कोर्टरूम से ड्रॉइंग रूम तक: न्यायपालिका में भाई-भतीजावाद की हकीकत”

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समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली,7 अप्रैल।
भारत की न्यायपालिका, जो अब तक संविधान और न्याय के अंतिम रक्षक के रूप में देखा जाता रहा है, अब अपने फैसलों से भी अधिक इस बात के लिए जांच के घेरे में है कि ये फैसले देने वाले जज कौन हैं और वे किन पारिवारिक पृष्ठभूमियों से आते हैं। मार्च 2025 तक 25 उच्च न्यायालयों वाले भारत के कुल 687 स्थायी न्यायाधीशों में कम से कम 102 जज ऐसे हैं जो वर्तमान या पूर्व न्यायाधीशों के निकट संबंधी हैं। इसके अतिरिक्त 117 जज ऐसे हैं जो दूसरी या तीसरी पीढ़ी के वकील हैं, जिन्होंने कानून के पेशे से जुड़े अपने पिता, दादा या अन्य निकटवर्ती रिश्तेदार की मदद से अभ्यास शुरू किया है। कुल मिलाकर, यह आंकड़ा 32 प्रतिशत से भी अधिक हो जाता है — यानी हर तीन में से एक उच्च न्यायालय का जज किसी न किसी तरह से न्यायिक वंश या कानूनी पृष्ठभूमि से आता है। यह आंकड़े चौंकाने वाले हैं और संभव है कि वास्तविकता इससे कहीं अधिक गहराई लिए हो, क्योंकि बहुत से पारिवारिक संबंध सार्वजनिक रूप से ज्ञात नहीं होते।

इस स्थिति की तुलना अक्सर अन्य पेशों की जैसे डॉक्टर, अभिनेता, नौकरशाह या राजनेताओं से की जाती है, जहां पारिवारिक विरासत आम बात मानी जाती है। परंतु न्यायपालिका का दायित्व अलग है — यह निष्पक्षता, न्याय और समानता का प्रतीक मानी जाती है। जब यहां भी नियुक्तियाँ पारिवारिक पृष्ठभूमि पर होने लगती हैं, तो यह संस्थान की नैतिकता और न्याय की प्रक्रिया पर प्रश्नचिह्न लगा देती है। अगर कोई न्यायाधीश अपने परिवार के कारण ऊंचे पदों पर पहुँचता है, ना कि योग्यता के बल पर, तो यह न्यायपालिका की विश्वसनीयता को कमजोर करता है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश संजीब बनर्जी ने खुद स्वीकार किया है कि जब वे कोलेजियम का हिस्सा थे, तब उन्होंने कई ऐसे नामों का विरोध किया जो न्यायाधीश बनने के लिए पर्याप्त रूप से सक्षम नहीं थे। परंतु उनके हटते ही वही नाम मंजूरी पा गए। इससे साफ होता है कि न्यायिक नियुक्तियों में पारदर्शिता का अभाव है और यह प्रणाली बंद दरवाजों के पीछे काम करती है।

कानून आयोग की 230वीं रिपोर्ट में “अंकल जज” शब्द का प्रयोग इसी प्रवृत्ति को दिखाने के लिए किया गया भारतीय न्यायपालिका में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जहाँ एक ही परिवार की कई पीढ़ियाँ न्यायाधीश के रूप में सेवा दे चुकी हैं। मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति विशाल मिश्रा सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश अरुण मिश्रा के भाई हैं और इनके पिता हरगोविंद मिश्रा भी मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायाधीश रह चुके हैं।

इसी तरह, गुजरात उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति मौना एम. भट्ट के परिवार में उनके पति, बेटे, देवर, बहन और बहू सभी कानून के पेशे से जुड़े हुए हैं। उनके पति और भाई वकील हैं, दो बेटे भी वकील हैं — एक सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करता है और दूसरा हाई कोर्ट में। उनके देवर और उनकी पत्नी भी वकील हैं, और परिवार के अन्य सदस्य भी इसी पेशे से जुड़े हैं।

केरल उच्च न्यायालय में 48 प्रतिशत और पंजाब-हरियाणा उच्च न्यायालय में 39 प्रतिशत वर्तमान न्यायाधीश ऐसी पारिवारिक पृष्ठभूमियों से आते हैं, जहाँ पहले से कोई न कोई सदस्य न्यायपालिका या वकालत से जुड़ा रहा है। यह प्रवृत्ति इलाहाबाद, दिल्ली, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे उच्च न्यायालयों में भी साफ तौर पर देखी जा सकती है, जहाँ कई न्यायाधीशों के परिजन उसी अदालत में वकालत करते हैं या कानून की पढ़ाई कर रहे हैं।

यह पैटर्न दर्शाता है कि भारतीय न्यायपालिका में पारिवारिक और पेशेवर वंशानुगतता एक सामान्य परंपरा बनती जा रही है।

जहां जज के रिश्तेदार उसी कोर्ट में वकालत करते हैं इससे पक्षपात की संभावना बढ़ जाती है, जो न्याय की मूल भावना के विरुद्ध है। रिपोर्ट ने सिफारिश की थी कि ऐसे जजों को उस कोर्ट में न रखा जाए जहाँ उनके रिश्तेदार वकालत कर रहे हों, लेकिन यह सिफारिश अभी तक पूरी तरह लागू नहीं हो सकी है।

कोलेजियम प्रणाली भी यह समस्या का एक जड़ है, जहाँ जज अन्य जजों की नियुक्ति करते हैं। इसमें पूरी तरह गोपनीयता यह प्रक्रिया अपनाती है, जिसमें आलोचना बरसों की हुई है। वरिष्ठ कूटनीतिज्ञ व अभिषेक मनु सिंघवी ने इस पर कटाक्ष करते हुए कहा था कि यह प्रणाली “म्यूचुअल बैक स्क्रैचिंग” और भाई-भतीजावाद को देती है, जिसके कारण अन्य वकीलों का आत्मविश्वास डसता है। उन्होंने न्यायिक नियुक्ति में खानदान प्रभाव को की तरफ हुए अभियान की प्रशंसा की, लेकिन यह भी मानना पड़ा कि इसमें ढीला दिखाने के काम कैसे करना।

जस्टिस बनर्जी का आग्रह है कि एक अलग व्यवस्था पर न्यायिक प्रशासन का गठन करें, ताकि न्यायाधीश अपने जज काम पर ध्यान केंद्रित कर सके। वे सुझाव रखते हैं कि एक न्यायिक ऑडिट समिति की स्थापना की जाए जो जजों के संपत्ति की और भी वित्तीय हरकत की निगरानी करे। नामों की सूची जिससे कोलेजियम उनकी सरकार को मँगवता है उस पर सूची देनी होगी भले पूरी सहित, उसके बजाए कुछ नहीं चुन कर बात को थमा देना नहीं चाहिए।

आज जबकि न्यायपालिका की निष्पक्षता और पारदर्शिता पर सवाल उठ रहे हैं, तब योग्यता, ईमानदारी और निष्पक्ष मूल्यांकन को न्यायिक नियुक्तियों में प्राथमिकता देना आवश्यक हो गया है। यह अनिवार्य है कि नियुक्ति वंश, जाति, या पारिवारिक नाम के हिसाब से नहीं हो, बल्कि प्रतिभा और न्यायप्रियता के हिसाब से हो। वरिष्ठ अधिवक्ता महालक्ष्मी पावनी कहती हैं कि वंशानुगत होना अपराध नहीं है, लेकिन पारदर्शिता और जवाबदेही बहुत आवश्यक है। न्यायपालिका को यह साबित करना होगा कि न्याय सचमुच अंधा है — संबंधों को नहीं, बल्कि योग्यता को देखता है।

अगर न्यायपालिका इसी तरह कुछ परिवारों तक सिमट कर रह जाएगी, तो यह लोकतंत्र के लिए खतरा बन सकती है। न्याय को वंश परंपरा नहीं, बल्कि संवैधानिक मूल्यों पर आधारित होना चाहिए।

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