समग्र समाचार सेवा
दौसा, राजस्थान 11 जून : दौसा की धरती पर इतिहास लिखा जा रहा है, या यूं कहें कि राजस्थान की कांग्रेस की अंदरूनी सियासत का एक नया अध्याय शुरू हो रहा है। पूर्व केंद्रीय मंत्री राजेश पायलट की 25वीं पुण्यतिथि के अवसर पर आयोजित श्रद्धांजलि समारोह, जिसे एक सामान्य धार्मिक कार्यक्रम माना जा रहा था, दरअसल कांग्रेस की दो सबसे बड़ी शख्सियतों – सचिन पायलट और अशोक गहलोत के बीच की दशकों पुरानी रार का निर्णायक मोड़ बन गया है। पूरा देश और खासकर राजनीतिक गलियारे इस बात पर अपनी निगाहें गड़ाए हुए हैं कि क्या आज सचमुच पायलट और गहलोत ‘कुल्हाड़ी गाड़’ देंगे, या यह महज एक अस्थायी विराम है, जिसके पीछे गहरे राजनीतिक समीकरण छिपे हैं?
क्या सचिन पायलट अब बड़े पद की ओर देख रहे हैं?
पिछले कुछ दिनों से जो गहमागहमी चल रही थी, उसने अचानक एक नई दिशा ले ली है। सचिन पायलट ने स्वयं अशोक गहलोत के निवास पर जाकर उन्हें कार्यक्रम का न्योता दिया। यह न सिर्फ एक राजनीतिक औपचारिकता थी, बल्कि दशकों की अदावत को भुलाकर एक कदम आगे बढ़ाने का संकेत भी। गहलोत ने इस मुलाकात का वीडियो साझा करते हुए राजेश पायलट के साथ अपने पुराने संबंधों को याद किया। उन्होंने कहा कि वे दोनों 1980 में एक साथ लोकसभा पहुंचे और 18 साल तक सांसद रहे। सचिन पायलट ने भी अपनी ‘एक्स’ पोस्ट में इस मुलाकात की तस्वीर साझा करते हुए गहलोत से कार्यक्रम में शामिल होने का अनुरोध किया।
सवाल यह है कि इस “सुलह” के पीछे क्या है? क्या सचिन पायलट, जिन्हें 2020 के राजनीतिक संकट के बाद हाशिए पर धकेल दिया गया था, अब कांग्रेस में एक बड़ी भूमिका की तलाश में हैं? क्या उन्हें केंद्रीय संगठन में कोई अहम जिम्मेदारी मिलने वाली है, या राजस्थान में उनकी वापसी का रास्ता साफ हो रहा है? सूत्रों की मानें तो पायलट खेमा लंबे समय से इस बात पर जोर दे रहा है कि पार्टी को युवा नेतृत्व को आगे बढ़ाना चाहिए। ऐसे में, यह मुलाकात उस दिशा में एक बड़ा कदम हो सकती है, जहां सचिन पायलट को न केवल राजस्थान में, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी अधिक महत्व दिया जा सकता है।
अशोक गहलोत का ‘कड़वा’ समझौता?
वहीं, दूसरी ओर अशोक गहलोत का रुख भी किसी रहस्य से कम नहीं है। वह एक अनुभवी राजनेता हैं, जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी में कभी हार नहीं मानी। 2020 के संकट के दौरान भी उन्होंने अपनी सरकार बचाई और सचिन पायलट को किनारे कर दिया। लेकिन अब, जब वह स्वयं कार्यक्रम में शामिल होने का निमंत्रण स्वीकार कर रहे हैं, तो सवाल उठता है कि क्या यह उनकी ‘मजबूरी’ है, या कोई रणनीतिक समझौता?
क्या गहलोत ने आलाकमान के दबाव में आकर यह कदम उठाया है? कांग्रेस हाईकमान लंबे समय से राजस्थान में दोनों नेताओं के बीच सुलह कराने की कोशिश कर रहा था, ताकि राज्य में पार्टी को एकजुट रखा जा सके। क्या गहलोत को यह एहसास हो गया है कि भाजपा की लगातार मजबूत होती स्थिति को देखते हुए, कांग्रेस को एकजुटता दिखाने की जरूरत है? या फिर यह उनकी राजनीतिक सूझबूझ है कि वह अपने प्रतिद्वंद्वी को पास लाकर, उसकी बढ़ती महत्वाकांक्षाओं को नियंत्रित करना चाहते हैं?
गहलोत के लिए यह समझौता निश्चित रूप से ‘कड़वा’ होगा। उन्होंने कई बार पायलट को ‘गद्दार’ तक कहा था, और अब उन्हें उसी व्यक्ति के पिता की पुण्यतिथि में शामिल होना पड़ रहा है। लेकिन राजनीति में सब जायज है, और सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने के लिए अक्सर कड़वे घूंट पीने पड़ते हैं। यह भी हो सकता है कि गहलोत अब राष्ट्रीय राजनीति में अधिक सक्रिय भूमिका देख रहे हों, और इसलिए राजस्थान में शांति स्थापित करना उनकी प्राथमिकता बन गई हो।
दौसा: एक निर्णायक युद्धभूमि
आज दौसा का कार्यक्रम सिर्फ एक श्रद्धांजलि सभा नहीं है, बल्कि कांग्रेस के भीतर के शक्ति संतुलन का एक सीधा प्रदर्शन होगा। दोनों नेता मंच पर कैसे दिखते हैं, उनके हाव-भाव क्या होते हैं, और वे एक-दूसरे के प्रति क्या संदेश देते हैं, इन सब पर राजनीतिक विश्लेषकों की पैनी नजर रहेगी। क्या वे एक-दूसरे के साथ सहज दिखेंगे, या उनकी पुरानी कड़वाहट साफ नजर आएगी? यह सब आने वाले समय में राजस्थान और राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस की दिशा तय करेगा।
क्या कांग्रेस आलाकमान सचिन पायलट को कोई बड़ी जिम्मेदारी देकर उन्हें संतुष्ट करेगा? या क्या अशोक गहलोत अपनी पकड़ बनाए रखने में कामयाब होंगे? इन सभी सवालों के जवाब आज दौसा में मिलने की उम्मीद है, जहां दशकों से चली आ रही सियासी अदावत का एक नया मोड़ खुलने वाला है। यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस की राजनीति में समझौता किस करवट बैठता है, और क्या यह ‘सुलह’ पार्टी के लिए एक नई सुबह लाएगी, या फिर यह सिर्फ तूफान से पहले की शांति साबित होगी।