समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,12 अप्रैल। ओमान की राजधानी मस्कट में शनिवार (12 अप्रैल, 2025) होने वाली जो वार्ता है, वह अमेरिका और ईरान के बीच की बस एक बैठक नहीं है — यह परमाणु विवाद की एक अहम और निर्णायक कड़ी बन सकती है, जिसकी शुरुआत दो दशकों से अधिक पूर्व में हुई थी। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने कहा है कि “ईरान को परमाणु हथियार नहीं बनाने दिया जाएगा”, ठीक उसी तरह ईरान की तरफ से भी ऐसे संकेत दिए गए हैं कि वे “वास्तविक और निष्पक्ष समझौते”पर सहमत हैं। ऐसे में, यह वार्ता केवल परमाणु कार्यक्रम की नहीं बल्कि पश्चिम एशिया की व्यापक स्थिरता की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण पहल है।
7 अप्रैल को ट्रंप ने अचानक यह घोषणा की कि अमेरिका और ईरान के बीच प्रत्यक्ष वार्ता शुरू होने जा रही है। यह घोषणा खुद में चौंकाने वाली थी, क्योंकि अब तक ईरान ने हमेशा ऐसी बातचीत को मध्यस्थों के माध्यम से करने पर जोर दिया है। लेकिन इस बार अमेरिकी विशेष दूत स्टीव विटकॉफ़ और ईरानी विदेश मंत्री अब्बास अराक़ची के बीच एक ही कमरे में प्रत्यक्ष बातचीत की बात की जा रही है — हालांकि ईरान अभी भी इसे अप्रत्यक्ष बातचीत मान रहा है जिसमें ओमान की मध्यस्थता होगी।
अयातुल्ला अली ख़ामेनेई के सलाहकार अली शमखानी ने ईरान को स्पष्ट किया है कि ईरान “केवल दिखावटी बातचीत” नहीं, बल्कि “महत्वपूर्ण और लागू किए जा सकने वाले प्रस्तावों” के साथ वार्ता करने जा रहा है। उन्होंने यह भी कहा कि यदि अमेरिका सद्भावना दिखाता है, तो रास्ता आसान हो सकता है।
ईरान का रुख भी काफी सावधानी है। उसे अमेरिका पर भरोसा करने में हिचकिचाहट है, खासतौर पर जब ट्रंप लगातार यह धमकी दे रहे हैं कि यदि ईरान परमाणु कार्यक्रम नहीं रोकता, तो “भारी परिणाम” भुगतने होंगे। यह बयानबाज़ी तो साफ़-साफ़ यह संकेत देती है कि यदि वार्ता असफल हुई, तो सैन्य कार्रवाई संभव होगी।
अमेरिका की ओर से बयानबाज़ी बेहद आक्रामक रही है। व्हाइट हाउस की प्रेस सचिव कैरोलिन लेविट ने साफ़ शब्दों में कहा है, “यदि ईरान ने परमाणु हथियार बनाए तो उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।” ट्रंप की रणनीति पुराने रिपब्लिकन रवैये पर आधारित है — अधिकतम दबाव, धमकी और फिर वार्ता। लेकिन इस बार कुछ बदलाव यह दिखा रहे हैं कि ट्रंप कूटनीतिक समाधान के लिए भी दरवाज़ा खुला छोड़ना चाहते हैं।
यह बातचीत ऐसे समय हो रही है जब पश्चिम एशिया में हालात पहले से बेहद तनावपूर्ण हैं। 2023 से अब तक ग़ाज़ा और लेबनान में युद्ध, ईरान-इज़राइल के बीच मिसाइल हमले, रेड सी में हूथी विद्रोहियों द्वारा व्यापारिक जहाजों पर हमले और सीरिया की सरकार का पतन — ये सब इस क्षेत्र को ज्वालामुखी की कगार पर ले आए हैं। ऐसे में यदि अमेरिका-ईरान वार्ता से कोई सकारात्मक परिणाम आता है, तो यह पूरे क्षेत्र के लिए राहत की बात होगी।
अब सवाल यह उठता है — क्या वास्तव में यह वार्ता किसी ठोस समझौते की ओर बढ़ेगी, या फिर यह सिर्फ कूटनीतिक दिखावा है?
एक संभावना यह है कि ट्रंप इस वार्ता को 2026 के चुनावों से पहले एक कूटनीतिक सफलता के रूप में पेश करना चाहते हैं। यदि कोई संक्षिप्त या अस्थायी समझौता होता है, जिसमें ईरान कुछ समय के लिए अपने यूरेनियम संवर्धन को सीमित करता है और बदले में कुछ प्रतिबंधों में ढील मिलती है, तो ट्रंप इसे घरेलू जीत के तौर पर प्रचारित कर सकते हैं।
दूसरी तरफ, यह भी संभव है कि वार्ता विफल हो जाए — खासकर अगर दोनों पक्ष अपने प्रारम्भिक मांगों से पीछे नहीं हटते। ट्रंप का यह कहना कि “सभी विकल्प मेज़ पर हैं”, यह इशारा देता है कि अमेरिका सैन्य कार्रवाई के लिए भी तैयार है। अगर वार्ता टूटती है, तो इज़राइल की सक्रिय भूमिका और अमेरिका का सीधा हस्तक्षेप पूरे क्षेत्र को युद्ध में झोंक सकता है।
यह ओमान में होने वाली वार्ता विश्व राजनीति का एक महत्वपूर्ण पल है। एक ओर जहाँ ईरान कूटनीति को एक “वास्तविक मौका” के लिए तैयार दिख रहा है, वहीं अमेरिका दबाव और धमकी की रणनीति के साथ वार्ता की मेज़ पर बैठा है।
यह वार्ता चाहे सफलता लाए या विफल हो — इसका असर सिर्फ ईरान या अमेरिका तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि यह पूरे पश्चिम एशिया और वैश्विक स्थिरता की दिशा तय करेगा। अगला कदम बेहद नाज़ुक है — और सारी दुनिया की निगाहें मस्कट पर टिकी हैं।