समग्र समाचार सेवा
पटना, 12 जून: बिहार की दलित राजनीति इन दिनों टकराव की पटरी पर दौड़ रही है, खासकर एनडीए गठबंधन के भीतर। हालाँकि गठबंधन की मर्यादा के कारण नेता खुलकर कुछ नहीं कह रहे हैं, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से दलित नेतृत्व की इस लड़ाई में कोई किसी से कम नहीं। इस ताजा विवाद का श्रेय हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) के संस्थापक अध्यक्ष जीतन राम मांझी को जाता है। आइए जानते हैं ऐसा क्या हुआ कि विवाद गहराने लगा है…
मांझी की टिप्पणी और चिराग पासवान पर अप्रत्यक्ष हमला
दरअसल, कुछ दिन पहले केंद्रीय मंत्री जीतन राम मांझी ने संवाददाताओं से बात करते हुए कहा था कि जो नेता वास्तव में मजबूत होते हैं, वे ज्यादा बोलने की जरूरत नहीं समझते। उन्होंने तंज कसते हुए कहा कि कमजोर लोग ही दिखावा करते हैं और ज्यादा बोलते हैं। मांझी ने भोजपुर में चिराग पासवान के प्रदर्शन की आड़ में भीड़तंत्र की आलोचना की। उन्होंने कहा कि यह भीड़ एक दिखावा है, और रैलियों में भीड़ जुटाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से गाड़ियां भेजी जाती हैं, जिनमें कुछ लोग केवल नारे लगाने के लिए होते हैं। यह स्पष्ट रूप से चिराग पासवान की हालिया जनसभाओं पर निशाना था।
चिराग पासवान खेमे की प्रतिक्रिया
जीतन राम मांझी की इस टिप्पणी पर केंद्रीय मंत्री चिराग पासवान ने सीधे तौर पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। हालांकि, उनके दल लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के भीतर मांझी को लेकर आक्रोश तो है ही। कुछ दिन पहले लोजपा (आर) कार्यालय में आयोजित संवाददाता सम्मेलन में जमुई सांसद अरुण भारती ने अपनी भड़ास निकाली। सांसद अरुण भारती ने भी किसी का नाम लिए बिना कहा कि आरा जनसभा की सफलता से कुछ लोग असहज हो गए हैं। उन्हें लगता है कि चिराग पासवान पूरे बिहार के लिए काम करने लगे हैं और इस वजह से वे उनके आगे निकल गए हैं। उन्होंने यह भी दोहराया कि उनके नेता चिराग पासवान एनडीए की नीतियों के साथ काम करते रहेंगे।
बिहार में दलित वोट बैंक की बदलती राजनीति
स्वर्गीय रामविलास पासवान के निधन के बाद बिहार की दलित राजनीति में एक बड़ा खालीपन आना स्वाभाविक था। राज्य में दलित नेता तो हैं, लेकिन उनमें दलित वोट ट्रांसफर कराने की वैसी क्षमता नहीं दिखती। 90 के दशक में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव की दलितों में अच्छी पकड़ थी, लेकिन बाद में मायावती की बसपा और स्वर्गीय रामविलास पासवान की लोजपा के उदय ने दलित राजनीति को एक नया रास्ता दिया।
जातीय जनगणना के बाद, अति पिछड़ा और पिछड़ा वर्ग के बाद तीसरा सबसे बड़ा वोट बैंक दलित वर्ग (19.65 प्रतिशत) का है। इस आधार वोट की राजनीति के अपने-अपने तरीके हैं, और सभी दल इस पर अपनी पकड़ मजबूत करना चाहते हैं।
आरक्षण और क्रीमी लेयर पर चिराग का रुख
दलित वोट बैंक की लड़ाई तब और तेज हुई जब सुप्रीम कोर्ट का आरक्षण में क्रीमी लेयर की पहचान कर आरक्षण की सुविधा से वंचित करने को लेकर एक फैसला आया। तब चिराग पासवान ने वोट की राजनीति के लिए सीधे-सीधे SC-ST आरक्षण में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का समर्थन नहीं किया। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जाति-जनजाति के आरक्षण में कोटे में कोटा और इसमें क्रीमी लेयर संबंधी निर्णय का समर्थन करने से साफ इनकार कर दिया। चिराग चाहते हैं कि कोर्ट को इस फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए ताकि एससी-एसटी वर्ग में भेदभाव पैदा न हो और समाज को कमजोर न किया जा सके।
यह देखना दिलचस्प होगा कि बिहार की दलित राजनीति में यह आंतरिक संघर्ष किस दिशा में जाता है, और क्या यह एनडीए गठबंधन की एकजुटता को प्रभावित करेगा।