NATO का ‘रीआर्ममेंट’ प्लान और जलवायु संकट: हथियारों की होड़ या पर्यावरण का विनाश?

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पूनम शर्मा

हाल ही में ‘द गार्जियन’ में प्रकाशित हुई रिपोर्ट के अनुसार शोधकर्ताओं  का दावा है कि केवल नाटो देशों की सैन्य पुनर्सज्जा (Rearmament) से ही हर साल लगभग 200 मिलियन टन ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन बढ़ सकता है। ये आंकड़ा एक ऐसे देश के कार्बन फुटप्रिंट के बराबर है जो पाकिस्तान जितना बड़ा और आबादी वाला हो।

 युद्ध का पर्यावरणीय चेहरा

2023 में दुनिया ने हथियारों पर $2.46 ट्रिलियन खर्च किए। यह अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है। लेकिन इसका एक और चेहरा भी है—जलवायु संकट। जब एक देश अपने GDP का बड़ा हिस्सा सैन्य खर्च में डालता है, तो वह सिर्फ कार्बन उत्सर्जन नहीं बढ़ाता, बल्कि जलवायु नीतियों के लिए जरूरी संसाधनों को भी छीन लेता है।

जलवायु परिवर्तन: युद्ध का नया ईंधन

यह बात अब स्पष्ट होती जा रही है कि जलवायु परिवर्तन खुद भी संघर्षों को जन्म दे रहा है। सूडान के दारफुर में लंबे सूखे और मरुस्थलीकरण ने संसाधनों के लिए टकराव को बढ़ावा दिया। आर्कटिक में बर्फ के पिघलने से नए तेल-गैस क्षेत्रों पर देशों की निगाहें टकरा रही हैं।

अब जब जलवायु खुद युद्ध का कारण बन रही है, और सैन्य खर्च उसे और बिगाड़ रहा है, तो ये एक खतरनाक चक्र बन चुका है।

नाटो और यूरोप की बढ़ती सैन्य भूख

रिपोर्ट में बताया गया है कि 2021 से 2024 के बीच EU देशों का रक्षा बजट 30% तक बढ़ा है। मार्च 2025 में EU ने ‘ReArm Europe’ नामक योजना के तहत €800 बिलियन के अतिरिक्त रक्षा खर्च की घोषणा की।

शोधकर्ताओं का आकलन है कि अगर नाटो देश (अमेरिका को छोड़कर) अपनी GDP का 1.5% से बढ़ाकर 3.5% रक्षा क्षेत्र में खर्च करते हैं, तो कुल उत्सर्जन 87 से 194 मेगाटन CO2e प्रति वर्ष बढ़ सकता है। यानी एक छोटे देश के सालाना उत्सर्जन के बराबर।

हथियार बनाना भी जलवायु के लिए खतरनाक

सेना सिर्फ डीज़ल जलाकर या फाइटर जेट उड़ाकर ही प्रदूषण नहीं करती। हथियार बनाने में स्टील और एल्यूमिनियम जैसी चीज़ें लगती हैं, जिनका उत्पादन ही बेहद कार्बन-इंटेंसिव है। एक टैंक या जहाज का निर्माण जितना तकनीकी होता है, उतना ही वह पर्यावरण के लिए जहरीला भी होता है।

सैन्य खर्च बनाम जलवायु फंडिंग

जब देश हथियारों पर खर्च बढ़ाते हैं, तो वो आमतौर पर दूसरी योजनाओं की कीमत पर होता है। उदाहरण के लिए, ब्रिटेन ने अपने विदेशी सहायता बजट को काटकर सैन्य खर्च बढ़ाया। यही नीति बेल्जियम, फ्रांस और नीदरलैंड्स ने भी अपनाई।

क्यूबा जैसे देशों ने COP29 सम्मेलन में खुलेआम इस ‘दोहरे मापदंड’ की आलोचना की—जहां अमीर देश हथियारों पर अरबों खर्च करते हैं, लेकिन जलवायु फंडिंग के नाम पर कुछ नहीं देते।

कार्बन की कीमत: $264 बिलियन सालाना?

अगर एक टन CO2 के उत्सर्जन की सामाजिक लागत $1,347 मानी जाए, जैसा कि नवीनतम अध्ययन बताते हैं, तो नाटो का यह नया सैन्य उत्सर्जन दुनिया को $264 बिलियन सालाना का नुकसान पहुंचा सकता है।

और यह सिर्फ 31 देशों का आकलन है, जो दुनिया के केवल 9% उत्सर्जन को कवर करता है। बाकी दुनिया के आंकड़े अभी अंधेरे में हैं।

निष्कर्ष: सुरक्षा का भ्रम या अस्तित्व का संकट?

सवाल यह नहीं है कि क्या देश अपनी सुरक्षा के लिए तैयार हों—सवाल यह है कि क्या वे एक ऐसे भविष्य की कीमत चुका रहे हैं जो कभी आएगा ही नहीं, क्योंकि जलवायु संकट ने उससे पहले ही सब कुछ लील लिया होगा।

अगर आज दुनिया ने सैन्य बजट के एक हिस्से को जलवायु नीतियों में लगा दिया, तो शायद कल युद्ध लड़ने की जरूरत ही न पड़े।

“बम और बंदूकें हमें दुश्मन से बचा सकती हैं, लेकिन वे हमें सूखे, बाढ़ और जलवायु तबाही से नहीं बचा सकतीं।” यह बात अब वैश्विक रणनीति का हिस्सा बननी चाहिए।

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