हरिओम विश्वकर्मा।
अहंकार का पुतला मनुष्य प्रभु की इच्छा को उनकी आज्ञा को स्वीकार नहीं करता और अपने ही निर्बल कन्धों पर अपना बोझ उठाये फिरता है। इतना ही नहीं दुनिया का भार उठाने का दम भरता है। यही कारण है कि निराशा, चिन्ताएँ, दु:ख, रोग, असफलतायें उसे घेरे हुए हैं और रात दिन व्याकुल सा सिर धुनता हुआ मनुष्य अत्यन्त परेशान सा दिखाई देता है।
अहंकार वश प्रभु की इच्छा के विपरीत चलकर कभी सुख शान्ति मिल सकती है ?
नहीं कदापि नहीं। हमें अपने हृदय मन्दिर में से अहंकार, वासना, राग-द्वेष को निकालकर रिक्त करना होगा और ईश्वरेच्छा को सहज रुप में काम करने देना होगा तभी जीवन यात्रा सफल हो सकेगी।
ईश्वर का नाम लेकर उसकी इच्छा को जीवन में परिणित होने देकर जो संसार के रणांगत में उतरते हैं उन्हें अर्जुन की तरह निराशा का,असफलता का सामना नहीं करना पड़ता। ईश्वरेच्छा को जीवन संचालन का केन्द्र बनाने वाले की हर साँस से यही आवाज निकलती रहती है, हे ईश्वर तेरी इच्छापूर्ण हो।ईश्वर तेरी ईच्छा पूर्ण हो।जीवन का यही मूलमंत्र है।महापुरुषों के जीवन इसके साक्षी हैं।
जिसकी जीवन डोर प्रभु के हाथों में हो भला उसे क्या भय !भय तो उसी को होगा जो अपने कमजोर हाथ पाँव अथवा संसार की शक्तियों पर भरोसा करके चलेगा।जो प्रभु का आँचल पकड़ लेता है वह निर्भय हो जाता है, उसके सम्पूर्ण जीवन में प्रभु का प्रकाश भर जाता है।तब उसके जीवन व्यापार का प्रत्येक पहलू प्रभु प्रेरित होता है, उसका चरित्र दिव्य गुणों से सम्पन्न हो जाता है, वह स्वयं परम पिता का युवराज हो जाता है..!!
🙏🏾🙏🏼🙏जय जय श्री राधे🙏🏻🙏🏿🙏🏽