राजनीति में महिलाओं की सहभागिता के लिए प्रोत्साहन की बूस्टर डोज आवश्यक

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  अंशु सारडा'अन्वि'
       अंशु सारडा’अन्वि’

 

 

 

 

 

अपने पिछले सप्ताह के रविवारीय कॉलम में मैंने राजनीति में महिलाओं की न्यून सहभागिता पर अपने विचार रखे थे। उसी क्रम में आज हम और आगे बात करेंगे। महिलाएं केवल पत्नी, बेटी या मां के रूप में ही नहीं बल्कि तमाम तमाम क्षेत्रों में अपनी मेहनत के बल पर सफलता के झंडे गाड़ रही हैं। इसके साथ ही वे भारत देश की  जिम्मेदार नागरिक भी हैं। राजनीतिक प्रक्रियाओं में महिलाओं की भागीदारी में क्रमिक वृद्धि के बावजूद राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित करने की सामर्थ्य अभी तक महिलाओं के पास है ही नहीं। क्या राजनीति की नेतृत्व प्रक्रिया में उन्हें अन्य लोगों का पूरी तरह सहयोग मिल पाता है? महिलाओं पर होते अत्याचार पर महिला नेता ही चुप्प साध जाती हैं। मानवाधिकार संगठनों का कुछ सहयोग अवश्य ही पीड़िता को मिलता है, पर वह भी आसान नहीं। कारण है महिलाओं में राजनैतिक चेतना की कमी।  महिलाओं को राजनीतिक प्रशिक्षण दिए जाने की, उनमें राजनीतिक जागरूकता की और राजनीतिक परिवेश में उनके लिए बदलाव की आवश्यकता है। महिलाओं को राजनीतिक रूप से क्रियाशील बनाया जाना चाहिए। वे आत्मनिर्भर हों और उनके पारिवारिक उत्तरदायित्वों को भी सहज किया जाना चाहिए। संसाधनों के बंटवारे में समानता होनी चाहिए आधुनिक लोकतंत्र में अपनी राजनीतिक राय बनाने और अधिकारों के प्रति सजग होने के लिए उन्हें राजनीति के बारे में विश्वसनीय जानकारी रखना अत्यंत आवश्यक है। कॉलेज और विश्वविद्यालय के दिनों से ही छात्र संघ के चुनाव में महिलाओं को खुद आगे आना चाहिए।
       मीडिया नेटवर्क भी महिलाओं की पुरुषों से इतर स्वतंत्र राजनीतिक सोच को व्यक्त करने का अवसर प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। अखबार या टी.वी. आदि महिलाओं के साथ- साथ सभी मतदाताओं पर वन वे ट्रैफिक की तरह अपने विचारों या सूचना को संप्रेषित करते हैं जबकि खुले मंच, संगोष्ठियां, सोशल नेटवर्किंग प्लेटफॉर्म, वेबसाइट्स जहां भी वे सक्रिय रूप से चर्चा में, बहस में हिस्सेदारी कर सके, वे टू वे ट्रैफिक की भांति काम करते हैं, जहां सूचनाओं के संप्रेषण के साथ -साथ व्यक्तिगत राय भी दी जा सकती है। उन तक राजनैतिक जानकारियां मीडिया के माध्यम से कम पहुंच पाती हैं या नहीं पहुंच पाती हैं तो मीडियेतर नेटवर्क अर्थात भौतिक नेटवर्क भी वहां कारगर सिद्ध हो सकते हैं। भौतिक नेटवर्क में नुक्कड़ नाटक, रंगमंच, छोटे-बड़े महिला जागरूकता संगठन, डोर टू डोर कैंपेन आदि विशेष भूमिका निभा सकते हैं। सोशल मीडिया, फेसबुक ऐप का उपयोग करने वाली महिलाओं की संख्या निरंतर बढ़ रही है और यह महिलाओं को अपनी स्वतंत्र राजनीतिक सोच को विकसित करने में एक बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। महिलाओं को राजनीतिक तौर पर जागरूक करने के लिए मीडिया और गैर मीडिया दोनों का समान रूप से प्रयोग आवश्यक है।
             विभिन्न शहरों-कस्बों के मतदाताओं में किस जाति की संख्या गेमचेंजर हो सकती है, उसको अपनी ओर करने के लिए हर राजनीतिक पार्टी का ध्यान लगा रहता है। पर महिला मतदाता किसी भी जाति की हो, गेमचेंजर नहीं होती हैं क्योंकि मतदाता के तौर पर वे पहले ही जातियों  में बंटी होती हैं और बाद में वे महिला होती हैं। हालांकि स्वतंत्र मतदाता के रूप में उनका वोट प्रतिशत उत्तरोत्तर बढ़ रहा है पर फिर भी वे विभाजित हैं। पार्टियां महिलाओं को आगे बढ़ाने, प्रतिनिधित्व देने की बात जरूर करती हैं पर उम्मीदवारी की रेस में तो सिर्फ पुरुष ही जीतता है। समाज की मानसिकता में भी बदलाव जरूरी है। महिलाओं में राजनैतिक इच्छा शक्ति होनी चाहिए। पावर शेयरिंग का डर हमेशा पुरुषों में होता है, जिसके कारण भी महिलाओं को उम्मीदवारी नहीं मिलती हैं। महिलाओं की उपस्थिति कॉर्पोरेट जगत, सेना, शिक्षा, सेवा आदि सभी क्षेत्रों में तथा अन्य प्रोफेशन में स्वीकार्य होती जा रही है पर राजनीति के क्षेत्र में जाने के लिए सामाजिक सीमा और बंधनों की बेड़ियों को तोड़ना अभी बाकी है, उन से बाहर निकलना अभी भी बाकी है। इसके लिए शैक्षिक स्थिति आर्थिक स्थिति और सामाजिक स्थिति में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है।
        मणिपुर की आयरन लेडी कहलाने वाली मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम शर्मिला आफस्पा के खिलाफ 16 वर्ष तक अपनी भूख हड़ताल के बाद चुनावी मैदान में उतरी थीं। पर उन्हें मात्र 90 वोट मिले और 143 वोट नोटा को मिलें। क्या उन्हें इसलिए वोट नहीं मिल सकें क्योंकि वे किसी बड़े राजनीतिक दल की शरण में नहीं थी या उनके ऊपर किसी प्रभावशाली नेता का हाथ नहीं था।  क्या आधुनिक प्रजातंत्र में महिलाएं हीं महिलाओं को  वोट नहीं देती है? आखिर क्या कारण है कि महिलाएं महिलाओं को ही वोट नहीं देती हैं? क्या महिलाओं की राजनीतिक क्षमता किसी भी तरह से पुरुषों से  कम होती है? क्या वह राजनीति के लिए अकुशल या अक्षम मानी जाती हैं? आखिर उन पर क्यों नहीं पुरुष और महिला मतदाताओं का विश्वास उतना होता है जितना की पुरुषों उम्मीदवारों  पर किया जाता है? और अगर उन्हें वोट मिलते ही हैं तो भी इसमें उनकी पार्टी का प्रभाव ज्यादा होता है। क्या महिलाएं महिलाओं को वोट देने में भी जाति बंधन में बंधी होती हैं? उसमें भी पहले जातियों के विभाजन को देखती हैं और बाद में वे अपना खुद का महिला होना स्वीकार करती हैं आदि ऐसे अनेक अनुत्तरित प्रश्न है जिनका उत्तर हम खुद दे सकते हैं या  हमें यह खुद खोजना चाहिए। महिलाएं अगर राजनीति में आती भी हैं तो वे क्या पुरुष प्रधानता को स्वीकार करके या पुरुषों के तौर-तरीकों को स्वीकार करके ही आगे बढ़ पाती हैं?  बहुत आवश्यक है कि राजनीति में महिलाओं को आने के लिए प्रोत्साहन के बूस्टर डोज की। और अंत में ब्राजील उपन्यासकार को पाउलो कोएल्हो के इस वाक्य के साथ आज के लेख को विराम देती हूं-
     ” अपने सपनों के लिए जरूर लड़ो, आखिर में देखना एक दिन ये सपने आपके खुद के लिए लड़ने लगेंगे।’
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