अशोका में बहस कब तक? बिखचंदानी ने चेतावनी दी ‘प्लेटफ़ॉर्म हाइजैकिंग’ पर

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समग्र समाचार सेवा नई                                                                                                                                                                                                                      दिल्ली, 3 जून: अशोका यूनिवर्सिटी के सह-संस्थापक संजीव बिखचंदानी ने महमूदाबाद विवाद के मद्देनज़र हाल ही में एक पूर्व छात्र द्वारा उठाए गए सवालों का विस्तृत जवाब देते हुए कहा है, “संस्थागत प्लेटफ़ॉर्म को हाइजैक करना अधिकार का अपहरण है।” महमूदाबाद मुद्दे ने विश्वविद्यालय में अकादमिक स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की आज़ादी और संस्थागत स्वायत्तता के बीच संतुलन पर बहस तेज़ कर दी है।

अली खान महमूदाबाद, जो अशोका में प्रोफेसर हैं, ने कुछ सप्ताह पहले आरोप लगाया था कि प्रशासन विश्वविद्यालय की स्वतंत्रता सीमित कर अपनी राजनीतिक प्राथमिकताओं को थोप रहा है। इसने परिसर में छात्रों, शिक्षकों और पूर्व छात्रों सहित कई वर्गों के बीच तीखी बहस छेड़ दी। महमूदाबाद ने खुले पत्र में कहा था कि विश्वविद्यालय मंचों पर पक्षपातपूर्ण राजनीतिक विचारधारा को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिससे “अकादमिक स्वतंत्रता और निष्पक्षता” बाधित हो रही है।

एक पूर्व छात्र ने बिखचंदानी से सवाल पूछा कि क्या अशोका जैसे संस्थान में किसी भी वक्ता, आयोजन या शोध को केवल प्रशासनिहित एजेंडा के अनुरूप होना चाहिए। इसने आरोप लगाया कि कभी-कभी “संस्थागत निर्णय राजनीतिक विचारों की आग में घी डालने” जैसा होता दिखता है। इस पर जवाब देते हुए बिखचंदानी ने स्पष्ट किया कि “अशोका में हर व्यक्ति—छात्र, शिक्षक या शोधकर्ता—को अपनी आवाज़ उठाने और शोध करने का अधिकार है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कोई अपना निजी या राजनीतिक एजेंडा बिना मर्यादा के संस्थागत मंच पर लाद दे।”

बिखचंदानी ने आगे कहा, “हाइजैकिंग ऑफ इंस्टीट्यूशनल प्लेटफ़ॉर्म अनिवार्य रूप से अधिकार का अपहरण होता है, जिससे संस्थान की प्रतिष्ठा और अखंडता प्रभावित होती है।” उन्होंने यह भी दोहराया कि अशोका में सक्रियता को प्रोत्साहित किया जाता है, बशर्ते वह संस्थागत नियमों और व्यावसायिक नैतिकता का सम्मान करें। “हम बहस और विवादों का स्वागत करते हैं, परंतु वह शिक्षण व शोध के मूल उद्देश्य—समावेशी, तटस्थ और निष्पक्ष माहौल—को ध्यान में रखते हुए होनी चाहिए।”

महमूदाबाद ने बिखचंदानी के बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि विश्वविद्यालय को लैंगिक समानता, अनुसंधान स्वतंत्रता और व्यापक बहस के अवसर जैसे दिलचस्प मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। जिनके  मुताबिक़, “अकादमिक स्वतंत्रता का असली माद्दा यही है कि श्रोताओं को डर के बिना सवाल पूछने का वातावरण मिले।” इस बीच कई छात्र संगठन और सक्रियतावादी समूह अशोका के परिसरों में खुले मंच आयोजित कर रहे हैं, ताकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और विचार-विमर्श की संस्कृति को जिंदा रखा जा सके।

यह विवाद मूलतः “संस्थागत स्वायत्तता बनाम व्यक्तिगत सक्रियता” के संघर्ष को रेखांकित करता है। जहां बिखचंदानी यह कहते हैं कि संस्थागत मंच की मर्यादा जरूरी है, वहीं महमूदाबाद और उनके समर्थक कहते हैं कि असली बदलाव तभी संभव है जब कटु आलोचना और सवालों को खुली ज़मीन मिले। इस बहस के अंतिम परिणाम से ही यह स्पष्ट होगा कि अशोका जैसे संस्थान में पारदर्शिता, निष्पक्षता और अकादमिक मूल्य किस हद तक बनाए रखे जा सकते हैं।

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