पूनम शर्मा
केरल की राजनीति में शिक्षा हमेशा से एक संवेदनशील और विचारधारात्मक मुद्दा रही है। विशेष रूप से राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 को लेकर राज्य की वाम मोर्चा सरकार (LDF) ने बेहद आलोचनात्मक रुख अपनाया था। मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन और उनके शिक्षा मंत्री वी शिवनकुट्टी दोनों ने ही बीते महीनों में यह कहते हुए केंद्र पर तीखा हमला बोला था कि NEP एक “संघीय मूल्यों पर हमला” है और “बीजेपी की विचारधारा को थोपने का प्रयास” है।
लेकिन अब तस्वीर कुछ और ही कहानी कह रही है।
हाल ही में एक मीडिया को दिए गए इंटरव्यू में केरल के शिक्षा मंत्री ने स्पष्ट किया कि “NEP के कुछ हिस्से अच्छे हैं… पर अब यह बीजेपी का कार्यक्रम बन गया है, यही हमारी मुख्य समस्या है।” उन्होंने यह भी माना कि चार वर्षीय अंडरग्रेजुएट प्रोग्राम जैसी कुछ बातें NEP से पहले ही समय की मांग बन चुकी थीं।यह बदलाव अचानक क्यों?
इस बदलाव को समझने के लिए हमें दो चीजों को समझना होगा—राजनीतिक यथार्थ और संघीय संघर्ष का संतुलन।
केरल सरकार ने केंद्र सरकार पर 1,460 करोड़ रुपये की देरी से फंड जारी करने का आरोप लगाया है। ये फंड समग्र शिक्षा अभियान और PM-SHRI योजना से संबंधित हैं। केंद्र का कहना है कि जिन राज्यों ने PM-SHRI योजना को लागू नहीं किया है, उन्हें फंड नहीं मिल सकता। यही टकराव केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल के साथ खड़ा कर रहा है।
अब सवाल यह उठता है—क्या यह बदली हुई भाषा सिर्फ फंड की प्राप्ति की रणनीति है?रणनीतिक नरमी की संभावना
शिवनकुट्टी ने अपने बयान में इस बात पर ज़ोर दिया कि उन्होंने “NEP के अच्छे पहलुओं को केरल करिकुलम फ्रेमवर्क 2023” में समाहित किया है। यह बयान रूढ़िवादी विरोध से हटकर व्यवहारिक स्वीकृति की ओर इशारा करता है।
इसके पीछे तीन संभावित कारण हो सकते हैं:
- वित्तीय दबाव: केंद्र से मिलने वाले शिक्षा फंड के रुकने से राज्य सरकार को अपने संसाधनों से शिक्षकों की सैलरी, यूनिफॉर्म, और स्पेशल चाइल्ड स्कॉलरशिप जैसी जरूरतें पूरी करनी पड़ रही हैं। ऐसे में NEP पर सख्त स्टैंड बनाए रखना व्यावहारिक नहीं।
- राजनीतिक संदेश: 2026 में केरल विधानसभा चुनाव की संभावनाएं और दिल्ली की बदलती राजनीतिक हवाएं केरल सरकार को नीति पर नरमी दिखाकर मध्यमार्गी वोट बैंक को साधने की कोशिश में दिखा सकती हैं।
- संघीय मूल्यों की पुनर्परिभाषा: जहां पहले वाम सरकारें संघीय ढांचे में राज्यों के अधिकारों की बात करती थीं, अब वे यह मानने लगी हैं कि कुछ केंद्रीय नीतियों को स्वीकारना जरूरी है, अगर वो व्यावहारिक हों और जनता की जरूरतों को पूरा करें।
पर क्या यह विचारधारा में बदलाव है?
इसका उत्तर जटिल है। मंत्री ने यह साफ किया कि “हम सिर्फ विरोध के लिए विरोध नहीं कर रहे।” उन्होंने यह भी कहा कि जो बातें ठीक हैं, उन्हें अपनाया गया है। परन्तु जो बातें विचारधारा और पाठ्यक्रम की स्वतंत्रता पर हमला करती हैं, उन पर राज्य अब भी अडिग है।
यह दर्शाता है कि यह बदलाव विचारधारा की पराजय नहीं बल्कि राजनीतिक और प्रशासनिक अनुकूलन है।क्या यह अकेले केरल की कहानी है?
नहीं। तमिलनाडु, बंगाल और पंजाब जैसे राज्य भी NEP पर असहमति जता चुके हैं। लेकिन जैसे ही केंद्र से फंडिंग का दबाव बढ़ा, तमिलनाडु सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंची, और अब केरल भी कोर्ट का रुख करने जा रहा है।
इससे साफ है कि अब लड़ाई वैचारिक से ज्यादा संवैधानिक और आर्थिक अधिकारों की बन चुकी है।
केरल सरकार का बदला हुआ स्वर यह संकेत देता है कि अब शिक्षा नीति को केवल विचारधारा के चश्मे से नहीं, नीतिगत व्यवहारिकता और संघीय अधिकारों की रक्षा के संतुलन से देखा जा रहा है।
यह नरमी या रणनीति चाहे जो हो, यह साफ है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के इर्द-गिर्द राज्यों की प्रतिक्रियाएँ अब धीरे-धीरे विरोध से संवाद की ओर बढ़ रही हैं।
भारत के लोकतंत्र में यह एक सकारात्मक संकेत हो सकता है—जहाँ विरोध के साथ स्वीकार्यता का संतुलन भी ज़रूरी है।