
पवन कुमार बंसल।
दादी मुझे क्यों डांट रही हो, कसूर तो दादू का है। बचपन कितना मासूम होता है। तभी कहा है कोई लौटा दे वो बिते हुए दिन, वो कागज की किश्ती।
आज एक निजी किस्सा शेयर करने की गुस्ताखी कर रहा हूँ ताकि आपको अपना बचपन याद आये।
मैं दिन में अपने बेड के कोने पर बैठा था। मेरा चार वर्षीय पोता रूद्र , जो अभी नर्सरी में पढ़ रहा है है। मेरी बनियान में कांच की अचार वाली शीशियाँ डाल कर खेल रहा था।
अचानक एक शीशी उछल कर फर्श पर जा गिरी और टूट गयी। रूद्र की दादी ने उसे डांटा तो गुस्से में बोलै आप मुझे बेवजह डांट रही हो, मेरा कोई कसूर नहीं। सारा कसूर दादू का है और उन्हें आप कुछ कह नहीं रही।
फिर खुद ही सफाई दी कि दादू कोने में बैठे है इसलिए शीशी फर्श पर गिरी है। यदि वे बेड के बीच में बैठते तो शीशी बेड पर बिछे गद्दे पर गिरती और नहीं टूटती ,उसके तर्क के आगे हम लाचार हो गए।
मैंने सोचा पूत के पांव पालने में दिखने वाली बात है। बड़ा होकर यदि सरकारी नौकरी नहीं भी मिली तो कम से कम वकील तो बन जायेगा। वैसे भी बिना शिफारिश के हरियाणा में सरकारी नौकरी मिलती भी नहीं और प्राइवेट कम्पनिया कितनो रोजगार देंगी।