की कसौटी
यह बहस केवल न्यायाधीशों की व्यक्तिगत नियुक्तियों के बारे में नहीं है, बल्कि यह न्यायपालिका की संस्थागत अखंडता और सार्वजनिक विश्वास के बारे में है। एक मजबूत और निष्पक्ष न्यायपालिका किसी भी लोकतंत्र की रीढ़ होती है। यदि जनता का न्यायपालिका पर से विश्वास उठ जाता है, तो यह लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा है।
स्थायी समिति का यह विचार-विमर्श महत्वपूर्ण है क्योंकि यह एक ऐसे मुद्दे पर ध्यान केंद्रित करता है जो न्यायपालिका के भविष्य और लोकतंत्र के स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकता है। उम्मीद है कि समिति एक ऐसा समाधान प्रस्तुत करेगी जो न्यायिक स्वतंत्रता को बनाए रखने और सार्वजनिक विश्वास को मजबूत करने में मदद करेगा।