-बलबीर पुंज
बीते कुछ दिनों से हरियाणा स्थित अशोका विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद चर्चा में है। बुधवार (21 मई) को सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें अंतरिम जमानत तो दे दी, लेकिन कर्तव्यबोध का पाठ पढ़ाते हुए जांच में राहत देने से इनकार दिया। प्रस्तावित विशेष जांच दल मामले के तह तक जाएगी। जब 22 अप्रैल को पहलगाम में जिहादियों ने 25 निर्दोष हिंदुओं को उनकी मजहबी पहचान के कारण मार दिया और भारत ने प्रतिकारस्वरूप 6-7 मई की रात पाकिस्तान स्थित आतंकी ठिकानों को तबाह कर दिया, जिसमें दोनों देश युद्ध के मुहाने तक पहुंच गए थे— तब प्रोफेसर अली 8 मई को सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हुए ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के नाम पर हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता को भड़काने के साथ भारतीय सैन्य अधिकारी कर्नल सोफिया कुरैशी की प्रेस वार्ता को “दिखावा-पाखंड” बता रहे थे। इसका शीर्ष अदालत ने भी संज्ञान लिया है। प्रोफेसर अली के समर्थक, जो खुद को ‘उदारवादी’ कहलाना ज्यादा पसंद करते है— वे दावा करते है कि प्रोफेसर की ‘अभिव्यक्ति’ के अधिकार का इस्तेमाल किया है।
आखिर अली खान महमूदाबाद की प्रोफेसर के अतिरिक्त और क्या पहचान है? वे शिक्षक से अधिक राजनीतिज्ञ थे। 2019-22 के बीच समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता रहे। प्रो.अली एक ऐसे खानदान से ताल्लुक रखते है, जिसने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (ए.एम.यू.) के निर्माण और इस्लाम के नाम पर भारत के खूनी तकसीम में अग्रणी भूमिका निभाई। उनका परिवार आजादी से पहले देश के बड़े जमींदारों में से एक था। अर्थात्— उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि पाकिस्तानपरस्त होने के साथ सामंतवादी रही है। जहां प्रो.अली के दादा राजा मोहम्मद अमीर अहमद खान पाकिस्तान आंदोलन के समर्थक, मुस्लिम लीग के प्रमुख सदस्य और उसके बड़े वित्तपोषक थे, वही उनके परदादा मोहम्मद अली मोहम्मद खान ए.एम.यू. के पहले कुलपति बने। भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम अलगाववाद (हिंसा सहित) के अगुवा रहे इस महमूदाबाद परिवार ने विभाजन के बाद खंडित भारत और पाकिस्तान— दोनों में अपनी टांग फंसाए रखी। क्या कोई भी व्यक्ति या परिवार एक ही समय भारत और पाकिस्तान के प्रति वफादार रह सकता है? जहां भारत में बसे महमूदाबाद परिवार ने कांग्रेस से जुड़कर सेकुलरवाद का नकाब ओढ़ लिया, जिसमें प्रो. अली के पिता दो बार कांग्रेस के विधायक भी बने, वही इसी वंश का पाकिस्तान निर्माण में योगदान का सम्मान करते हुए पाकिस्तानी हुक्मरानों ने 1990 में डाक टिकट जारी करते हुए कराची में एक क्षेत्र का नाम महमूदाबाद रख दिया। अर्थात्— चित भी मेरी, पट भी मेरी।
एएमयू के संस्थापक सर सैयद अहमद खान ब्रितानी समर्थक होने के साथ ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ के जनक और मुस्लिम अलगाव के पुरोधा थे। उन्होंने 1888 में मेरठ में कहा था कि हिंदू और मुस्लिम स्वतंत्र भारत में बराबर अधिकारों के साथ नहीं रह सकते। वे चाहते थे कि मुसलमान अंग्रेजों को समर्थन दें, ताकि सत्ता कभी हिंदुओं के हाथों में न जाए। इसी सोच के तहत उन्होंने 1875-77 में अलीगढ़ में मुस्लिम-एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज (एम.ए.ओ.) की स्थापना की, जो उनके निधन के 22 साल बाद एएमयू बन गया। इसी प्रक्रिया को पूरा करने में प्रो.अली खान महमूदाबाद के परदादा मोहम्मद अली मोहम्मद खान (1879–1932) ने निर्णायक भूमिका निभाई। वे एएमयू के पहले कुलपति से पहले 1906 में एमएओ के संरक्षक और 1911 में प्रस्तावित एएमयू की संविधान समिति के अध्यक्ष भी थे। इस विश्वविद्यालय की पाकिस्तान आंदोलन में क्या भूमिका रही है, यह ऐतिहासिक रूप से दर्ज है।
वर्ष 1930-33 में पाकिस्तान का खाका खींचने के बाद एएमयू, मुस्लिम लीग का अनौपचारिक राजनीतिक-वैचारिक प्रतिष्ठान बन गया। एएमयू छात्रसंघ ने कांग्रेस को फासीवादी बताते हुए 1941 में मजहब आधारित विभाजन का प्रस्ताव पारित किया। इससे गदगद मोहम्मद अली जिन्नाह ने 1941 में एएमयू को “पाकिस्तानी आयुधशाला”, तो लियाकत अली खान (पाकिस्तान के प्रथम प्रधानमंत्री) ने एएमयू छात्रों को पाकिस्तान के लिए उपयोगी “गोला-बारूद” बताया था। जो मुस्लिम नेता (मौलाना आज़ाद और प्रो.हुमायूं कबीर आदि) तब विभाजन का विरोध कर रहे थे, उनपर एएमयू छात्रों ने इस्लाम का शत्रु मानते हुए हमला भी किया। आजादी के बाद भी एएमयू के चिंतन में कोई परिवर्तन नहीं आया।
जब अक्टूबर 1947 में पाकिस्तानी सेना ने कश्मीर पर हमला किया, तब एक दिन पहले तक एएमयू छात्र पाकिस्तानी सेना में भर्ती हो रहे थे। मई 1953 को विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति जाकिर हुसैन ने नेहरू सरकार को पाकिस्तानियों के एएमयू में दाखिला लेने की जानकारी दी। अगस्त 1956 में एएमयू छात्रों ने ‘हिंदुस्तान मुर्दाबाद’ और ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगाए थे। जब वर्ष 1965 में नवाब अली यावर जंग को एएमयू के कुलपति नियुक्त किए गए, तब छात्रों ने उनपर घातक हमला कर दिया, जिसमें उन्हें 65 जगह चोट लगीं। एएमयू में इस प्रकार के कुकर्मों का एक लंबा काला इतिहास है।
वर्ष 1940 में जब मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की आधिकारिक मांग करते हुए लाहौर प्रस्ताव पास किया, तब प्रो.अली के दादा और जिन्नाह के बेहद करीबी मोहम्मद आमिर अहमद खान ने इसके सबसे बड़े समर्थक रहे। 1947 तक राजा अहमद खान इराक के कर्बला चले गए। जब उन्होंने 1957 में पाकिस्तान की नागरिकता ली, तब उनका परिवार (प्रो.अली के पिता सुलेमान सहित) लखनऊ लौट आया। लंदन में बसने से पहले राजा अहमद खान ने अपनी सारी संपत्ति पाकिस्तान को सौंप दी। 1973 में उनका निधन लंदन में हुआ, लेकिन उन्हें ईरान में दफनाया गया। अर्थात्— उन्होंने अपनी जन्मभूमि हिंदुस्तान को इस लायक भी समझा कि मरने के बाद उनके शरीर को भारत की मिट्टी में सुपुर्द-ए-खाक किया जाए।
प्रो. अली के पिता ने 1974 से भारत में अपनी पुश्तैनी जायदाद को ‘शत्रु संपत्ति’ मानने का विरोध शुरू कर दिया। शीर्ष अदालत ने 2005 में उनके हक में फैसला दिया। तब केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस नीत संप्रग सरकार ने अध्यादेश लाकर इस निर्णय को पलट दिया, जो थोड़े ही समय तक सक्रिय रहा। परंतु 2017 में मोदी सरकार ने ‘शत्रु संपत्ति कानून’ संशोधित करके स्पष्ट कर दिया शत्रु संपत्ति किसी भी वारिस को नहीं मिलेगी, भले ही वे भारतीय नागरिक क्यों न हों।
इस पृष्ठभूमि में प्रो. अली खान महमूदाबाद का मामला सिर्फ ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ तक सीमित नहीं रह जाता। इसलिए उनके हालिया विचारों के पीछे के इतिहास को भी समझना जरूरी है। स्तंभकार ‘ट्रिस्ट विद अयोध्या: डिकॉलोनाइजेशन ऑफ इंडिया’ और ‘नैरेटिव का मायाजाल’ पुस्तक के लेखक है।
संपर्क:- punjbalbir@gmail.com