परिवर्तन को स्वीकार कर आगे बढ़े

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अंशु सारडा'अन्वि'
   अंशु सारडा’अन्वि

 

 

 

 

बरेली से अपनी वापसी की यात्रा में रेल नीर की पानी की बोतल खाली होने पर उसे हमेशा के जैसे फेंकने के लिए क्रश करके एक तरफ रख दिया। अभी भी रेल यात्रा में ए.सी.  कोच में  बैडरोल नहीं दिए जा रहे हैं, अतः हमारे पास अपना इंतजाम था। पर बातों में मालूम पड़ा कि अब जल्द ही, अगर यात्री की जरूरत है तो  मांगने पर डिस्पोजेबल बैडरोल  उन्हें दिए जाएंगे, यह एक अच्छी बात थी। पर यह डिस्पोजेबल बैडरोल होने का अर्थ है कि फिर धरती पर कचरे का भार बढ़ाना। प्लास्टिक की इस बनी इस बोतल ने फिर मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। अगर यह प्लास्टिक नाम का मैटेरियल हमारी जिंदगी में न होता तो क्या हमारी दैनिकचर्या उतनी सहज और सुगम होती जितनी अभी है? प्लास्टिक हमारी जिंदगी में इतना अधिक रच- बस गया है कि उसको अगर निकाल दें तो एक सामान्य,सुगम जीवन थोड़ा कठिन जरूर हो जाएगा। अगर एक व्यक्ति समर्थ है तो वह लकड़ी के फर्नीचर, बांस-बेंत, कांच की, आयरन की बनी चीजें घरेलू उपभोग में प्रयोग कर पाता है। पर प्लास्टिक इतना सुगम और इतनी आसानी से उपलब्ध होने वाला मैटेरियल बन चुका है जिसका प्रयोग प्रत्येक व्यक्ति आसानी से अपने अनुसार कर पाता है। एक गृहणी भी अपने रोजमर्रा के अनुभवों से इसकी उपयोगिता को बता सकती है। यूं भी कहा जा सकता है कि प्लास्टिक के प्रयोग ने पेड़ों के कटने पर भी जरूर कुछ लगाम लगाई होगी। दूध के प्लास्टिक के पैकेट में पैकेजिंग से लेकर सेनेटरी पैड्स, पाइप्स, खाद्य पदार्थों की पैकिंग, पानी की बोतल, फर्नीचर, खिलौने, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण क्या चीज ऐसी नहीं है जो कि प्लास्टिक के बिना पूरी है। सर्दी, गर्मी, बारिश, पहाड़, मैदान, समुद्री इलाका सभी जगह प्लास्टिक अपने पूरे दमखम के साथ अपना सिक्का जमा हुए है। पर क्या इतना सब होने के बावजूद भी प्लास्टिक प्रदूषण से मुक्त है? क्या यह अन्य समस्याओं की जड़ नहीं? वास्तु के अनुसार भी प्लास्टिक नकारात्मक ऊर्जा का संचार करने वाला होता है। क्या यह जगह- जगह बिखरी खाली पानी की बोतल, चिप्स के पैकेट या अन्य प्लास्टिक की बनी चीजों के इस्तेमाल के बाद इधर उधर फेंक देने में प्लास्टिक की गलती है या हमारी। प्लास्टिक तो नहीं कहता कि मुझे जलाओ और प्रदूषण फैलाओ। प्लास्टिक जितना उपयोगी है, उससे भी कहीं अधिक उसका गलत तरह से अपशिष्ट प्रबंधन उसकी बेहतरी को गलत साबित कर देता है। प्रकृति के रोष से अगर बचना है, उसके धैर्य के साथ खिलवाड़ नहीं करना है तो प्लास्टिक को दोषी न ठहराएं प्रदूषण के लिए, पर्यावरण अस्वच्छता के लिए।  उसकी रीसाइक्लिंग करके उसके सही अपशिष्ट प्रबंधन पर ध्यान दें नहीं तो यह धरती, यह प्रकृति अगर किसी भी तरह से हमारे प्रतिकूल व्यवहार से बची भी रह गई तो वह  ऐसी ही होगी जैसे इस समय कोविड-19 से या किसी अन्य बीमारी से ठीक हुआ इंसान, जो कि बच तो  जाता है पर अस्त-व्यस्त और बदहाल हो जाता है। इसलिए प्रकृति को, प्राकृतिक तरीकों को अपनाना बहुत जरूरी है।

     अभी कुछ दिन पहले की बात है कि खिड़की के छज्जे पर एक पीपल का पेड़ कई दिनों से अपनी जड़ें फैलाता जा रहा था। हम भी परेशान थे कि कोई और पेड़ होता तो उसे उखड़वा दिया जाता पर पीपल के पेड़ में हिंदू धर्म के अनुसार देवी-देवताओं का वास माना जाता है जिससे उसे उखड़वाये जाने के लिए कुछ और उपाय करने थे। भारतीय संस्कृति हमेशा से ही प्रकृति को महत्व देती रही है। प्राचीन समय में विशाल पेड़ों को सुरक्षित और संरक्षित करने के लिए कहा जाता था कि अगर पीपल, बरगद, नीम जैसे बड़े पेड़ों को  काटा जा रहा है तो इसकी प्रतिपूर्ति के लिए दूसरे किसी स्थान पर एक नया पेड़ लगा दिया जाए। इसके पीछे पेड़-पौधों, औषधीय वृक्षों और उनके ऊपर पलने वाले पशु- पक्षियों और कीड़े मकोड़ों  की सुरक्षा की भावना निहित हुआ करती थी। आज हम लोग हर्बल ट्री की बात किया करते हैं, ऑक्सीजन या एयर फ्रेशनर प्लांट की भी बात किया करते हैं जबकि भारतीय धर्म ग्रंथों और संस्कृति में ये चीजें पहले से ही लिखी गई हैं। हमारी संस्कृति में यज्ञ और हवन के माध्यम से वातावरण को शुद्ध करने के साथ-साथ उसमें मौजूद विषैली गैसों की उपस्थिति को खत्म करना भी हुआ करता था। इसलिए अगर हम वास्तव में अपनी प्रकृति को प्रदूषण मुक्त रखना चाहते हैं तो बजाय प्लास्टिक या अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरण या अन्य चीजों को दोष देने की जगह उसके सही तरीके से अपशिष्ट प्रबंधन की व्यवस्था करें और पेड़ों के संरक्षण के बारे में जरूर सोचे।
      और अंत में 12 जनवरी स्वामी विवेकानंद का जन्म दिन जो कि राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है सन्निकट है। स्वामी विवेकानंद ने पाखंड और आडंबर का खंडन कर भारतीय अध्यात्म और वेदांत की स्थापना पर जोर दिया। उन्हें नवजागरण का पुरोधा कहा जाता है। उनके द्वारा शिकागो धर्म संसद में कहे गए श्लोक की पंक्तियां थी…
      ” रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम।
      नृणामेको गम्यस्तववमसि पयसामर्णव इव।”
      अर्थात जैसे नदियां अलग-अलग स्त्रोत से निकलती हैं और अंत में समुद्र में जाकर मिलती हैं, वैसे ही मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग रास्ते चुनता है।
       पर  उसका चुनाव सही होना चाहिए। उनका युवाओं को संदेश था कि “अगर तुम खुद ही नेता के रूप में खड़े हो जाओगे तो तुम्हें सहायता देने के लिए कोई आगे नहीं बढ़ेगा। अगर सफल होना चाहते हो तो पहले अहं का नाश करो।”
       स्वामी विवेकानंद की उत्साही और ऊर्जावान सोच युवाओं के लिए ही नहीं हम सबके लिए भी उतनी ही जरूरी है। प्रकृति से जुड़े रहना और अपनी प्रकृति को बचाना है तो युवाओं को स्वयं ही नेतृत्व के लिए आगे आना होगा। सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने के साथ ही उत्तरायण का आरंभ हो जाएगा जो कि स्वयं जागृति का प्रतीक है, परिवर्तन का प्रतीक है जो कि वर्तमान की विशेष आवश्यकता भी है।  अतः परिवर्तन को स्वीकार कर आगे बढ़े। अस्तु।।
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