
त्रिदीब रमण
’फ़कत कौन यह मेरे घर का पता पूछ कर आया है
दबे पांव जो अक्सर मेरे ख्वाबों में आया करता था’
बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने की बात अब पुरानी हुई, ताज़ा सियासी संदर्भों में साइकिल के भाग्य से अपशकुन टलने की बात सामने आ रही है। कहां तो भाजपा की कोर ग्रुप की बैठक में यह तय हुआ था कि यूपी भाजपा के सवा सौ से लेकर डेढ़ सौ वर्तमान भाजपा विधायकों के टिकट कटेंगे, यह इस पैमाने पर तय होगा कि क्षेत्र में विधायक के खिलाफ कितना ‘एंटी इंकंबेंसी फैक्टर’ काम कर रहा है। पर पिछले कुछ समय में भाजपा में जो भगदड़ मची है और पार्टी के विधायक व मंत्रिगण अपना भगवा चोला उतार लाल रंग में डुबकी लगा रहे हैं और अगली पारी में साइकिल की सवारी के लिए आतुर हो रहे हैं, इसे देखते हुए भाजपा ने इतने बड़े पैमाने पर अपने मौजूदा विधायकों के टिकट काटने का इरादा टाल दिया है। सूत्र बताते हैं इस भगवा भगदड़ को मद्देनज़र रखते पार्टी शीर्ष ने तय किया है कि पार्टी विधायकों के टिकट काटने के बजाए क्यों नहीं उनका निर्वाचन क्षेत्र बदल दिया जाए, अब इसी आइडिया पर काम हो रहा है। दूसरी ओर भाजपा कर्णधारों को यह भी उम्मीद थी कि बड़े पैमाने पर सपा के मौजूदा विधायक भी पार्टी छोड़ कर कमल पार्टी का दामन थामेंगे, पर ऐसा कुछ हुआ नहीं, वैसे भी 2017 में सपा के मात्र 47 विधायक ही जीत कर लखनऊ पहुंच पाए थे। अब तक सपा के जो दो विधायक पार्टी बदल कर भाजपा में आए हैं, यानी हरिओम यादव और सुभाष पासी, पार्टी ने इन दोनों को पहले से निलंबित कर रखा था। हरिओम यादव रिश्ते में मुलायम सिंह के समधी लगते हैं, जो फिरोजाबाद की सिरसागंज सीट से विधायक हैं।
अखिलेश का बड़ा दांव
अखिलेश यादव इस बार किंचित परिपक्व राजनीति का उद्घोष कर रहे हैं, वे भाजपा की 80 बनाम 20 (यानी हिंदू बनाम मुसलमान) राजनीति का जवाब 85 बनाम 15 (पिछड़े बनाम अगड़े) से देने की कोशिश कर रहे हैं। वे पिछड़ों की राजनीति के नए पुरोधा के तौर पर उभरना चाहते हैं। इनके पिता मुलायम सिंह यादव भी पिछड़ों की राजनीति के ही चैंपियन थे। जो मंत्रिगण कमल का साथ छोड़ साइकिल के पाले में चले गए हैं,उनमें से एक पिछड़ी जाति से ताल्लुक रखने वाले मंत्री ने योगी के व्यवहार को लेकर शिकायत की है, उनका कहना है कि योगी का अपने मंत्रियों से व्यवहार का तरीका एकदम गलत था, वे अफसरों की मौजूदगी में भी अपने पिछड़े मंत्रियों को कस कर डपट दिया करते थे। सूत्रों की मानें तो भाजपा हाईकमान ने इस बात का संज्ञान लेते हुए टिकट वितरण की कवायद में फिलहाल योगी को गोरखपुर और बस्ती तक ही सीमित कर दिया है।
उपाध्याय की क्यों हुई छुट्टी?
उत्तराखंड कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और 10 जनपथ के बेहद करीबियों में शुमार होने वाले किशोर उपाध्याय को क्या इस बात की कीमत चुकानी पड़ी कि उन्होंने राहुल गांधी से अपनी मुलाकात की तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल करवा दी? या इस बात के लिए कि पिछले काफी समय से उनके भाजपा या फिर सपा में जाने की अटकलें परवान पर थीं? कांग्रेस हाईकमान ने बेहद आनन-फानन में उपाध्याय को उत्तराखंड में मिली तमाम जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया है, सनद रहे कि ये वही उपाध्याय हैं जो गांधी परिवार की अमेठी सीट की लंबे समय तक जिम्मेदारी उठाते रहे हैं। किशोर उपाध्याय की कभी हरीश रावत से गहरी छनती थी, वे रावत ही थे जिनके प्रयासों के बदौलत उपाध्याय पहली बार नारायण दत्त तिवारी के मंत्रिमंडल में बतौर राज्य मंत्री शामिल हो गए थे। इसके बाद जब हरीश रावत के पास सीएम की गद्दी आई तो इन्होंने किशोर उपाध्याय को एक ब्राह्मण चेहरे के तौर पर प्रदेश अध्यक्ष बनवाने में अपनी महती भूमिका निभाई। इन दोनों नेताओं के बीच मतभेद की खबरें सबसे पहले तब सामने आई जब राज्यसभा की एकमात्र सीट की दावेदारी के लिए हरीश रावत ने उपाध्याय की जगह प्रदीप टमटा के नाम का समर्थन कर दिया और इस रेस में टमटा बाजी मार गए।
कितना चलेगा प्रियंका का दांव
प्रियंका गांधी ने यूपी में सुप्तप्रायः कांग्रेस में एक नई जान फूंकने की कोशिश की है, अपने वादे के मुताबिक प्रियंका ने कांग्रेस की पहली सवा सौ वाली लिस्ट में थोकभाव में महिला उम्मीदवारों को टिकट दिए हैं। जैसे उन्नाव से रेप पीड़िता की मां आशा सिंह को टिकट देने के प्रियंका के ऐलान के बाद सपा ने भी उन्नाव से अपना उम्मीदवार उतारने से मना कर दिया। सपा ने अपने इस कदम से लोगों में यह संदेश देने की कवायद की है कि वह दलित, दमित और शोषित वर्ग के समर्थन में खड़ी है। सूत्रों की मानें तो सपा को अपने इस कदम के फायदा उन्नाव की आसपास की सीटों पर मिल सकता है। प्रियंका ने सोशल एक्टिविस्ट सदफ ज़फर को लखनऊ मध्य से टिकट दिया है, जिन्होंने नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ जोरदार प्रदर्शन से माहौल बना दिया था, बाद में सरकार ने उन्हें गिरफ्तार भी कर लिया था। पर इस कड़ी में प्रियंका के कुछ दांव उल्टे भी पड़ गए हैं। जहां जनता के बीच के चेहरों को टिकट देने के लिए उनकी प्रशंसा हो रही है, वहीं सलमान खुर्शीद की पत्नी लुईस खुर्शीद को कांग्रेस का टिकट देकर उन्होंने बवाल मोल ले लिया है। हालांकि प्रियंका करीबियों का दावा है कि लुईस को टिकट देने का प्रियंका का एक चतुराईभरा निर्णय है क्योंकि वह जानती हैं कि सलमान खुर्शीद के अखिलेश यादव से किंचित बहुत मधुर रिश्ते हैं, सो लुईस को टिकट देकर वे कांग्रेस के अंसतुष्ट गुट जी-23 के मंसूबों पर पानी भी फेरना चाहती हैं। वहीं कांग्रेस के एक वर्ग का मानना है लुईस बेहद अहंकारी स्वभाव की हैं, कांग्रेस का जमीनी कैडर उन्हें कभी स्वीकार नहीं कर पाता है।
शाह की शह काम आई
सिप्रा दास दिल्ली के फोटो जर्नलिस्टों की जमात का एक जाना-पहचाना चेहरा है। इन्हें देश की पहली फोटो जर्नलिस्ट में भी शुमार किया जाता है, नेत्रहीन व्यक्तियों पर केंद्रित उनकी कॉफी टेबुल बुक भी काफी चर्चा में रही है। पिछले दिनों सिप्रा ने दिल्ली के लक्ष्मी नगर से नोएडा स्थित अपने घर आने के लिए एक शेयर ऑटो लिया, साथ में उनका कैमरा बैग भी था। जब घर पहुंच कर सिप्रा ने अपना बैग खोला तो देखा तो उनके होश फाख्ता हो गए, उनके बैग से तमाम कैमरे और महंगे लेंस गायब थे और उसकी जगह बैग में ईंट पत्थर भरे हुए थे। सिप्रा के कैमरे की कीमत कम से कम 7-8 लाख रूपए तो जरूर रही होगी। इस महिला फोटो जर्नलिस्ट ने आनन-फानन में पुलिस थाने में अपनी शिकायत दर्ज कराई, गृह मंत्रालय को अपनी लिखित शिकायत भेजी, पुलिस थाने के खूब चक्कर काटे, पर कुछ हुआ नहीं। एक दिन वह संसद भवन स्थित गृह मंत्री अमित शाह के दफ्तर जा पहुंची, शाह जब अपने दफ्तर से सदन जाने के लिए बाहर निकले तो सिप्रा ने झट से उन्हें अपना प्रतिवेदन पकड़ा दिया, यह कहते हुए-’फोटोग्राफी ही मेरी लाइफ है, जब कैमरा ही चोरी चला गया तो 7-8 लाख के कैमरे मैं दुबारा से कैसे खरीद पाऊंगी।’ अमित शाह ने बगैर कुछ बोले सिप्रा के हाथों से कागज लिया और वे आगे बढ़ गए। पर जब इसके बाद भी कोई जबाव नहीं आया तो निराश शिप्रा अपने गृह शहर कोलकाता लौट गई। एक सप्ताह के अंदर सिप्रा को दिल्ली के क्राइम ब्रांच से फोन आता है कि उनका कैमरा शाहदरा के एक घर से बरामद हो गया है, वह फौरन दिल्ली आ जाएं और कोर्ट से अपना कैमरा ले लें।’ सिप्रा समझ चुकी थीं कि देश के गृह मंत्री ने बिना कुछ बोले उनका इतना बड़ा काम कर दिया है।
पीआईबी कार्ड धारकों की छंटनी होगी
क्या पत्रकार कंचन गुप्ता याद हैं आपको? कभी ये लाल कृष्ण अडवानी के बेहद करीबियों में शुमार होते थे, बाद में जब उन्होंने अपनी निष्ठा को मौजूदा सत्ता की धार दी तो वे सूचना प्रसारण मंत्रालय में नए सलाहकार बन कर आ गए। सूत्र बताते हैं कि जिस थोकभाव में पत्रकारों को पीआईबी कार्ड बांटे गए हैं, अब उनकी छंटनी हो सकती है। एक-एक पीआईबी कार्डधारक के ब्यौरे को खंगाला जा रहा है, उनकी पात्रता को कसौटी पर मांजा जा रहा है, फिर तय होगा कि कितने लोग इसकी वास्तव में पात्रता रखते हैं, जो नहीं रखते (या जो सरकार के निशाने पर हैं) उन्हें बाहर का दरवाजा दिखाया जा सकता है। यही वजह है कि इस वर्ष पीआईबी के कार्ड रिन्यू नहीं किए जा रहे हैं, हां उसकी वैधता अप्रैल तक जरूर बढ़ा दी गई है। कंचन गुप्ता जो पॉयोनियर अखबार भी संभाल चुके हैं, उन्हें मीडिया सेंटर में ही एक कमरा दे दिया गया है। सरकार पीआईबी कार्डधारक पत्रकारों को उनकी स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए सीजीएचएस सेंटर का भी लाभ प्रदान करती है, जिसके लिए पत्रकारों को मात्र 1067 रुपए का सालाना भुगतान करना पड़ता है। हर साल फरवरी में इस सीजीएचएस कार्ड को रिन्यू भी करवाना पड़ता है। इसी पीआईबी कार्ड के आधार पर संसद के दोनों सदनों के पास भी पत्रकारों के लिए बनते हैं। पर अब ऊहापोह और संशय का आलम छाया हुआ है, दूसरों के राजनैतिक भविष्य का पांडित्य बांचने वाले पत्रकारों के अपने भविष्य का क्या होगा?
…और अंत में
यूपी के चुनावी महासमर में आनने-सामने की जंग लड़ने वाले भाजपा और सपा ने तय किया है कि इस बार के चुनाव में वे अपराधियों और बाहुबलियों को टिकट नहीं देंगे। अब आपराधिक छवि वाले नेता राजभर और निषाद की पार्टियों से चुनाव लड़ने की जुगत भिड़ा रहे हैं। प्रदेश के दुर्दांत मुख्तार अंसारी या तो संजय निषाद की पार्टी से या फिर निर्दलीय चुनाव लड़ सकते हैं। ओवैसी ने मुख्तार और अतीक अहमद दोनों को खुला ऑफर दे रखा है कि वे चाहें तो ओवैसी की पार्टी से चुनाव लड़ सकते हैं। 1994 में मुख्तार सीपीआई के उम्मीदवार थे, फिर मायावती के साथ चले गए। पिछले चुनाव में मुख्तार को सपा में शामिल करने को लेकर चाचा-भतीजा यानी शिवपाल-अखिलेश में ठन गई थी। इस बार भी मुख्तार को अखिलेश की ना है। (एनटीआई-gossipguru.in)
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