अरुण कुमार उपाध्याय।
यह तिथि स्वास्थ्यरक्षण की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी गई है तथा इसे धन्वन्तरि अवतार से सम्बद्ध बताया गया है।
एक वनस्पति जिसे अपामार्ग , चिरचिटा, लटजीरा, चिचड़ी आदि नामों से जानते हैं , इसका प्रयोग करने हेतु निर्देश प्राप्त होता है। धनतेरस के दिन इसे विधिपूर्वक प्राप्त करना चाहिये।
वैद्यकशास्त्र के अनुसार इसका प्रयोग करना चाहिए।
वीको का ‘वज्रदन्ती’ इसी ओषधि के नाम पर है।
अपामार्गं बुधाय – बुध हेतु अपामार्ग की समिधा लेनी चाहिए।
श्वेत अपामार्ग का ही उपयोग करना चाहिए।
अथापामार्गत्रयोदश्यां श्वेते मुहूर्ते स्नानं कृत्वापामार्गं त्रिः परिभ्रामयेद्राज्ञ उपरि मन्त्रेण ॥
ईशानां त्वा भेषजानामिति त्रिभिः सूक्तैः प्रतीचीनफल इति सूक्तेन वा पुनः स्नानम् ॥
{पैप्पलादसंहिता के मन्त्र}
तत आरात्रिकं परिधत्तेति द्वाभ्यामिति समानम् ॥
{शिव के लिए ईशान में , यम के लिए दक्षिण में दीप प्रज्ज्वलित करना , आरती करना}
आगे के दिवसों में –
अथ दीपोत्सवं प्रतिपदि हस्त्यश्वादिक्दीक्षासमानम् ॥
हाँ एक और विशेष बात है- कार्त्तिक्यां बहुलस्य त्रयोदशीम् विद्यात्तु स्वातिसंपातम् ॥
पुराकाल में कार्त्तिकमास की त्रयोदशी तिथि में अपांनपात् स्वाति नक्षत्र में संपात होता था।
अपामार्ग अर्थात् जलमार्ग , दक्षिणगोल अथवा दक्षिणायन में से किसकी बात है यह आप विचार लें ।
ऊर्ज्जकृष्णत्रयोदश्यामेकभक्तः समाहितः ।।
प्रदोषे तैलदीपं तु प्रज्वाल्याभ्यर्च्य यत्नतः ।। १२२-४६ ।
श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पूर्वभागे बृहदुपाख्याने द्वादशमासस्थितत्रयोदशीव्रतकथनं नाम द्वाविंशदधिकशततमोऽध्यायः ।। १२२ ।।
कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी (धनतेरस) को यम तथा शिव के निमित्त तैल का दीपदान करना चाहिये .
✍🏻अत्रि विक्रमार्क अन्तर्वेदी
धन्वन्तरि तथा सुश्रुत परम्परा-
(१) समुद्र मन्थन (१६,००० ई.पू) में देवासुर संगाम के अवसर पर प्रथम धन्वन्तरि हुए। उनकी जयन्ती धन-त्रयोदशी या धनतेरस को मनायी जाती है (कार्त्तिक कृष्ण त्रयोदशी)। उनका मनुष्य रूप में जन्म काशी राजा दिवोदास रूप में हुआ। ब्रह्माण्ड पुराण, अध्याय (२/३/६७)-
धन्वन्तरेः सम्भवोऽयं श्रूयतामिह वै द्विजाः। स सम्भूतः समुद्रान्ते मथ्यमानेऽमृते पुरा।॥१०॥
उत्पन्नः कलशात् पूर्वं सर्वश्च श्रियता वृतः॥११॥ अब्जस्त्वमिति होवाच तस्मादब्जस्तु स स्मृतः॥१२॥
एतेनैव शरीरेण देवत्वं प्राप्स्यसि प्रभो॥१७॥ अथवा त्वं पुनश्चैव ह्यायुर्वेदं विधास्यसि॥१८॥
द्वितीये द्वापरे प्राप्ते सौनहोत्रः स काशिराट्॥२०॥ तस्य गेहे समुत्पन्नो देवो धन्वन्तरिस्तदा॥२३॥
आयुर्वेदं भरद्वाजात् प्राप्येह स भिषक्क्रियम्। तमष्टधा पुनर्व्यस्य शिष्येभ्यः प्रत्यपादयत्॥२४॥
यही वायु पुराण (९२/९-२२), हरिवंश पुराण (१/२९/२-२७) में भी है।
चरक संहिता के अनुसार भरद्वाज ने इन्द्र से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया और ऋषियों को पढ़ाया।
स वक्ष्यति शमोपायं यथावद् इन्द्रप्रभुः । कः सहस्राक्ष भवनं गच्छेत् प्रष्टुं शचीपतिम् ॥१८॥
अहमर्थे नियुज्येयं अत्रेति प्रथमं वचः। भरद्वाजोऽब्रवीत् तस्माद् ऋषिभिः स नियोजितः ॥१९॥
स शक्र भवनं गत्वा सुरर्षिगण मध्यगम् । ददर्श बलहन्तारं दीप्यमानमिवानलम् ॥२०॥
(चरक संहिता, सूत्रस्थान, अध्याय, १).
(२) द्वितीय द्वापर में धन्वन्तरि काशिराज सौनहोत्र के पुत्र रूप में हुए। सुश्रुत संहिता, अध्याय १-
अथातो वेदोत्पत्तिमध्यायं व्याख्यास्यामः॥१॥ यथोवाच भगवान् धन्वन्तरिः॥२॥
अथ खलु भगवन्तममरवरं ऋषिगण परिवृतमाश्रमस्थं काशिराजं दिवोदासं धन्वन्तरिं औपधेनव-वैतरणौरभ्रपौष्कलावत-करवीर्य (र) गोपुर रक्षित सुश्रुत प्रभृतय ऊचुः॥३॥
एवमयमायुर्वेदोऽष्टाङ्ग उपदिष्यते, अत्र कस्मै किमुच्चतामिति॥९॥
त ऊचुः-अस्माकं सर्वेषामेव शल्यज्ञानं मूलं कृत्वोपदिशतु भगवानिति॥१०॥
त ऊचुर्भूयोऽपि भगवन्तम्-अस्माकमेककमतीनां मतमभिसमीक्ष्य सुश्रुतो भगवन्त प्रक्ष्यति, अस्मै चोपदिश्यमानं वयमप्युपधारयिष्यामः ॥१२॥
यहां द्वितीय द्वापर कब से गिना गया यह स्पष्ट नहीं है। वर्णनों के अनुसार यह इक्ष्वाकु (८५७६ ई.पू) के बाद सूर्य तथा चन्द्र वंशों के वर्णन के आरम्भ में है। अतः उसके बाद के त्रेता हैं-१३वें व्यास धर्म या नर-नारायण (८५००-८१४० ई.पू), १४वें व्यास सुचक्षण (८१४०-७७८० ई.पू.)। वैवस्वत मनु के बाद कलि आरम्भ तक सत्य, त्रेता, द्वापर के १०,८०० वर्षों में ३६० वर्षों के ३० युग हुए थे जिनको विभिन्न पुराणों में कभी द्वापर, कभी त्रेता कहा गया है (कूर्म पुराण, ५३/९-१४ में कलि भी)। इनमें २ युगों में जल प्रलय था (११,००० ई.पू. के बाद)। अतः २८ युग गिनते हैं। दिवोदास के पुत्र सुदास के समय दाशराज युद्ध हुआ था जिसमें भरद्वाज दोनों तरफ के आचार्य थे। जेन्द अवेस्ता परम्पराके अनुसार जल प्रलय ९८४४ ई.पू. के २५९८ वर्ष बाद विस्ताश्प (ऋग्वेद, १/१२२/१३ का इष्टाश्व?, इक्ष्वाकु की ५ पीढ़ी बाद विष्टराश्व)। अतः प्रायः ७५०० ई.पू. या उससे पहले दिवोदास हुए। (Malcom-History of Ancient Persia, Hodivala-Studies in Parsi History)
कलियुग के धन्वन्तरि-(१) ब्रह्मवैवर्त पुराण (२/४/१०८) के अनुसार जब तक्षक परीक्षित को मारने जा रहा थ तो एक धन्वन्तरि को विष दूर करने के लिए बुलाया गया था। परीक्षित का अभिषेक ३१०२ ई.पू. में हुआ तथा ६० वर्ष शासन के बाद ३०४२ ईपू में मृत्यु हुई जो इस धन्वन्तरि का समय था।
सप्ताहे समतीते तु गच्छन्तं तक्षकं पथि।
धन्वन्तरिर्मोचयितुमपश्यद् गन्तुको नृपम्॥१०६॥ ब्रह्म वैवर्त पुराण (अध्याय २/४६)
(२) भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ३, अध्याय ९, २०, २१ के अनुसार समुद्र मन्थन से उत्पन्न धन्वन्तरि का जन्म कल्प ब्राह्मण के पुत्र रूप में हुआ जिन्होंने अपने क्षत्रिय शिष्य सुश्रुत को आयुर्वेद पढ़ाया।
तदा प्रसन्नो भगवान् (सूर्य) देवानाह शुभं वचः। अहं काश्यां भवाम्यद्य नाम्ना धन्वन्तरिः स्वयम्॥१७॥ कल्पदत्तस्य विप्रस्य पुत्रो भूत्वा महीतले॥१९॥
सुश्रुतं राजपुत्रं च विप्रवृद्ध समन्वितम्। शिष्यं कृत्वा प्रसन्नात्मा कल्पवेदमचीकरत्॥ २०॥
सुश्रुतः कल्पवेदं तं धन्वन्तरि विनिर्मितम्।पठित्वा च शताध्यायं सौश्रुतं तन्त्रमाकरोत्॥२३॥
(भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ३, अध्याय ९)
(३) उसके बाद कलि की २३वीं सदी (९०२ ई.पू. से आरम्भ) में एक धन्वन्तरि हुए जिन्होंने आयुर्वेद का पुनरुद्धार किया। उनके शिष्य एक अन्य सुश्रुत थे। उस सुश्रुत के शिष्य भी अन्य धन्वन्तरि थे।
त्रिविंशाब्दे (कलि २२०० = ईसापूर्व ९०२) च यज्ञांशेतत्र वासमकारयत्।३४।
धन्वन्तरिर्द्विजो नाम ब्रह्मभक्ति परायणः।३६।
इति धन्वन्तरिः श्रुत्वा शिष्यो भूत्वा च तद्गुरोः। सुश्रुतादपरे चापि शिष्या धन्वन्तरेः स्मृताः॥४५॥
(भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ३, अध्याय २०)
(४) कलि की २७वीं सदी (५०२ ईपू से आरम्भ) में शाक्यसिंह गौतम (सिद्धार्थ बुद्ध के १३०० वर्ष बाद) ने वैदिक धर्म को नष्ट करने के लिए कई स्थानों पर यन्त्र स्थापित किए (तान्त्रिक अभिचार)। उस समय के धन्वन्तरि ने उन यन्त्रों को हटाया तथा पुनः शल्य चिकित्सा आरम्भ की। बौद्ध लोग यज्ञ हिंसा के विरोध के साथ शल्य चिकित्सा को भी हिंसा मान कर उसका विरोध करते थे। मठों में दैनिक मांस भोजन को हिंसा में नहीं गिना जाता था।
(भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ३, अध्याय २१-सप्तविंशच्छते भूमौ कलौ सम्वत्सरे गते॥२१॥ शाक्यसिंह गुरुर्गेयो बहु माया प्रवर्तकः॥३॥ स नाम्ना गौतमाचार्यो दैत्य पक्षविवर्धकः। सर्वतीर्थेषु तेनैव यन्त्राणि स्थापितानि वै॥ ३१॥
धन्वन्तरिः प्रयागे च गत्वा तद्यन्त्रमुत्तमम्। विलोमं कृतवांस्तत्र तदधो ये गता नराः॥७०॥
डल्हण ने भी सुश्रुत संहिता की व्याख्या में लिखा है कि इसमें बौद्ध नागार्जुन ने परिवर्तन किया था।
यत्र यत्र परोक्षे लिट् प्रयोगस्तत्र तत्रैव प्रतिसंस्कत्तृ सूत्रं शातव्यमिति। प्रतिसंस्कर्त्ताऽपीह नागार्जुन एव।
(५) अन्तिम धन्वन्तरि को उज्जैन के परमार सम्राट् विक्रमादित्य (६२ ईपू-१९ ई) के नवरत्नों में कहा गया है-
धन्वन्तरि क्षपणकामरसिंह शंकु वेतालभट्ट घटखर्पर कालिदासाः॥
ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य॥
वर्षः सिन्धुरदर्शनम्बरगुणैः (३०६८) र्याते कलौ सम्मिते।
मासे माधव संज्ञिते च विदितो ग्रन्थक्रियोपक्रमः॥
(कालिदास, ज्योतिर्विदाभरण, अध्याय २०)
[5:03 pm, 22/10/2022] Rani Jio: ग्लोबल में समाज टिकर संस्कृति ताजा