मुथंगा आंदोलन: 22 वर्षों से अधूरी लड़ाई, आदिवासी अब भी कर रहे ज़मीन की मांग

— एक सच्चाई जिसे ‘नरिवेट्टा’ छुपा ले गई

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पूनम शर्मा

मलयालम फिल्म नरिवेट्टा की रिलीज़ ने एक बार फिर 2003 के मुथंगा भूमि आंदोलन को सार्वजनिक विमर्श में ला खड़ा किया है। लेकिन इस संघर्ष की कहानी सिर्फ फिल्म तक सीमित नहीं है। यह एक ऐसी त्रासदी है, जो दो दशकों से अधिक समय से आदिवासियों की पीड़ा, सरकारी असंवेदनशीलता और व्यवस्था की विफलता का प्रतीक बनी हुई है। फिल्म भले ही दर्शकों को भावुक कर दे, लेकिन असली तस्वीर बेहद कठोर है — आज भी हजारों आदिवासी परिवार अपने अधिकार की ज़मीन से वंचित हैं।

मुथंगा आंदोलन की पृष्ठभूमि

2001 में केरल सचिवालय के सामने कुडिल केट्टल समरम् नामक आंदोलन हुआ, जिसमें आदिवासियों ने झोपड़ियाँ बनाकर 48 दिनों तक धरना दिया। इसकी मांग थी – हर आदिवासी परिवार को खेती लायक ज़मीन दी जाए। यह संघर्ष आदिवासी गोत्र महासभा (AGMS) द्वारा नेतृत्व में हुआ, जिसका गठन भी इसी आंदोलन के दौरान हुआ।

सरकार ने आदिवासियों से वादा किया था कि उन्हें 1 से 5 एकड़ ज़मीन दी जाएगी। लेकिन 2002 के अंत तक वादा निभाया नहीं गया। इसके विरोध में 2003 में सैकड़ों आदिवासी मुथंगा के जंगल में डेरा डालते हैं। 19 फरवरी को पुलिस ने बर्बरता से टेंट जला दिए, लाठीचार्ज किया और गोलीबारी में आदिवासी युवक जोगी और एक दलित पुलिसकर्मी विनोद की मौत हो गई।

‘नरिवेट्टा’ की अधूरी तस्वीर

फिल्म नरिवेट्टा में इस आंदोलन को केंद्र में रखा गया है, लेकिन फिल्म का फोकस आदिवासी समुदाय नहीं बल्कि एक सवर्ण ईसाई पुलिस अफसर वर्गीज़ पीटर (टोविनो थॉमस) पर है। फिल्म में वर्गीज़ को मुथंगा हिंसा में भाग लेने वाला ‘बेबस नायक’ दिखाया गया है, जिसकी अपनी आर्थिक मजबूरियाँ हैं।

फिल्म राजनीतिक दलों की जवाबदेही तय करने से बचती है। न ही वह उस लंबे संघर्ष को दिखाती है, जिसकी परिणति मुथंगा में हुई। इससे भी बड़ा दोष यह है कि आदिवासियों की जमीन और आत्मनिर्णय की मांग को फिल्म में हाशिये पर रखा गया है।

दो दशकों बाद भी नहीं पूरी हुई ज़मीन की मांग

आरटीआई से प्राप्त जानकारी के अनुसार, Tribal Resettlement and Development Mission (TRDM) योजना के लिए 2023-24 में 45 करोड़ रुपये आवंटित किए गए, परंतु खर्च हुए केवल 26 करोड़। 2024-25 में 37 करोड़ में से केवल 11.4 करोड़ ही खर्च हुए।

वायनाड जिले के सुल्तान बथेरी TDO के तहत 118 परिवारों को कुल 14.96 एकड़ भूमि दी गई – यानी औसतन प्रति परिवार सिर्फ 0.13 एकड़। मनंथवाडी TDO के तहत 47 परिवारों को केवल 4.27 एकड़ दी गई – प्रति परिवार सिर्फ 0.09 एकड़। यह वादा किए गए 1 से 5 एकड़ के बीच कहीं नहीं ठहरता।

इसके अलावा, ज़मीन सर्वेक्षणों और प्रोजेक्ट स्टाफ की तनख्वाह पर लाखों रुपये खर्च हो रहे हैं। उदाहरण के तौर पर, चिन्नाक्कनाल क्षेत्र में पिछले पांच वर्षों में कोई नई ज़मीन आवंटित नहीं हुई, जबकि सारा बजट कर्मचारियों की सैलरी और दिखावटी कार्यों में चला गया।

पुनर्वास की विफलता और वन्यजीवों से खतरा

जहां ज़मीन दी भी गई, वहाँ भी बुनियादी सुविधाओं की कमी, जंगली हाथियों का खतरा और जीवनयापन के साधनों की अनुपलब्धता के कारण आदिवासी परिवार ज़मीन छोड़ने को मजबूर हुए। उदाहरण के लिए, अरालम पुनर्वास क्षेत्र में 3000 परिवारों को ज़मीन दी गई थी, लेकिन करीब आधे परिवार अपनी ज़मीन छोड़ चुके हैं।

सरकार ने उन्हें लौटने के लिए ‘वेलफेयर पैकेज’ का प्रलोभन दिया — जैसे नाश्ता, राशन, भत्ता — लेकिन ज़मीन पर जीने की गरिमा नहीं मिली।

भाषा और प्रतीकों से मुद्दा छुपाने की कोशिश

वाम सरकार अब आदिवासी बस्तियों (colonies) का नाम बदलकर “उन्नति”, “नगर” या “प्रकृति” जैसे शब्दों से सजा रही है। लेकिन इस नाम परिवर्तन से आदिवासियों की ज़मीन की पीड़ा नहीं मिटती। एक ओर उनके सांस्कृतिक प्रतीकों को पर्यटन स्थलों में बदलकर पेश किया जा रहा है (एन ऊरु परियोजना), दूसरी ओर उन्हें ऐतिहासिक भूमि अधिकार से दूर रखा जा रहा है।

ज़मीन की माँग ही असली न्याय

मुथंगा संघर्ष केवल ज़मीन का नहीं, बल्कि गरिमा, अधिकार और पहचान का संघर्ष है। इसे राजनीतिक रोटियाँ सेंकने या फिल्मों में सतही तरीके से दिखाने से समाधान नहीं मिलेगा। UDF हो या LDF, दोनों ने आदिवासी ज़मीन प्रश्न को लेकर गंभीरता नहीं दिखाई। यही कारण है कि कुछ आदिवासी नेता अब NDA का समर्थन कर रहे हैं — जो समस्या को और जटिल बना रहा है।

अब समय है कि सरकार वाकई में भूमि सुधार की मूल भावना को अपनाए और आदिवासियों को न केवल ज़मीन लौटाए, बल्कि उस जीवन की गरिमा भी लौटाए जो उनसे दशकों पहले छीन ली गई थी।

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