पूनम शर्मा
भारत की सुरक्षा, संप्रभुता और सामाजिक संतुलन पर जब भी कोई खतरा आता है, तब एक खास वर्ग अचानक “मानवाधिकार” की चादर ओढ़कर प्रकट हो जाता है। इनकी हमदर्दी हमेशा उन्हीं के लिए बहती है जो या तो घुसपैठिए होते हैं, या फिर राष्ट्र-विरोधी ताकतों के मोहरे। रोहिंग्या मुस्लिम घुसपैठियों के मामले में भी यही पैटर्न दोहराया गया। तथाकथित मानवाधिकारवादियों ने एक बार फिर ‘पीड़ितों की रक्षा’ के नाम पर देश को गुमराह करने की कोशिश की। लेकिन इस बार न तो समाज ने इनकी बातों पर विश्वास किया, और न ही अदालत ने।
झूठ की नाव और हमदर्दी के चप्पू:
इन कथित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की रणनीति बेहद चालाक है। पहले एक झूठी कहानी रची जाती है — “रोहिंग्या शरणार्थी हैं”, “वे भारत में शांति से रहना चाहते हैं”, “उन्हें म्यांमार में सताया गया”, आदि-आदि। फिर मीडिया में इनके ‘दुख भरे चेहरे’ दिखाए जाते हैं, इंटरव्यू करवाए जाते हैं, ताकि समाज में एक भावनात्मक लहर चलाई जा सके।
इस लहर को न्यायालय में “मानवाधिकार” की दुहाई देकर स्थापित करने की कोशिश की जाती है। लेकिन जब अदालत में तथ्यों की बारी आती है, तो इनकी पूरी कहानी की परतें खुल जाती हैं।
भारत में घुसपैठ, न कि शरण:
रोहिंग्या भारत में शरण लेने नहीं आए, बल्कि उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से घुसपैठ की है। बांग्लादेश से होते हुए भारत के सीमावर्ती राज्यों में उन्होंने अपना ठिकाना बनाया, और फिर धीरे-धीरे दिल्ली, जम्मू, हैदराबाद, मुवत्तुपुझा (केरल) जैसे शहरों तक फैल गए।
NIA और IB जैसी सुरक्षा एजेंसियों की रिपोर्ट्स बताती हैं कि इनमें से कई रोहिंग्या कट्टरपंथी संगठनों से जुड़े हैं। इनके पास आधार कार्ड, राशन कार्ड और यहां तक कि वोटर आईडी तक उपलब्ध हैं — जो इन्हें स्थानीय दलालों और तथाकथित कार्यकर्ताओं की मदद से मिले। क्या यह किसी शरणार्थी का काम होता है?
मानवाधिकार या एजेंडा?
जो लोग रोहिंग्याओं के लिए अदालत पहुंचते हैं, वे कभी कश्मीर में विस्थापित कश्मीरी हिंदुओं के लिए आवाज़ नहीं उठाते। उन्हें कभी पाकिस्तान और बांग्लादेश से पलायन कर भारत आए हिंदू शरणार्थियों की पीड़ा नहीं दिखती। उनका रोना सिर्फ तब फूटता है जब मुद्दा इस्लामिक कट्टरपंथ या विदेशी घुसपैठियों से जुड़ा हो।
यह दोगलापन किसी मानवाधिकार की भावना से नहीं, बल्कि एक खास वैचारिक एजेंडे से प्रेरित होता है — भारत को एक ‘Soft State’ के रूप में दिखाने का एजेंडा, जहाँ कानून का शासन नहीं, भावनाओं से फैसले होते हों।
न्यायालय ने भी दिखाया आईना:
हाल ही में जब रोहिंग्याओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं डाली गईं, तो कोर्ट ने साफ कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा सर्वोपरि है। भारत सरकार ने भी स्पष्ट किया कि रोहिंग्याओं की उपस्थिति से आंतरिक सुरक्षा को खतरा है। अदालत ने कोई विशेष रियायत नहीं दी, और यह बता दिया कि भारत कोई धर्मशाला नहीं है।
समाज की समझ में आ गया है खेल:
अब आम भारतीय भी समझने लगा है कि ‘मानवाधिकार’ के नाम पर किस तरह देश की संप्रभुता और सुरक्षा से खिलवाड़ किया जा रहा है। लोगों को यह भी स्पष्ट हो गया है कि ये समूह विदेशी फंडिंग से चल रहे हैं, जिनका असली मकसद भारत के सामाजिक ढांचे को कमजोर करना है।
इन लोगों के लिए असली मुद्दे कभी भी – आतंकवाद, नक्सलवाद, या पाकिस्तान प्रायोजित हिंसा – नहीं होते। ये सिर्फ उन्हें मुद्दा बनाते हैं जो इनके एजेंडे में फिट बैठते हों।
राजनीति भी मौन क्यों?
कई विपक्षी दल इस मुद्दे पर खुलकर कुछ नहीं कहते, क्योंकि रोहिंग्याओं को ‘संभावित वोट बैंक’ की तरह देखा जाता है। चाहे पश्चिम बंगाल हो, केरल हो या दिल्ली — कई जगहों पर इन घुसपैठियों को सुविधाएं देने की होड़ मची हुई है।
जब सरकार इन्हें वापस भेजने की बात करती है तो इन्हीं मानवाधिकार संगठनों की आड़ में ये नेता आवाज़ उठाते हैं — ‘मानवता की रक्षा होनी चाहिए’। लेकिन क्या राष्ट्र की सुरक्षा और संविधान की गरिमा मानवता से नीचे हैं?
रोहिंग्या घुसपैठियों की रक्षा के नाम पर जो झूठ फैलाया जा रहा है, वह भारत की अखंडता के लिए खतरे की घंटी है। तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को अब यह समझ लेना चाहिए कि देश की सुरक्षा किसी भी भावनात्मक प्रचार से कहीं ऊपर है।
जो भारत को धर्मशाला बनाने का सपना देख रहे हैं, उन्हें यह स्पष्ट संदेश मिल चुका है — यह देश न्याय, सुरक्षा और संप्रभुता की नींव पर खड़ा है, न कि झूठ और हमदर्दी के खोखले प्रचार पर।