समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 18 जून: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बीच हुए एक फोन कॉल ने दक्षिण एशिया की कूटनीतिक जमीन को फिर एक बार गर्मा दिया है। मुद्दा है भारत और पाकिस्तान के बीच मई में हुए चार दिवसीय सैन्य संघर्ष के बाद हुए संघर्षविराम का, जिसे लेकर ट्रंप ने दावा किया था कि यह अमेरिका की मध्यस्थता से संभव हुआ। अब भारत ने इस दावे को सिरे से खारिज करते हुए स्पष्ट कहा है कि यह संघर्षविराम भारत और पाकिस्तान की सेनाओं के बीच हुई सीधी बातचीत का नतीजा था, न कि किसी बाहरी देश की पहल का।
भारत के विदेश सचिव विनय क्वात्रा ने प्रेस को संबोधित करते हुए कहा, “प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रपति ट्रंप को साफ बताया कि संघर्षविराम किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता से नहीं, बल्कि हमारी सेना और पाकिस्तान की सेना के बीच हुई पेशेवर बातचीत के परिणामस्वरूप हुआ।”
यह बयान इसलिए भी अहम हो जाता है क्योंकि अमेरिका लंबे समय से दक्षिण एशिया की कूटनीति में ‘मध्यस्थ’ या ‘सुलहकर्ता’ की भूमिका निभाना चाहता रहा है, खासकर भारत-पाकिस्तान मुद्दों पर। लेकिन भारत लगातार यह रुख दोहराता रहा है कि उसके और पाकिस्तान के द्विपक्षीय मामलों में किसी तीसरे पक्ष की भूमिका स्वीकार नहीं की जाएगी।
ट्रंप का बयान: अमेरिकी मध्यस्थता का दावा
मई के अंत में राष्ट्रपति ट्रंप ने एक सार्वजनिक भाषण में कहा था कि “भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्षविराम हमारी कोशिशों से संभव हुआ। मैंने दोनों नेताओं से कहा कि वे व्यापार पर ध्यान दें, युद्ध पर नहीं।” इस बयान ने भारत की विदेश नीति और संप्रभुता पर सवाल खड़े कर दिए थे, और विपक्षी दलों ने सरकार को घेरना शुरू कर दिया।
कांग्रेस पार्टी और अन्य विपक्षी दलों ने इस मुद्दे को संसद में उठाते हुए पूछा कि अगर अमेरिकी राष्ट्रपति का दावा सही है, तो यह भारत की स्वतंत्र कूटनीति पर एक सवालिया निशान है। वहीं, भाजपा सरकार ने अब स्पष्ट किया है कि राष्ट्रपति ट्रंप की टिप्पणी “वास्तविकता से परे” थी।
मोदी सरकार की सख्त प्रतिक्रिया: क्यों जरूरी थी सफाई?
भारत ने एक रणनीतिक और स्वाभिमानी राष्ट्र के तौर पर अंतरराष्ट्रीय मंच पर हमेशा यह नीति अपनाई है कि कश्मीर सहित सभी भारत-पाक मुद्दे द्विपक्षीय हैं। ऐसे में अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा खुलेआम यह दावा करना कि उनकी मध्यस्थता से संघर्षविराम हुआ, भारत की छवि के लिए खतरनाक हो सकता था।
विशेषज्ञों का मानना है कि मोदी सरकार की यह प्रतिक्रिया न सिर्फ घरेलू राजनीति को संतुलित करने की कोशिश है, बल्कि यह अमेरिका को यह याद दिलाने का प्रयास भी है कि भारत एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर कूटनीति पर विश्वास करता है।
क्या यह सिर्फ ‘कूटनीतिक संवाद’ था या अमेरिका की भूमिका वाकई रही ?
यहाँ सबसे अहम सवाल यह उठता है कि क्या अमेरिका की कोई भूमिका वाकई रही थी, जो भारत अब खारिज कर रहा है?
कूटनीतिक सूत्रों के अनुसार, अमेरिका ने जरूर दोनों देशों को संयम बरतने की सलाह दी थी, लेकिन सीधी मध्यस्थता या टेबल पर बातचीत जैसी कोई बात नहीं हुई थी। अमेरिकी विदेश विभाग ने भी अपने एक हालिया बयान में कहा कि वे “दोनों देशों के बीच तनाव को कम करने के लिए प्रोत्साहन दे रहे थे”, लेकिन किसी प्रकार की मध्यस्थता का दावा नहीं किया।
भारत की विदेश नीति: संप्रभुता सर्वोपरि
मोदी सरकार लगातार यह संदेश देने की कोशिश कर रही है कि भारत वैश्विक मंच पर किसी भी दबाव में नहीं आता, चाहे वह अमेरिका जैसा महाशक्ति देश ही क्यों न हो। यह रुख नई विश्व व्यवस्था में भारत की भूमिका को और सशक्त बनाता है, जहां वह केवल एक “प्रतिक्रियात्मक” शक्ति नहीं, बल्कि “निर्णायक” शक्ति बनना चाहता है।
ट्रंप का दावा – घरेलू राजनीति या भ्रम?
कुछ विश्लेषकों का मानना है कि राष्ट्रपति ट्रंप का यह दावा शायद अमेरिका की घरेलू राजनीति के लिए था। ट्रंप 2026 के मध्यावधि चुनावों की तैयारी में लगे हैं, और विदेश नीति में “शांति निर्माता” की छवि दिखाना उनके लिए जरूरी है। ऐसे में भारत-पाक संघर्षविराम को अपने खाते में जोड़ना उनके लिए राजनीतिक रूप से लाभदायक हो सकता है।
लेकिन भारत ने जिस तेज और स्पष्ट तरीके से प्रतिक्रिया दी है, वह यह दर्शाता है कि अब भारत की विदेश नीति सिर्फ ‘मौन’ पर आधारित नहीं है, बल्कि ‘मौन विरोध’ से ‘स्पष्ट खंडन’ तक पहुँच चुकी है।