पूनम शर्मा
ईरान पर इसराइल द्वारा किए गए अचानक हमले की आग अभी ठंडी भी नहीं पड़ी थी कि यूरोपीय ताकतें जेनेवा में उतर आईं। ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी (E3) के प्रतिनिधि और यूरोपीय संघ की विदेश नीति प्रमुख काजा कैलास शुक्रवार 21 तारीख को तेहरान के विदेश मंत्री अब्बास अराघची से मुलाकात करने पहुँचे । उद्देश्य था “कूटनीतिक समाधान” के नाम पर ईरान की परमाणु संप्रभुता पर अंकुश लगाना।
इससे कुछ घंटे पहले ही इसराइल ने अराक भारी जल रिएक्टर को निशाना बनाया था — एक ऐसा संयंत्र जो अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) की निगरानी में काम कर रहा था और JCPOA (2015 परमाणु समझौता) की शर्तों के अनुसार संचालित हो रहा था।
ईरान वर्षों तक इसी JCPOA को लेकर यूरोपीय देशों से बातचीत करता रहा, लेकिन 2018 में अमेरिका के समझौते से हटते ही यूरोप ने भी पीछे हटते हुए ईरान को वादा की गई आर्थिक राहत नहीं दी और अमेरिकी प्रतिबंध लागू हो गए
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में अराघची ने दो टूक कहा, “हम अमेरिका से 15 जून को एक अहम वार्ता के लिए तैयार थे, लेकिन 13 जून को इसराइल का हमला उस पूरी प्रक्रिया को तबाह करने वाला था। यह शांति के प्रयासों के खिलाफ सीधा धोखा है।”
यूरोप का एजेंडा
फ्रांसीसी राष्ट्रपति एमैनुएल मैक्रों के “डिप्लोमैटिक समाधान” ने यूरोपीय मंशा को बेनकाब कर दिया:
ईरान में यूरेनियम संवर्धन पूरी तरह रोका जाए,
बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम को सीमित किया जाए,
ईरान के क्षेत्रीय गठबंधनों को आतंकी बताया जाए,
जासूसों की अदला-बदली कराई जाए।
ब्रिटिश विदेश मंत्री डेविड लैमी ने अमेरिका के साथ मिलकर चेतावनी दी, “संवर्धन बंद करना ही वार्ता का पहला कदम है।”
ईरान का रुख: आत्मरक्षा से समझौता नहीं
साढ़े तीन घंटे की वार्ता के बाद अराघची ने साफ कर दिया कि “जब तक आक्रमण बंद नहीं होगा और दोषियों को जवाबदेह नहीं ठहराया जाएगा, तब तक वार्ता असंभव है।” उन्होंने यह भी कहा, “हमारी रक्षात्मक क्षमताएँ किसी सौदेबाज़ी का हिस्सा नहीं हैं।”
ईरान ने इसराइली हमलों को “युद्ध अपराध” बताया और यूरोप की चुप्पी को उसकी “साझेदारी” करार दिया। उन्होंने कहा, अमेरिका शुरू से इस हमले में शामिल था और अब उसका प्रत्यक्ष युद्ध में प्रवेश सुनिश्चित है ।
अमेरिका की एंट्री: तीसरे विश्व युद्ध की आहट?
अब जब अमेरिका ने खुले तौर पर ईरान पर हमले किए हैं, हालात बेहद खतरनाक मोड़ पर पहुँच गए हैं। अमेरिका का सीधा हस्तक्षेप अब इस पूरे संकट को एक द्विध्रुवीय टकराव की ओर ले जा रहा है — जिसमें एक ओर अमेरिका-इसराइल और उनके यूरोपीय सहयोगी खड़े हैं, तो दूसरी ओर ईरान और उसके रणनीतिक सहयोगी जैसे रूस और चीन।
यह सिर्फ एक क्षेत्रीय संघर्ष नहीं रहा, बल्कि अब तीसरे विश्व युद्ध जैसी परिस्थितियों का जन्म हो रहा है। अगर हालात पर तुरंत नियंत्रण नहीं किया गया, तो यह टकराव वैश्विक शांति के लिए सबसे बड़ा खतरा बन सकता है।
योजनाबद्ध युद्ध की पटकथा
13 जून के हमले की नींव महीनों पहले रख दी गई थी। ओमान वार्ता के दौरान अमेरिका ने पूर्व सहमतियों से पलटी मार ली। यूरोप ने IAEA प्रमुख के अप्रमाणित आरोपों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया और ईरान के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया — जिसने इसराइल को हमला करने का औपचारिक बहाना दे दिया।
अब जब ट्रंप खुद ईरानी हवाई क्षेत्र पर नियंत्रण का दावा कर रहे हैं, तो ईरान का अमेरिकी संलिप्तता का आरोप और भी मजबूत हो गया है।
यूरोप: मध्यस्थ या हमलावर का मुखौटा?
ईरान को अब यूरोप पर भरोसा नहीं रहा है। 2018 में JCPOA से अमेरिका के हटने पर यूरोप की निष्क्रियता, प्रतिबंधों के सामने आत्मसमर्पण और इसराइल की आक्रामकता पर चुप्पी — सब कुछ दर्शाता है कि यूरोप अब किसी निष्पक्ष मध्यस्थ के बजाय पश्चिमी एजेंडे का हिस्सा बन चुका है।
फिर भी आशा की किरण?
इन सभी खतरनाक संकेतों के बावजूद, ईरान के अनुसार संवाद का रास्ता पूरी तरह बंद नहीं हुआ है। अराघची ने आगे E3 देशों के साथ संभावित बैठक का संकेत देते हुए कहा कि “यदि आक्रामकता बंद होती है और निष्पक्षता अपनाई जाती है, तो शांति का रास्ता अब भी खुला है।”
अब दुनिया के सामने सबसे बड़ा सवाल यही है — क्या कूटनीति के रास्ते को चुना जाएगा, या हम हथियारों की भाषा में समाधान खोजेंगे?