साहस की स्वर-गाथा: कान्स में गूँजी मीनू बख्शी की अंतर्मन की कहानी ‘आई एम, आई कैन’

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जब कान्स की रातें रेशमी अंधकार की चादर ओढ़े, तारों की चुप्पी में कहानियाँ आहिस्ता से फुसफुसाती हैं, तब कुछ कथाएँ होती हैं जो सिर्फ़ आँखों  से नहीं, आत्मा के द्वारा अनुभव की जाती  हैं। ऐसी ही एक दीपशिखा-सी कहानी है—”आई एम, आई कैन” जो भीड़ की चकाचौंध में नहीं, मौनता के आलिंगन  में अपना स्थान बनाती है। यह फिल्म शोर नहीं करती, बस जैसे चंद्रमा की किरणें जल की सतह को चुपचाप आलोकित करती हैं, वैसे ही यह कृति भी अंतर्मन को आलोकित करती है।श्री अजय चिटनीस द्वारा  निर्देशित यह विलक्षण वृत्तचित्र 14 मई की संध्या, Palais B के पर्दे पर उभरा, तों लगा मानो किसी सितारे की स्वप्निल कथा कान्स की अंतरराष्ट्रीय फलक पर आकार ले रही हो। यह भारतीय सिनेमा की आत्मा को दर्शाने वाला एक ऐसा रत्न था, जिसे इंडियन मोशन पिक्चर प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन (IMMPA) ने भारत की सांस्कृतिक उपस्थिति के रूप में प्रस्तुत किया। यह कोई साधारण जीवनी नहीं, बल्कि उस स्त्री की जीवनगाथा है, जो एक स्वर बनकर गूँजा।

प्रकाश की वह पहली किरण: जेएनयू के गलियारों में

मीनू बख्शी जी उन लोगों के लिए कोई अजनबी नहीं हैं जिनके रास्ते उनके साथ जुड़े हैं। मेरे लिए, वह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में मेरे शुरुआती दिनों में एक प्रकाशपुंज थीं, जब मैं 19 साल की उम्र में एक उत्साही स्नातक छात्र के रूप में वहाँ पहुँचा था। मेरे आसपास के लोग, ज्यादातर पीएचडी छात्र, जो मुझसे लगभग एक दशक बड़े थे, अपनी बौद्धिक गहराई से मुझे चकित कर रहे थे। ज्ञान के प्रति मेरा उत्साह मुझे मार्क्सवादी दर्शन, पश्चिमी इतिहास, जापानी साहित्य, और संस्कृत नाटक की गहराइयों में ले गया, लेकिन मैं जिस विषय को पढ़ने के लिए गया था उससे मेरा ध्यान भटक गया एवं अन्य विषयों की ओर ध्यान केंद्रित होने लगा जिसके कारण मेरा सीजीपीए गिरने लगा। तब मीनू  बख्शी जी, जो मेरी स्पैनिश की  प्रोफेसर थी, उन्होंने मुझे धीरे धीरे  लेकिन दृढ़ता के साथ सही रास्ता दिखाया। उनकी बुद्धिमत्ता और गर्मजोशी ने मुझे याद दिलाया कि जुनून, जब अनुशासन के साथ मिलता है, तो सपनों को हकीकत में बदल सकता है। उनका प्रभाव केवल शैक्षणिक नहीं था; यह गहरे मानवीय स्तर पर था, जो उनकी असीम क्षमता को दर्शाता है कि वह अपने आसपास के लोगों को ऊपर उठा सकती हैं।

अभूतपूर्व प्रतिभाओं की मणिमाला
मीनू  बख्शी जी का जीवन एक रचनात्मक यज्ञ की तरह है—जहाँ हर  कला, उनकी हर भूमिका,  उनके व्यक्तित्व में एक समावेश  प्रस्तुत करता है। वह जेएनयू में स्पैनिश की सेवानिवृत्त सहायक प्रोफेसर थीं, और उन्होंने  भारत सरकार की ओर से स्पैनिश भाषा के  आधिकारिक दुभाषिए  के रूप में अनेकों राष्ट्रपति और प्रधानमंत्रियों के साथ काम किया। स्पेन की सरकार ने उन्हें “ऑर्डर ऑफ इसाबेला ला कैटोलिका” से अलंकृत किया—जो किसी विदेशी को दिया जाने वाला दूसरा सर्वोच्च सम्मान है। किन्तु उनकी प्रतिभा भाषाओं तक ही सीमित नहीं थी। वह उर्दू की एक मर्मस्पर्शी कवयित्री हैं, जिनकी रचनाएँ  स्त्री मन की कोमल गहराइयों को छूती हैं—तिश्नगी, मौज-ए-सराब, जुस्तजू, उफुक के पार, अब्र-ए-करम इत्यादि -हर काव्य संग्रह आत्मा का प्रतिबिंब बन कर पाठक से संवाद करता है।

स्वर से शब्द तक: संगीत और साहित्य का संगम
गीतों के क्षेत्र में भी मीनू जी का योगदान अतुलनीय है। उन्होंने पंजाबी लोकगीतों में आधुनिक स्पर्श का समावेश करते  हुए परंपरा को एक नया जीवन प्रदान किया। ‘लाओ  मेहंदियाँ’   की शृंखला हो या बैंड बाजा पंजाब का भव्य संग्रह, हर संगीत रचना उनकी सांस्कृतिक चेतना की प्रतीक है। मीका सिंह के साथ डीजे वालेया जैसा गीत, जो यूट्यूब पर 30 दिनों में 50 लाख से अधिक बार देखा गया, यह स्पष्ट करता है कि वे आधुनिकता और परंपरा के बीच सेतु बनाना जानती हैं।

सवेरा’ की उजास

मीनू  जी की परोपकारी भावना उनके  NGO सवेरा के माध्यम से समाज के वंचित वर्गों तक पहुँचती है। वंचित बच्चों व महिलाओं को सशक्त बनाने का लक्ष्य अथवा जेएनयू के स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज़ को एमबी लैंग्वेज लैब का दान हो या कोविड काल में कविताओं से सांत्वना देना—प्रत्येक कार्य उनके मानवतावादी दृष्टिकोण का साक्षी है।

उन्हें फख्र-ए-हिंद, अचीवर्स अवार्ड 2014, और अम्बेसडर ऑफ होप जैसे कई  सम्मान से अलंकृत किया  गया है। पर सच कहें तो,  सम्मान से बढ़कर उनकी असली पहचान उनके स्पर्श के माध्यम से बदलते कई लोगों के जीवन हैं।

चित्रण नहीं, अनुभूति है यह वृत्तचित्र

“आई एम, आई कैन”  किसी जीवन की घटनाओं की एक सूची नहीं है, यह एक भावनात्मक यात्रा है। निर्देशक अजय चिटनिस ने इसमें शब्दों के शोर से दूर, आत्मा की सच्चाई को उजागर किया है। कैमरा वहाँ  ठहरता है, जहाँ  आत्मा बोलती है। संगीत के स्वर कहीं हैं, कविता की हल्की-सी लहर कहीं और कुछ माँ  की तरह दिशा देती शिक्षिका की झलक कहीं।

यह फिल्म उनके जीवनसाथी कंवलजीत सिंह बख्शी को भी मान देती है , हाँ—जो उन्होंने हर उड़ान में नींव की तरह रहे। यह एक आत्मीय स्वीकृति है उस अदृश्य शक्ति की, जो हर सशक्त स्त्री के पीछे खड़ी होती है।

कान्स में गूंजती भारतीय स्त्री की स्वर-गाथा”आई एम, आई कैन”: साहस और स्त्रीत्व का गान

जब आई एम, आई कैन कान्स के भव्य मंच पर प्रदर्शित हुई, तब वह केवल एक व्रततचित्र  नहीं रहा —वह साहस का एक स्तुतिगान बन गया , स्त्रीत्व की गरिमा को समर्पित एक सुमधुर काव्य की भाँति गूँज  उठा ।

भारतीय संस्कृति की मिट्टी से उत्पन्न इस जीवनचित्र ने विश्वपटल पर उस स्त्री-स्वर को मुखर किया, जो युगों से सभ्यता की आत्मा में रचा-बसा है, परंतु अक्सर अनसुना रह जाता है। यह फिल्म उन खामोश क्षणों को उजागर करती है, जहाँ साहस मुखर नहीं होता, परंतु उसकी उपस्थिति जीवन के हर संघर्ष में गूंजती रहती है।

यह उन  स्त्रियों की कथा है— जो बिना भय के, बिना शोर के  अपने कर्म को शिरोधार्य  कर दायित्व लेकर  समाज को एक नई दिशा देती हैं, बिना किसी मंच की प्रतीक्षा के।

आई एम, आई कैन एक ऐसा भाव है, एक ऐसी पुकार, जो कहती है—”मैं हूँ, इसलिए मैं कर सकती हूँ।”

जीवन की वह गूँज जो कभी धीमी नहीं होती जो लोग मीनू  बख्शी को व्यक्तिगत रूप से जानते हैं, उनके लिए यह फिल्म उनके व्यक्तित्व का प्रतिरूप है—शब्दों, सुरों और सेवा की त्रयी। और जो उन्हें पहली बार इस फिल्म में देखते हैं, उनके लिए यह प्रेरणा का आलोक है। यह व्रततचित्र  एक स्मरण है कि हर स्त्री, जो अपने भीतर की आग को पहचाने, वह एक ब्रह्मांड रच सकती है।

जब पलैस बी का पर्दा धीरे-धीरे ढल गया और अंधेरे में वह स्वर गूँजा —”आई एम, आई कैन”—तब वह केवल एक फिल्म नहीं थी। वह एक जीवन बन गई, जो हर दर्शक के भीतर एक विश्वास की चिंगारी छोड़ गई।

यह केवल एक कहानी नहीं है, यह जीवन के स्वर की रागिनी है—साहस की, करुणा की, और सृजन की।

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