मैं चिर जीवन का प्रतीक हूं

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अंशु सारडा’अन्वि’        
       कभी-कभी हमें ऐसा महसूस होता है कि अरे यह वाकया तो हमारे साथ पहले भी घट चुका है, यह तो मैंने पहले भी पढ़ा है, अमुक व्यक्ति से पहले भी मिले हैं, किसी जगह पर जाने से लगता है कि पहले भी आ चुके हैं या किसी दुर्घटना के घटित होने पर लगता है, हां, इसका सामना तो पहले भी किया है आदि आदि। ऐसी बहुत सी बातें होती हैं जिनके घटने पर ऐसा महसूस होता है कि यह पहली बार नहीं है। पर कब कहां, कैसे बस यह कुछ समझ नहीं आता, यहां तक कि दिमाग पर जोर देने के बावजूद भी स्मृति में ऐसी कोई घटना याद नहीं आती है जिसे हम इस वर्तमान घटना से किसी भी तरह से जोड़ सकें। इस तरह के अनुभवों को परिभाषित किया जाता है एक फ्रेंच शब्द ‘डेजा वू’ के द्वारा। ‘डेजा वू’ शब्द के भीतर दो तरह के अनुभवों का वर्गीकरण किया गया है, ‘डेजा विजेत’ यानी ‘वह जगह जिसके लिए लगे कि पहले भी देखी गई है’ और दूसरा है  ‘डेजा वेकु’ यानी ‘वह जिसे पहले भी जिया जा चुका हो।’ इन दोनों का सम्मिश्रण ही ‘डेजा वू’ कहलाता है। दरअसल इसमें होता यह है कि हमारे दिमाग का एक भाग वर्तमान में जीता है और एक भाग में यादें होती हैं और वे एक दूसरे के आगे -पीछे चलती हैं। जब हम वर्तमान में जीते हैं तो पुरानी यादों वाला भाग बंद होता है और जब कभी ऐसा हो जाता है कि दोनों ही भाग समान रूप से खुले रह जाते हैं तो हमारे दिमाग को ऐसा लगता है कि यह घटना याद वाले भाग से निकल रही है और वह इसे पुरानी -बीती यादें मान लेता है जबकि वह पहली बार घटित हुई होती है। खैर यह तो हुई एक उस एहसास की बात जो वास्तविकता में होता ही नहीं है। पर क्या कभी ऐसा भी आपको महसूस नहीं हुआ है कि जीवन के इस कठोर धरातल पर मोह किस तरह से हमें विकल करता है और जब अपने आत्मीय परिजनों से यह मोह भंग होता है तो  हमारी पुरानी यादें जीवित हो हमें ठोकर मारने लगती हैं। लेकिन क्या इन यादों के सहारे दुनियादारी की रीत निभाए जा सकती है? नहीं, बिल्कुल भी नहीं। हम इन यादों के भंवर जाल में ही एक अकुशल तैराक की भांति फंसे रह जाते हैं और दुनिया गिरे में दो लात मारकर आगे को बढ़ती चली जाती है। अधिक आत्मीयता हमेशा ही शून्य देती है और इस शून्य को हम तब ही महसूस कर पाते हैं जब तक उससे हम दो-चार नहीं होते अन्यथा यह आत्मीयता हमें बड़ी ही मोहक लगती है, ठीक वैसे ही जैसे जब तक हम बर्फ को देखते नहीं हैं वह हमें बड़ी ही आकर्षक लगती है। लेकिन जब यही हमारे जीवन के सुबह-शाम  का हिस्सा बन जाए तो हमारा सारा आकर्षण रफूचक्कर हो जाता है।
        इटली की एक प्रसिद्ध कहावत है –
       ‘ जो ठेस पहुंचाता है वह रेत पर लिखता है, जल्दी भूल जाता है परंतु जिसे ठेस लगती है वह पत्थर पर लिख कर रखता है।’
        बिल्कुल यही बात हमारी उम्मीदों के साथ भी लागू होती है कि हमारी उम्मीदों को जिसने ठेस पहुंचाई होती है, वह तुरंत अपने चेहरे पर एक और नकाब ओढ़  हमारे साथ पिछली बातों को बिना जेहन में लाए हंसने बैठ जाएगा। लेकिन हम होंगे कि वही उस पत्थर पर लिख अपनी छाती से चिपकाए बैठे होंगे जबकि हम भी जानते हैं कि जब- जब हम इस पत्थर को अपने से दूर करने की कोशिश करेंगे फिर वही याद दिला दिया जाएगा।
        ‘ तुम्हारे याद के जब जख्म भरने लगते हैं….
         किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं….।’
                                          फैज अहमद फैज
    याद रखिए यह जिंदगी एक तरह के वाद्य यंत्र की मानिंद होती है। जब इसका सही से प्रयोग करना या इसे बजाना न आए तो यह बेकार या पीड़ा कारक हो जाता है हमारे लिए, नीरज या घृणित हो जाता है। पर वहीं अगर इस वाद्य यंत्र के सुरों को संभालना सीख जाएं, उसके उतार-चढ़ाव को समझने लग जाए तो देखिए इसकी सार्थकता कितनी बढ़ जाती है, हमारी जिंदगी रंग बिरंगी हो जाती है। आखिर आवश्यकता खुद को मुक्त करने की होती है। मुक्त करने का अर्थ कुछ करने से आजादी नहीं बल्कि उन बंदिशों से खुद को बाहर निकालना होता है जो हमारी सोच को, हमारे व्यवहार को, हमारी रचनात्मक ऊर्जा को बांध दें।
    अपनी जिंदगी में किस्मत के अच्छे होने का इंतजार नहीं करना चाहिए बल्कि अपनी किस्मत की परिभाषा हम अपने हाथों से खुद लिख सकते हैं। अपने लिए अवसरों का निर्माण खुद इस तरह से करना चाहिए कि कामयाबी झक मारकर भी हमारे पास ही आए। जिंदगी के संकट के समय में भी अगर हम यह सोच ले कि हमें अपनी जिंदगी खुद बदलनी है , इसके सामने हमें घुटने नहीं टेकने हैं तो अपने मजबूत इरादों से उस संकट में ही हम अपने लिए सफलता की राह बना लेंगे। मशहूर गायक, वक्ता और एंकर ‘विली जोली’ ने अपनी किताब ‘संकट सफलता की नीव है’ में इस बात को विस्तृत तौर पर लिखा है कि किस तरह से हम संकट को देखने का अपना नजरिया बदल सकते हैं और जिंदगी को एक नई दिशा दे सकते हैं। मैंने देखा है कि कई लोग उम्र तो अधिक पाते हैं पर जिंदगी में कुछ भी ऐसा हासिल नहीं कर पाते हैं कि लोग उन्हें याद करें। फिर यह भी कहते हैं कि थोड़ी और उम्र मिली होती तो वह कुछ कर पाते। जबकि कुछ लोग कम उम्र में ही अपना नाम कर जाते हैं।
    प्रसिद्ध साहित्यकार रांगेय राघव का कल 17 जनवरी को जन्मदिन है। एक अहिंदी भाषी होते हुए भी हिंदी को उन्होंने अपनी मातृभाषा के रूप में स्वीकार कर उसके संवर्धन और सम्पोषण के लिए जो लेखन कार्य किया वह अतुलनीय है। मात्र 39 वर्ष की आयु में वे इस दुनिया से कूच कर गए। उनकी इन पंक्तियों के साथ लेख को विराम देती हूं—
     ‘ ओ ज्योतिर्मयी! क्यों फेंका है,
      मुझको इस संसार में।
       जलाते रहने को कहते हैं,
       इस गीली मंझधार में। 
       
       मैं चिर जीवन का प्रतीक हूं,
       निरीह पग पर काल झुके हैं।
       क्योंकि जी रहा हूं मैं 
       अब तक प्यार -भरो के प्यार में।’
                        अंशु सारडा’अन्वि’
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