जीवन रेखा
आपका हाथ सर पर था
तो दिल में एक सुकून सा था।
सब कुछ कर देने का एक जनून सा था।
पता था — कुछ गलत भी हो जाए,
तो आप संभाल लेंगे।
अब एक अजीब सा अकेलापन है,
मानो शरीर से आत्मा निकल गई हो।
एक अबोध शरीर चल पड़ा है
आपके दिखाए रास्ते पर — अडिग।
कभी लगता है जैसे किसी ने
कठपुतली के धागे काट दिए हों।
अब जड़त्व ही है जो
पुतली को कुछ पल और नचा रहा है।
उस दिन बिटिया बोली,
“पहले आप बड़े थे,
और दादा-दादी वरिष्ठ।
अब तो हम बड़े हो गए…”
यह कब तक चलेगा?
यह जीवन रेखा है —
यह तब तक चलेगी ।

वरिष्ठ पत्रकार और समाचार विश्लेषक I शोध विद्वान और हिस्पेनिस्ट I बार्सीलोना, स्पेन से भारतीय, यूरोपीय मामलों और भू राजनीति पर लेखन कार्य करते हैं