समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,16 मई । मध्य प्रदेश के डिप्टी सीएम जगदीश देवड़ा ने एक ऐसा बयान दे डाला, जिसने राजनीति, सेना और लोकतंत्र — तीनों के बीच की सीमाएं धुंधली कर दीं। एक सार्वजनिक मंच से उन्होंने कहा:
समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,16 मई । मध्य प्रदेश के डिप्टी सीएम जगदीश देवड़ा ने एक ऐसा बयान दे डाला, जिसने राजनीति, सेना और लोकतंत्र — तीनों के बीच की सीमाएं धुंधली कर दीं। एक सार्वजनिक मंच से उन्होंने कहा:
“पूरा देश, सेना और सैनिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चरणों में नतमस्तक हैं।”
बस फिर क्या था — इस बयान ने राजनीतिक गलियारों में भूचाल ला दिया, विपक्ष ने इसे “लोकतंत्र की परिभाषा को रौंदने वाला बयान” बताया, तो कई सैन्य विशेषज्ञों ने भी इसे संविधान के खिलाफ़ और अपमानजनक करार दिया।
देश की सेना की पहचान हमेशा “राजनीति से परे, राष्ट्र के प्रति समर्पित” संस्था के रूप में रही है। लेकिन जब एक संवैधानिक पद पर बैठे नेता यह कहें कि “सैनिक भी किसी राजनेता के चरणों में नतमस्तक हैं,” तो सवाल उठना लाज़मी है:
क्या यह बयान सेना की स्वायत्तता पर सवाल नहीं है?
क्या यह प्रधानमंत्री की छवि को “ईश्वरीय महिमामंडन” देने की कोशिश नहीं?
और सबसे अहम — क्या ये लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत नहीं है?
कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने ट्वीट किया:
“सेना देश की है, किसी व्यक्ति की नहीं। यह बयान भारतीय लोकतंत्र के चेहरे पर एक तमाचा है।”
वहीं समाजवादी पार्टी के नेता ने कहा:
“देश का संविधान सर्वोपरि है, न कि किसी नेता की चरण वंदना।”
सोशल मीडिया पर लोगों ने इस बयान की तीखी आलोचना की। कुछ प्रतिक्रियाएं:
“ये लोकतंत्र है या दरबारी युग?”
“हमारे जवान सरहद पर जान देने जाते हैं, चरणों में गिरने नहीं।”
“राजनेता भूल न करें, सेना संविधान के प्रति नतमस्तक है, किसी इंसान के नहीं।”
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि ऐसे बयान सत्ता के चरम पर पहुंची मानसिकता को दर्शाते हैं, जहां राष्ट्र और संस्थाओं को भी एक नेता की छाया में समेटने की कोशिश की जाती है।
डिप्टी सीएम का यह बयान भले ही राजनीतिक चाटुकारिता हो, लेकिन इसके असर गहरे हैं। अगर देश की सेना, जो कि पूरी तरह राजनीति-निरपेक्ष और संविधाननिष्ठ संस्था है, उसे किसी नेता के चरणों में नतमस्तक बताया जाता है, तो यह न केवल संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन है, बल्कि यह जनता की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश भी है।
लोकतंत्र में नेता आते-जाते हैं — लेकिन देश और उसकी संस्थाएं स्थायी होती हैं। उन्हें किसी के चरणों में गिराने की सोच, खुद लोकतंत्र को गिराने के बराबर है।