राजनीतिक रंग में डूबी ममता बनर्जी की बयानबाज़ी: देशहित या सत्ता की ललक?

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पूनम शर्मा 

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी फिर से विवादों में हैं। इस बार उन्होंने केंद्र सरकार के “ऑपरेशन सिंदूर” पर तीखा पलटाव करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निशाने पर लगाया है। पर सवाल उठता है कि क्या यह हमला राष्ट्रीय सुरक्षा के खिलाफ खड़ा किया गया एक सियासी मोर्चा है या फिर अपनी डूबती राजनीतिक ज़मीन को बचाने की कोशिश?

ममता बनर्जी ने कहा है कि “ऑपरेशन सिंदूर” का नाम जानबूझकर राजनीतिक लाभ के लिए चुना गया है। उन्होंने इसका नाम “राजनीतिक होली” दिया और पीएम मोदी को लाइव डिबेट की चुनौती  दे  डाली। पर क्या यह भाषा एक मुख्यमंत्री के लिए शोभा देती है? क्या देश की सुरक्षा पर केंद्र की कोई कार्रवाई को सिर्फ राजनीतिक चश्मे से देखना उचित है?

राष्ट्रीय सुरक्षा पर राजनीति क्यों?

“ऑपरेशन सिंदूर” एक अत्यंत संवेदनशील और रणनीतिक ऑपरेशन है, जिसे भारत की सुरक्षा एजेंसियों ने देश के खिलाफ साजिश रचने वाले विदेशी और देशी दुश्मनों के खिलाफ निकाला गया। इसका मकसद राष्ट्र की सीमाओं के भीतर छिपे गद्दारों को उजागर करना था। लेकिन ममता बनर्जी ने इस ऑपरेशन को लेकर जिस प्रकार की बयानबाज़ी की, वह न केवल सुरक्षा एजेंसियों का अपमान है बल्कि देशहित को भी आघात पहुंचाने वाली है।

क्या ममता बनर्जी यह भूल गई हैं कि जब सुरक्षा बल कार्रवाई करते हैं, तो वे किसी राजनीतिक दल के लिए नहीं, बल्कि राष्ट्र की रक्षा के लिए खड़े होते हैं? इस तरह के ऑपरेशनों को ‘राजनीतिक स्टंट’ करार देना उन जांबाज़ अफसरों का अपमान है जिन्होंने अपने प्राण जोखिम में डालकर देश को सुरक्षित रखने का काम किया।

“ऑपरेशन बंगाल” पर आपत्ति क्यों?

प्रधानमंत्री मोदी ने जब “ऑपरेशन बंगाल” शब्द का इस्तेमाल किया, तो उसका संदर्भ था-बंगाल में फैला भ्रष्टाचार, महिला अत्याचार और तुष्टीकरण की राजनीति के खिलाफ एक निर्णायक लड़ाई। लेकिन ममता बनर्जी ने इसे बंगाल की अस्मिता के साथ जोड़कर एक भावनात्मक कार्ड खेला है। सवाल यह है कि जब बंगाल की महिलाएं दरिंदगी का शिकार होती हैं, तो क्या वह बंगाल की अस्मिता नहीं होती?

क्या ममता बनर्जी जानकारी दे सकती हैं कि जब सैंडेशखाली जैसे केस में महिलाएँ  सामने आकर रोती-बिलखती हैं, तो उनकी सरकार ने क्यों चुप्पी साध रखी थी? क्या यह “ऑपरेशन बंगाल” की ज़रूरत को खुद सिद्ध नहीं करता?

चुनाव की चुनौती या असहायता की स्वीकृति?

ममता बनर्जी ने कहा, अगर हिम्मत है तो कल चुनाव की तारीख घोषित करें। यह एक आक्रामक बयान जैसा सुनने को मिलता है, लेकिन वास्तविक रूप से यह उनके भीतर होने वाली घबराहट को लिख दिया जाता है। जो मुख्यमंत्री अपनी सरकार के अंतर्गत अपनी शासन-शाखा के बारे में आश्वस्त हो, वह कभी इतनी बौखलाहट में चुनौती नहीं देता।

असल में, ममता बनर्जी को यह जानकारी है कि बंगाल में उनका कब्ज़ा कमजोर पड़ रहा है। विपक्षी दलों की एकता और केंद्र सरकार की लगातार सक्रियता उनके लिए खतरे की घंटी है। ऐसे में हर मुद्दे को केंद्र बनाकर खुद को ‘पीड़िता’ के रूप में प्रस्तुत करना उनकी पुरानी रणनीति रही है।

विदेश यात्रा और लोकतंत्र का बहाना

ममता बनर्जी ने विपक्षी पार्टियों की विदेश यात्रा को देशहित में बताया। लेकिन प्रश्न यह है कि यदि विदेश जाकर देश की इज्जत बढ़ाई जाती है, तो फिर भारत के लोकतंत्र को “खतरे में” बताना किस एजेंडे का हिस्सा है? क्या यह देश को नीचा दिखाने का एक अप्रत्यक्ष साधन नहीं है?

जब पीएम मोदी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का पक्ष रखते हैं, तो उस पर राजनीति होती है। लेकिन जब विपक्षी नेता विदेशी धरती पर भारत को बदनाम करते हैं, तो उसे “लोकतंत्र की लड़ाई” कहा जाता है। यह दोहरा मापदंड नहीं तो और क्या है?

मुद्दों  से भटकती राजनीति

ममता बनर्जी के हालिया बयान यह इशारा करते हैं कि वे मुद्दों से हटकर भावनात्मक और आक्रामक राजनीति का सहारा ले रही हैं। लेकिन अब जनता समझ चुकी है कि सच्चाई क्या है। “ऑपरेशन सिंदूर” जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा के कदमों पर राजनीति करने की जगह अगर राज्य सरकार अपने प्रशासन और कानून व्यवस्था को दुरुस्त करती, तो शायद पीएम मोदी को “ऑपरेशन बंगाल” की बात करने की ज़रूरत ही न पड़ती।

अब समय आ गया है कि तुष्टीकरण और भावनात्मक शोर से ऊपर उठकर राष्ट्रहित और सुशासन को प्राथमिकता दी जाए। वरना जनता हर उस सरकार से जवाब मांगेगी जो खुद को नेता समझकर राष्ट्र से बड़ा मानने लगे।

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