सोच का एक दूसरा रास्ता हमेशा होता है

कृपया इस पोस्ट को साझा करें!
अंशु सारडा'अन्वि'
अंशु सारडा’अन्वि’

 

 

 

 

 

 इस वर्ष हमारा देश अपना 73 वां गणतंत्र दिवस मनाने जा रहा है। इस बार के गणतंत्र दिवस समारोह की शुरुआत आज यानी 23 जनवरी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती से होने जा रही है। एक और बड़ा परिवर्तन इस बार दिखाई देगा वह है इंडिया गेट से अमर जवान ज्योति का वहां न होना। फिलहाल में ही उसका विलय राष्ट्रीय युद्ध स्मारक में प्रज्वलित ज्योति में कर दिया गया है। इस वर्ष की गणतंत्र दिवस परेड में राजपथ पर पहली बार बीएसएफ की पूर्णतः महिलाओं से सज्जित मोटरसाइकिल टीम सीमा भवानी नजर आएगी। इसमें 108 महिलाएं 29 मोटरसाइकिल पर विभिन्न तरह के फॉर्मेशन बनाएंगी, जिसमें पिरामिड बनाना बुल फाइट करना आदि शामिल होंगे। आमतौर पर बुलेट को, मोटरसाइकिलों को महिलाओं के चलाने के लिए नहीं माना जाता है लेकिन जब उन्हीं  350 सीसी की बुलेट पर, जो कि उनके अपने वजन से 2 गुना, 3 गुना भारी है पर महिलाएं स्टंट करती दिखाई देंगी, तब हमें उन पर गर्व जरूर महसूस होगा कि अब महिलाएं भी अब किसी क्षेत्र में पीछे नहीं हैं।
        कुछ महीने पहले ही संपन्न टोक्यो ओलंपिक में भी भारत द्वारा जीते गए 7 पदकों में से 3 पदक महिला खिलाड़ियों ने ही अपने नाम किए। तीरंदाजी, क्रिकेट आदि खेलों में भी महिलाओं की सहभागिता बढ़ी है। जहां तक राजनीतिक सहभागिता की बात है तो वर्तमान में पांच राज्यों में चुनाव दुंदुभी बज चुकी है। फरवरी महीने से प्रारंभ होने वाले इन चुनावों में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी का चुनावी नारा ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ बहुत ही सम्मोहक लग रहा है। शायद यही कारण है कि सभी राजनीतिक दल अपने प्रत्याशियों में 40% सीटें महिलाओं उम्मीदवारों को देने में उत्सुक दिखाई दे रहे हैं। यह अलग बात है कि ऐसा अभी तक उनके द्वारा जारी सूचियों से दिखाई नहीं दे रहा है। देश में संविधान लागू होने के 73 वर्ष बाद भी देश की राजनीति में जेंडर गैप एक प्रमुख तत्व दिखाई देता है। देश के प्रमुख राजनीतिक पदों पर महिलाओं और पुरुषों के अनुपात में आज भी बड़ा अंतर साफ- साफ नजर आता है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बाद किसी भी महिला का इस पद तक न पहुंच पाना, पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के अतिरिक्त किसी भी और महिला द्वारा इस पद पर अभी तक न आ पाना, विभिन्न राज्यों में महिला मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों की सूची में कोई बड़ा इजाफा न होना यह सब हमें उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व की सक्रियता को लेकर सोचने को बाध्य करते हैं। पूर्वोत्तर समेत पूरे देश में सिर्फ पश्चिम बंगाल में ही महिला मुख्यमंत्री पदासीन है तथा अन्य राज्यों में भी महिला मंत्रियों की संख्या कोई विशेष उल्लेखनीय नहीं है। क्या महिला राजनीतिक नेता के रूप में अपनी पहचान बनाने में अक्षम है? क्या महिला राजनीतिज्ञ अपने लिए आरक्षित सीटों पर मात्र अपने पुरुष रिश्तेदारों के लिए एक मुखोटे का काम करती हैं? हालांकि सर्वेक्षण बताते हैं कि जहां भी महिला नेताऐं  प्रभाव में हैं वहां वे जनता की बुनियादी जरूरतों पर अधिक ध्यान देती हैं, वे संसाधनों का बखूबी प्रयोग करना जानती हैं, वे कुशल निर्णय लेने में सक्षम भी होती हैं, लेकिन इतना ही काफी नहीं। महिलाएं देश की गणतांत्रिक व्यवस्था बनाए रखने में सक्रिय मतदाता के रूप में उन्मुख हैं लेकिन राजनीतिक नेतृत्व के क्षेत्र में उतनी सक्रिय भूमिका में नहीं दिखाई देती हैं। चुनावी भागीदारी वाले कार्यक्रमों में भी महिलाओं की उपस्थिति का अनुपात कम रहता है, और तो और इनमें भाग लेने के लिए उन्हें अपने पुरुष रिश्तेदारों से अनुमति की भी आवश्यकता होती है। दरअसल उनके द्वारा की जाने वाली प्रतिनिधित्व की इच्छा को पथरीले रास्तों पर चलना पड़ता है, जहां उनके ऊपर लैंगिक पूर्वाग्रहओं वाली प्रतिक्रियाएं, उनकी अकुशल नेतृत्व क्षमता वाले आक्षेप आदि जैसे अवरोधक उनका रास्ता रोकते हैं। यही कारण है कि आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में होने के बावजूद हमें महिलाओं को देश के संवैधानिक सत्ता का हिस्सा बनाने के लिए 40 फ़ीसदी आरक्षण जैसे लोक-लुभावने प्रचार का प्रयोग करना पड़ रहा है। चुनावी नियमों, राजनीतिक संस्थानों, राजनैतिक संगठनों और संविधान से संबंधित विभिन्न आवश्यक जानकारियों को लेकर महिलाओं के बीच जन गोष्ठियों, संवाद सत्रों, बैठकों, सभाओं आदि को करने की आवश्यकता है जिससे देश की गणतांत्रिक व्यवस्था में महिलाओं का सहयोग मात्र मूक मतदाता के तौर पर न रहकर उससे बढ़कर नेतृत्व में प्रखर भागीदारी के रूप में सामने आए।
और अंत में मन की बात सूर्यास्त होने का समय हो चला था और चांद भी निकलने को बेसब्र था। आज मेरा मन था क्यों न रवि और शशि के एक साथ दर्शन किए जाएं। हालांकि ऐसा बहुत बार हम देखते हैं कि जब सूर्यनारायण अपनी यात्रा पूरी कर अस्ताचल को जा रहे होते हैं और चंद्रमा भी अपनी धवल चांदनी के साथ आसमान पर आने को बेताब  हो रहे होते हैं पर सर्दियों के चांद को देखना एक अलग अनुभव होता है। लगता है जैसे इन दिनों में हमें ठंड लगती है वैसे ही चंद्रमा को भी ठंड में कंपकंपी आ रही है। ऐसे में रामधारी सिंह दिनकर की बचपन में पढ़ी कविता याद हो आती है।
“हठ कर बैठा चांद एक दिन माता से बोला,
 सिलवा दो मां मुझे ऊन का मोटा एक झिंगोला,
 सनसन चलती हवा रात भर जाड़े से मरता हूं,
  ठिठुर-ठिठुर कर किसी तरह यात्रा पूरी करता हूं।”

   मां बेटे के इस संवाद में मां के सवालों के जवाब में आगे चांद उत्तर देता है-
   ” हंसकर बोला चांद, अरे माता, तू इतनी भोली।
    दुनिया वाले के समान क्या तेरी मति भी डोली?
     घटता -बढ़ता कभी नहीं मैं वैसा ही रहता हूं।
     केवल भ्रमवश दुनिया को घटता बढ़ता लगता हूं।”
     असल में यही जो भ्रम है आधा हिस्सा उजाला होने के बाद भी, आधे वाले काले हिस्से को देखने का यही हमारी सबसे बड़ी मुश्किल भी है। नोबेल साहित्य सम्मान से सम्मानित लेखक अब्दुल रजाक गुनार के अनुसार ‘सोच का दूसरा रास्ता हमेशा होता है’  और हम किसी दूसरे रास्ते को कभी भी नहीं देख पाते हैं या देखना नहीं चाहते हैं। इसलिए जरूरी है कि अपनी सोच को बढ़ाएं, उसका दायरा व्यापक किया जाए और उसे एक सकारात्मकता दी जाए।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 123 वी जयंती और भारत के 73 वें गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ इस लेख को विराम देती हूं।
कृपया इस पोस्ट को साझा करें!
Leave A Reply

Your email address will not be published.