
हमारे समाज में शिक्षक को सदैव ईश्वर तुल्य माना गया है। “गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाय” जैसी उक्ति इस बात की गवाही देती है कि भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान सर्वोच्च रहा है। परंतु आज के इस तथाकथित आधुनिक और विकसित होते समाज में वही शिक्षक उपेक्षा, तिरस्कार और अपमान का पात्र बनते जा रहे हैं। यह केवल एक वर्ग विशेष की उपेक्षा नहीं है, बल्कि यह पूरे समाज के नैतिक पतन की ओर इशारा करता है। जब समाज अपने शिक्षकों को उचित स्थान नहीं देता, तो वह स्वयं अपनी जड़ों को काटने का कार्य करता है।
शिक्षकों की समस्याओं की अनदेखी: एक खतरनाक प्रवृत्ति
आज का समाज शिक्षकों की छुट्टियों, उनकी तनख़्वाह और सुविधाओं को लेकर असंतोष प्रकट करता है, लेकिन कभी यह नहीं सोचता कि शिक्षक किस मानसिक, शारीरिक और सामाजिक दबाव में कार्य करते हैं। एक शिक्षक केवल पाठ्यक्रम नहीं पढ़ाता, वह भावी पीढ़ी के चरित्र, नैतिकता, और दृष्टिकोण को आकार देता है। परंतु आज उन्हें सीमित संसाधनों, बढ़ते प्रशासनिक दबाव, और समाज के उपेक्षापूर्ण रवैये के बीच कार्य करना पड़ता है।
शिक्षकों के पास न तो निर्णय लेने की स्वतंत्रता है, न ही उनके अधिकारों की उचित सुरक्षा। उनकी प्रोन्नति, वेतनमान, स्थानांतरण जैसे मुद्दे वर्षों तक लंबित रहते हैं। वहीं दूसरी ओर, समाज की नजर में शिक्षक की छवि एक ऐसे व्यक्ति की बन चुकी है जिसे केवल छुट्टियों और सुविधाओं की चिंता है। यह दृष्टिकोण न केवल असत्य है, बल्कि घातक भी है।
छुट्टियों और तनख़्वाह से परेशान समाज: एक संकीर्ण मानसिकता
शिक्षकों को मिलने वाली छुट्टियों और वेतन को लेकर जिस तरह की टिप्पणियाँ की जाती हैं, वह अत्यंत शर्मनाक है। क्या हम भूल गए कि ये वही शिक्षक हैं जो गर्मी की छुट्टियों में भी मूल्यांकन, प्रशिक्षण और पाठ्य योजना निर्माण जैसे कार्यों में व्यस्त रहते हैं? क्या हम यह नहीं देख पा रहे कि एक शिक्षक 30-40 छात्रों के भविष्य को गढ़ने की जिम्मेदारी अकेले निभा रहा है?
उनकी तनख़्वाह की तुलना कॉर्पोरेट कर्मचारियों से करना न केवल अनुचित है बल्कि यह उस मानसिकता को दर्शाता है जो शिक्षक को केवल एक सरकारी नौकर के रूप में देखती है। समाज को यह समझना होगा कि शिक्षक का कार्य सेवा है, और उस सेवा का उचित मूल्य निर्धारण आवश्यक है। यह मूल्य निर्धारण न केवल आर्थिक हो, बल्कि सामाजिक सम्मान और आत्मसम्मान का भी हो।
समाज के गिरते स्तर का कारण: शिक्षक नहीं, समाज की सोच है
आज हम जिस समाज में जी रहे हैं, वहाँ मूल्य, नैतिकता और अनुशासन जैसे शब्दों का स्थान धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि हमने अपने शिक्षकों का सम्मान करना छोड़ दिया है। जब समाज अपने ‘गुरु’ को नीचा दिखाने लगे, तो वह समाज अपने पतन की ओर बढ़ता है।
शिक्षकों को असहाय बनाकर, उनके अधिकार छीनकर, उन्हें तिरस्कृत कर समाज यह समझ बैठा है कि वह प्रगति कर रहा है। जबकि सच यह है कि वह अपनी नींव को खोखला कर रहा है। कोई भी देश, कोई भी सभ्यता, तब तक उन्नति नहीं कर सकती जब तक उसके शिक्षक सम्मानित न हों।
आज के लोगों के विचार और प्रासंगिक कारण
वर्तमान समय के लोग सफलता को केवल आर्थिक सम्पन्नता से मापते हैं। ऐसे में शिक्षक, जिसकी प्राथमिकता धन नहीं बल्कि ज्ञान होता है, उसे तुच्छ समझा जाने लगा है। सोशल मीडिया और तकनीकी युग ने शिक्षक की भूमिका को कम कर दिया है – ऐसा भ्रम फैलाया गया है।
लोग सोचते हैं कि इंटरनेट से सब कुछ सीखा जा सकता है, परंतु वे यह भूल जाते हैं कि सूचना और ज्ञान में क्या अंतर होता है – यह केवल एक शिक्षक ही समझा सकता है।
छोटी सोच, बड़ा नुकसान
समाज की यह छोटी सोच कि शिक्षक को बस नौकरी मिल गई है, छुट्टियाँ मिल रही हैं, आराम का जीवन जी रहा है – यह सोच स्वयं समाज को गर्त में ले जा रही है। यह वही समाज है जो अपने बच्चों के फेल होने पर स्कूल और शिक्षक को दोष देता है, लेकिन कभी नहीं सोचता कि शिक्षक को पढ़ाने के लिए क्या संसाधन, क्या सम्मान और कैसी आज़ादी मिली है?
यह विडंबना है कि जो शिक्षक समाज को सभ्य बनाते हैं, उन्हीं को असभ्य शब्दों का सामना करना पड़ता है। यह सोच ही समाज के पतन का मूल कारण है।
शिक्षकों का सम्मान नहीं, तो शिक्षा का मूल्य नहीं
जिस समाज में गुरु का अपमान होता है, वहाँ शिक्षा का मोल नहीं रह जाता। जब विद्यार्थी अपने गुरु के सामने सिर झुकाने के बजाय प्रश्नचिन्ह उठाने लगे, तो समझ लीजिए कि समाज अपने अस्तित्व को खोने की राह पर है।
आज हमारे न्यायाधीश, डॉक्टर, इंजीनियर, अफसर – सब किसी न किसी शिक्षक की देन हैं। फिर वही समाज जब शिक्षक को ही अपमानित करता है, तो यह आस्तीन का साँप होने जैसा है – जिसने हमें मानव बनाया, उसी को काटने दौड़ पड़े।
न्यायपालिका और राजनीति की भूमिका
यह भी चिंतन का विषय है कि आज की न्यायपालिका शिक्षकों के मामलों में त्वरित न्याय नहीं देती, वहीं राजनीतिक दल शिक्षकों के मुद्दों को केवल चुनावी घोषणा पत्रों में रखते हैं, वास्तविकता में नहीं।
जिन जजों को समाज की भावना की रक्षा करनी है, वे जब शिक्षकों की पीड़ा को नजरंदाज करते हैं, तब एक शिक्षक के मन में गहरा आघात होता है। वहीं, जो नेता विदेशों में अपने देश को नीचा दिखाते हैं, वे देश और समाज के असली शत्रु हैं – न कि वे शिक्षक जो बच्चों के भविष्य के लिए संघर्षरत रहते हैं।
शिक्षकों के अधिकारों से जुड़े असंख्य मुद्दे
शिक्षकों के अधिकारों की बात करें तो वहाँ एक लम्बी सूची है – समय पर वेतन नहीं, मानदंडों के अनुरूप पदोन्नति नहीं, स्थानांतरण नीति में भेदभाव, शोषणकारी निरीक्षण प्रणाली, और अत्यधिक प्रशासनिक कार्यों का बोझ।
शिक्षक पढ़ाना चाहता है, लेकिन उसे डेटा फीड करने, जनगणना कराने, चुनाव कराने, और न जाने किन-किन कार्यों में लगा दिया जाता है। ऐसे में समाज उससे कैसी गुणवत्ता की अपेक्षा करता है?
समाज का आत्ममंथन आवश्यक
यह समय है जब समाज को आत्ममंथन करना चाहिए। हमें यह समझना होगा कि यदि शिक्षक का सम्मान नहीं होगा, तो शिक्षा का मूल्य घटेगा, और यदि शिक्षा का मूल्य घटेगा, तो समाज स्वयं नष्ट हो जाएगा।
हमें अपने दृष्टिकोण को व्यापक करना होगा, शिक्षकों को केवल नौकरी करने वाला व्यक्ति नहीं बल्कि समाज निर्माता समझना होगा।
जो समाज अपने गुरुजनों का सम्मान नहीं करता, वह कभी भी दीर्घकालिक उन्नति नहीं कर सकता। आइए, हम सब मिलकर अपने शिक्षकों को उनका उचित स्थान दें – तभी हमारा समाज फिर से उज्ज्वल भविष्य की ओर अग्रसर हो सकेगा। वरना यह पतनशील राह हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी।
“गुरु को अपमानित करने वाला समाज स्वयं अपने भविष्य से हाथ धो बैठता है।”
इस चेतावनी को समय रहते समझना होगा। वरना एक दिन जब हम पीछे मुड़कर देखेंगे, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
लेखिका परिचय-:
डॉ. नीरजा चतुर्वेदी एक बहुआयामी व्यक्तित्व हैं – पत्रकार, लेखिका, उद्घोषिका, कवयित्री, साक्षात्कारकर्ता और शिक्षाविद्। शिक्षा, मीडिया, संवाद, अनुसंधान और नवाचार के क्षेत्र में 26 वर्षों से अधिक का समृद्ध अनुभव रखती हैं। वर्तमान में दिल्ली स्थित डीएवी पब्लिक स्कूल में हिंदी की प्रगतिशील शिक्षिका एवं मास्टर ट्रेनर हैं। ऑल इंडिया रेडियो की प्रसिद्ध उद्घोषिका होने के साथ-साथ दूरदर्शन की चर्चित कार्यक्रमों की एंकर भी रही हैं। इन्होंने अनेक शोधपत्र प्रस्तुत किए हैं और महिलाओं से जुड़े साइबर अपराध विषय पर पुस्तक सम्पादित की है। पत्रकारिता और महिला सशक्तिकरण में उत्कृष्ट योगदान के लिए इन्हें राष्ट्रीय महिला नेतृत्व पुरस्कार 2024 सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाज़ा गया है। हिंदी भाषा और सामाजिक जागरूकता के प्रति इनकी प्रतिबद्धता अनुकरणीय है।