राष्ट्रविरोधी एनजीओ और लालची वकीलों का गठजोड़: भारत की न्याय व्यवस्था और सुरक्षा पर हमला

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पूनम शर्मा 

 जब एक ट्रायल कोर्ट ने खोल दी सच्चाई की परतें  – 3 जनवरी 2025 को लखनऊ की एनआईए स्पेशल कोर्ट के न्यायाधीश विवेकानंद शरण त्रिपाठी ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। उन्होंने गणतंत्र दिवस 2018 पर कासगंज में तिरंगा यात्रा के दौरान बेरहमी से मारे गए अभिषेक उर्फ चंदन गुप्ता की हत्या के मामले में 28 मुस्लिम आरोपियों को आजन्म कारावास की सजा सुनाई।

लेकिन ये फैसला सिर्फ सजा सुनाने तक सीमित नहीं रहा। जस्टिस त्रिपाठी ने एक ऐसी सच्चाई उजागर की जिसे अब तक सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट नज़रअंदाज़ करते आए हैं — और वो है राष्ट्रविरोधी एनजीओ और महंगे वकीलों का अपवित्र गठजोड़, जो भारत की सुरक्षा के लिए एक गंभीर खतरा बन चुका है।

 एनजीओ या विदेशी एजेंडे के फ्रंट?

फैसले में जस्टिस त्रिपाठी ने 7 एनजीओ/संगठनों का नाम लिया, जो अक्सर ऐसे मामलों में सक्रिय रहते हैं जहाँ आरोपी आतंकवाद, सांप्रदायिक हिंसा या देशद्रोह से जुड़े होते हैं:

  1. सिटिज़न्स फॉर जस्टिस एंड पीस, मुंबई
  2. पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज, दिल्ली
  3. रिहाई मंच
  4. अलायंस फॉर जस्टिस एंड अकाउंटेबिलिटी, न्यूयॉर्क
  5. इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल, वॉशिंगटन डीसी
  6. साउथ एशिया सॉलिडेरिटी ग्रुप, लंदन
  7. जमीयत उलेमा-ए-हिंद

इन संगठनों की भूमिका पर सवाल उठाते हुए न्यायालय ने कहा कि जब भी कोई आतंकी पकड़ा जाता है, ये एनजीओ तुरंत महंगे वकील खड़ा कर देते हैं। ये पैसे कहां से आते हैं? इनका मकसद क्या है?

न्याय या धंधा? महंगे वकीलों की नैतिकता पर सवाल

जस्टिस त्रिपाठी ने साफ कहा कि कई बड़े वकील किसी भी व्यक्ति का सिर्फ पैसे के लिए बचाव करते हैं, चाहे वह कितना भी बड़ा अपराधी क्यों न हो। उन्होंने मांग की कि:

  • सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के वकीलों की फीस सार्वजनिक की जाए।
  • वकीलों की संपत्ति और आयकर विवरण आम जनता के सामने आएं।
  • फीस केवल बैंकिंग माध्यम से ली जाए।
  • हर बड़े वकील से एफिडेविट लेकर बताया जाए कि किसने फीस दी — कहीं वो पैसा किसी आतंकी संगठन से तो नहीं आया?                                       विदेशी हाथ, देशी अदालतों में घुसपैठ

आज भारत के न्यायिक तंत्र को “लॉफेयर” यानी कानून के माध्यम से युद्ध का सामना करना पड़ रहा है। विदेशी फंडिंग से चलने वाले एनजीओ, बड़े वकीलों के ज़रिए देश के खिलाफ एजेंडा चलाते हैं। यह न्याय नहीं, राष्ट्र के खिलाफ युद्ध है।

रोहिंग्या मामला: दया के नाम पर संप्रभुता का सौदा

2017 से एडवोकेट अश्विनी उपाध्याय की याचिका लंबित है जिसमें उन्होंने बांग्लादेशी रोहिंग्या घुसपैठियों को देश से बाहर निकालने की मांग की है। लेकिन हैरानी की बात है कि दो रोहिंग्या (मोहम्मद सलीमुल्लाह और मोहम्मद शाकिर) के लिए सुप्रीम कोर्ट में देश के 6 सबसे महंगे वकील खड़े हो गए:

  • डॉ. राजीव धवन
  • प्रशांत भूषण
  • डॉ. अश्विनी कुमार
  • कॉलिन गोंसाल्वेस
  • फली नरीमन
  • कपिल सिब्बल

ये वो लोग हैं जो करोड़ों की फीस लेते हैं। क्या कोई गरीब भारतीय किसान इन्हें अफोर्ड कर सकता है? नहीं। तो फिर रोहिंग्या जैसे घुसपैठियों के लिए ये वकील क्यों लड़ते हैं?

कानून का इस्तेमाल, भारत के खिलाफ

“Places of Worship Act” के खिलाफ याचिका पर भी यही ट्रेंड दिखता है। एक के बाद एक बड़े वकील याचिकाओं को रोकने के लिए आते हैं। यहाँ तक कि धर्मांतरण रोकने की याचिका का भी विरोध कर रहे हैं 10 महंगे वकील।

इनमें कई पूर्व मंत्री, सांसद और राजनीतिक हस्तियाँ भी शामिल हैं। ये सवाल उठाता है कि कहीं भारत की न्याय व्यवस्था को किसी छुपे हुए अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र में तो नहीं घसीटा जा रहा?

 सरकार और जनता को जगाने की ज़रूरत

जस्टिस त्रिपाठी ने अपनी भूमिका निभा दी है। अब ज़िम्मेदारी है गृह मंत्रालय, बार काउंसिल ऑफ इंडिया और हम सभी राष्ट्रभक्त नागरिकों की, कि हम इस भ्रष्ट तंत्र को उजागर करें।

  • एनजीओ की फंडिंग की जाँच होनी चाहिए।
  • वकीलों की आय और संपत्ति पारदर्शी होनी चाहिए।
  • अदालतों को राष्ट्रहित में सोचने और कार्य करने की ज़रूरत है।                                                                                                                              यह सिर्फ एक मामला नहीं, यह भारत की आत्मा का सवाल है

चंदन गुप्ता की हत्या केवल एक युवा की हत्या नहीं थी — वह भारत की आत्मा पर हमला था। आज अगर हम चुप रहे, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें माफ़ नहीं करेंगी।

जस्टिस त्रिपाठी ने अलख जगा दी है। अब देश को उसे दीप बनाकर जलाना होगा .

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