एयर इंडिया , ब्लैक बॉक्स और अमेरिका ?
क्या भारत ने सच की चाबी सौंप दी? भेजने के फैसले पर उठते गंभीर सवाल
पूनम शर्मा
अहमदाबाद जाने वाली एयर इंडिया की फ्लाइट के क्रैश में हुई त्रासदी के बाद अब देश एक बेहद गंभीर और मौन निर्णय पर बहस कर रहा है — हादसे में मिले ब्लैक बॉक्स को अमेरिका भेजा जाएगा।
ब्लैक बॉक्स यानी फ्लाइट डेटा रिकॉर्डर (FDR) और कॉकपिट वॉइस रिकॉर्डर (CVR) — वो उपकरण जो किसी भी विमान दुर्घटना की असली वजह उजागर कर सकते हैं। इन रिकॉर्डर्स को दुर्घटना के बाद बुरी तरह जला और क्षतिग्रस्त पाया गया।
लेकिन असली सवाल यह है कि क्या भारत के पास खुद अपने देश में इस डेटा को निकालने की क्षमता नहीं थी? हमारे पास यह क्षमता होने बाद भी अमेरिका को यह चाबी सौंपने की ज़रूरत क्यों पड़ी?
तकनीकी तर्क: सही लेकिन अधूरा
DGCA और AAIB जैसे भारतीय संस्थानों के पास ब्लैक बॉक्स डेटा को पढ़ने और जाँचने की क्षमता है। देश में कई हादसों की जाँच सफलतापूर्वक भारत में ही हो चुकी है। लेकिन जब रिकॉर्डर गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त होता है, जैसे इस मामले में हुआ, तब कुछ विशेषज्ञ उपकरणों की आवश्यकता होती है जो केवल कुछ देशों के पास हैं।
NTSB यानी अमेरिकी राष्ट्रीय परिवहन सुरक्षा बोर्ड के पास दुनिया के सबसे उन्नत फ्लाइट रिकॉर्डर विश्लेषण उपकरण हैं — जो जले हुए, पिघले या टूटे हुए डेटा चिप्स से भी जानकारी निकाल सकते हैं।
तो तकनीकी दृष्टि से यह कदम आवश्यक लगता है।
लेकिन क्या सिर्फ तकनीकी विवशता ही असली कारण है? या फिर इसके पीछे कोई छुपी हुई राजनीतिक या कॉर्पोरेट रणनीति काम कर रही है?
बोइंग की छाया: क्या फिर से छुपेगा दोष?
इस विमान का निर्माता कौन था? — बोइंग।
एक ऐसा अमेरिकी निगम जिसका इतिहास सुरक्षा खामियों, जानलेवा तकनीकी खतरों और घोटालों से भरा है। 2018 और 2019 में हुए 737 मैक्स हादसों को पहले पायलट की गलती बताया गया था — लेकिन बाद में पता चला कि बोइंग ने सॉफ्टवेयर खामियों की जानकारी छिपाई थी।
अब जब एक और हादसा हुआ है, और फिर से पायलट की ‘संभावित गलती’ की थ्योरी उभरने लगी है, तब ब्लैक बॉक्स अमेरिका भेजा जाना सवाल खड़े करता है। क्या फिर से पायलट को बलि का बकरा बना दिया जाएगा, और निर्माता को बचा लिया जाएगा?
संप्रभुता या सिर्फ उपस्थिति?
भारतीय अधिकारी यह तर्क दे रहे हैं कि AAIB के प्रतिनिधि अमेरिका में NTSB प्रयोगशाला में मौजूद रहेंगे और प्रक्रिया पर नजर रखेंगे। लेकिन क्या सिर्फ उपस्थित रहना पर्याप्त है?
जब उपकरण, सॉफ़्टवेयर, एल्गोरिदम और पूरा वातावरण अमेरिका के नियंत्रण में हो, तब क्या भारत वाकई ‘नियंत्रण’ में है?
क्या यह बेहतर नहीं होता कि अमेरिका या अन्य देशों के विशेषज्ञों को भारत बुलाकर यह प्रक्रिया हमारे देश में ही करवाई जाती?
सिर्फ डेटा नहीं, यह है सत्य की कुंजी
ब्लैक बॉक्स सिर्फ तकनीकी डेटा नहीं होता — यह उन परिवारों के लिए अंतिम सत्य की चाबी होता है, जिन्होंने अपने प्रियजनों को खोया है।
इस सबूत को किसी और देश को सौंप देना न सिर्फ संप्रभुता पर सवाल खड़ा करता है, बल्कि यह भी डर पैदा करता है कि अगर बोइंग की गलती छुपाई गई तो क्या भारत के पास उसे चुनौती देने की शक्ति होगी?
और यदि यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहा, तो क्या भविष्य में हर हादसे की सच्चाई अमेरिका के लैब से तय होगी?
क्या विकल्प थे?
भारत चाहे तो NTSB या बोइंग के विशेषज्ञों को यहाँ आमंत्रित कर सकता था। जरूरी उपकरण अस्थायी रूप से मँगवाए जा सकते थे। यहाँ तक कि हादसे की गंभीरता को देखते हुए विशेष प्रयोगशाला स्थापित की जा सकती थी।
कम से कम, डेटा हमारी धरती पर रहता। प्रक्रिया हमारी निगरानी में होती। और सबसे अहम — भरोसा बना रहता।
क्या हमने अपनी आसमानों की संप्रभुता छोड़ी?
आज भारत उन्नत तकनीकी राष्ट्र है। हम चंद्रयान भेज सकते हैं, तो क्या एक ब्लैक बॉक्स को नहीं संभाल सकते?
सवाल सिर्फ तकनीकी क्षमता का नहीं है — यह आत्मनिर्भरता, पारदर्शिता और न्याय का है।
यदि हर बार हादसे की जांच विदेशी लैब में होगी, तो क्या हम सिर्फ शवगणना करने वाले बनकर रह जाएँगे ? क्या हमारे अपने तंत्र पर भरोसा नहीं?
आज ज़रूरत है कि भारत अपनी एविएशन फॉरेंसिक क्षमता में निवेश करे — ताकि अगली बार, जब आसमान में त्रासदी हो, तो सत्य की चाबी किसी और को न सौंपनी पड़े।
क्योंकि जब भारत का सत्य विदेश में खोजा जाता है, तब केवल ब्लैक बॉक्स नहीं — संप्रभुता भी राख हो जाती है।