पूनम शर्मा पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (PDP) की अध्यक्ष और जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती द्वारा दिया गया ताज़ा बयान एक बार फिर भारत-पाकिस्तान संबंधों को लेकर चल रही बहस को नई दिशा देता है। श्रीनगर में पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर को भारत और पाकिस्तान के बीच ‘युद्ध का मैदान’ नहीं, बल्कि ‘दोस्ती और संवाद का पुल’ बनना चाहिए। उनका यह वक्तव्य मानवीय दृष्टिकोण से भले ही उचित प्रतीत हो, परंतु यह जमीनी यथार्थ और राजनीतिक संवेदनशीलता से कहीं न कहीं कटता हुआ भी लगता है।
महबूबा मुफ्ती ने जम्मू-कश्मीर की स्थिति की तुलना “दो लड़ते हाथियों के पैरों तले कुचली गई घास” से की। यह रूपक उनकी पीड़ा और आम जनता की तकलीफ को व्यक्त करता है। लेकिन साथ ही, उन्होंने नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेताओं – विशेषकर उमर अब्दुल्ला और फारूक अब्दुल्ला – पर निशाना साधते हुए यह भी याद दिलाया कि सिंधु जल संधि के निलंबन पर सबसे पहले सराहना नेशनल कॉन्फ्रेंस की ओर से ही हुई थी। उनके अनुसार, जब केंद्र सरकार ने पाकिस्तान की ओर पानी की आपूर्ति पर सख्ती दिखाई, तब उमर अब्दुल्ला ने इसका समर्थन किया था।
यह वक्तव्य महबूबा मुफ्ती की दोहरी रणनीति को भी उजागर करता है। एक ओर वे शांति और संवाद की बात करती हैं, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के पुराने बयानों को लेकर उन्हें कठघरे में खड़ा करती हैं। इसका उद्देश्य शायद यह भी हो सकता है कि वह खुद को ‘संवाद और सद्भाव’ की एकमात्र पैरोकार के रूप में पेश करना चाहती हैं, जबकि विरोधियों को ‘युद्ध के पक्षधर’ के रूप में दिखाना चाहती हैं।
उनका यह बयान उस समय आया है जब भारत-पाक संबंध पहले से ही तनावपूर्ण हैं, और सीमा पर सुरक्षा बल हाई अलर्ट पर हैं। इस संदर्भ में, महबूबा मुफ्ती का यह कहना कि “हमारे पाकिस्तान की सरकार से मतभेद हो सकते हैं, पर वहां की जनता से नहीं,” अपने आप में एक भावनात्मक और सामयिक बयान है। परंतु इसे रणनीतिक रूप से देखा जाए तो यह राष्ट्र की एकता और सामरिक प्राथमिकताओं से टकराता भी है। खासकर तब, जब पाकिस्तान लगातार आतंकी गतिविधियों का समर्थन करता रहा है।
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि महबूबा मुफ्ती जम्मू-कश्मीर को ‘शांति का प्रतीक’ बनाना चाहती हैं, लेकिन वह यह नहीं स्वीकारतीं कि शांति की राह केवल संवाद से नहीं, बल्कि पारदर्शी और नीतिगत प्रतिबद्धता से भी निकलती है – जिसमें आतंकवाद का निर्णायक खात्मा और सीमाओं की सुरक्षा प्राथमिक शर्त हैं।
इस बयान से साफ है कि महबूबा मुफ्ती का राजनीतिक दृष्टिकोण न केवल पाकिस्तान के प्रति अपेक्षाकृत नरम है, बल्कि यह जम्मू-कश्मीर में चुनावी राजनीति के मद्देनज़र भावनाओं को भुनाने का एक प्रयास भी प्रतीत होता है। ऐसे बयानों से कश्मीर के आम लोगों की स्थिति तो नहीं सुधरती, परंतु राष्ट्रीय स्तर पर भ्रम और वैचारिक टकराव ज़रूर पैदा होता है।
यह कहना उचित होगा कि महबूबा मुफ्ती का यह बयान शांति और संवाद के आदर्श की बात करते हुए भी, राजनीतिक लाभ की तलाश और विरोधियों को घेरने की एक रणनीति है। इस प्रकार का वक्तव्य संवेदनशील सीमावर्ती राज्य के नेताओं से अपेक्षित परिपक्वता और राष्ट्रीय हित की भावना को कमज़ोर करता है।