
“यह बची खुशी रोशनी भी क्या घर लेकर जाएंगे, बिखरा कर राहों में कल फिर चल कर आएंगे”
उन्हें उस हर रोशनी का हुनर मालूम है जो निराश मन को रौशन करता है, पर किसानों के मन के मर्म को, दर्द को भांपने में उनसे देर हो गई, कुछ गलत फीडबैक की वजह से और कुछ पूर्वाग्रही हठधर्मिता की वजह से। सूत्र बताते हैं कि शुक्रवार को राष्ट्र के नाम संदेश की इबारत तो महीने पूर्व लिखी जा चुकी थी जब कैप्टन अमरिंदर सिंह पीएम और अमित शाह से मिलने आए थे। कैप्टन का पीएम व शाह से बस यही आग्रह था कि ’तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करना बेहद जरूरी है तभी वे देदीप्यमान भगवा आस्थाओं का आसरा लेकर पंजाब के मतदाताओं के बीच जा सकते हैं,’ इस बात का इसी कॉलम में सबसे पहले जिक्र हुआ था कि इस घोषणा के बाद कैप्टन खुल कर भाजपा की ओर से खेलने लगेंगे। ऐसा ही हुआ, पर पीएम की घोषणा के बाद भी किसान अभी माने नहीं हैं, उन्हें इन कानूनों के संसद में निरस्त होने का इंतजार है, वहीं वे एमएसपी पर वैधानिक गारंटी की अपनी पुरानी मांग पर अब भी अड़े हैं। पर पीएम की बात पर इतना अविश्वास ठीक नहीं, यह देश के उच्च संवैधानिक पद की गरिमा को ललकारने वाला कदम है। सवाल यह भी बड़ा है कि पीएम के सहयोगी मंत्री अजय मिश्र टेनी का क्या होगा? जिसकी किसान बर्खास्तगी की मांग कर रहे हैं। किसान अब भी अपनी पुरानी मांगों पर ही अड़े हुए हैं और किंचित अतिरेक उत्साह में हैं, उन्हें इस बात का कहीं न कहीं इल्म है कि उनके फौलादी इरादों और अदम्य जज्बों का उन्हें ईनाम मिला है। पर भाजपा सरकार के लिए भी पीएम मोदी का यह विलंबित दांव आसान नहीं रहने वाला। जब तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने का विधेयक सदन में लाया जाएगा तो विपक्षी दल इस पर खूब हाय-तौबा मचाएंगे, वे उन 700 से ज्यादा आंदोलनकर्मी किसानों की शहादत का मुद्दा भी उठाएंगे जिसकी इस आंदोलन को कीमत चुकानी पड़ी। क्या तीनों कृषि कानूनों के विधेयक का भी वही हश्र होने वाला है जो 2014 में मोदी सरकार के ‘संशोधित भूमि अधिग्रहण’ विधेयक का हुआ था, 2015 में एक दिन यूं अचानक पीएम की ओर से ‘मन की बात’ में ऐलान किया गया था कि सरकार इसे वापिस ले लेगी। पर क्या आज एक बदले परिदृश्य में लाखों टूटे मन और बिखरी आस्थाओं को वापिस लिया जा सकेगा, जिनमें उन्हें अपनों के खोने का दर्द भी शामिल है।
सियासत चालू आहे
अभी भले तीनों कृषि कानूनों के निरस्त होने में वक्त लगेगा, पर भाजपा ने इसके विस्तार की राजनीति पर कार्य करना अभी से शुरू कर दिया है। पंजाब में तो कैप्टन अमरिंदर खुल कर भाजपा के पाले में आ गए हैं तो वहीं यूपी की किसानों के प्रभाव वाले सौ-सवा सौ सीटों पर भगवा पार्टी का डैमेज कंट्रोल अभियान भी शुरू हो चुका है। इनमें से ज्यादातर सीटें पश्चिमी यूपी की हैं जो जाटों के प्रभुत्व वाला क्षेत्र है। वैसे भी जाट शुरू से भाजपा के परंपरागत वोटों में शुमार होते हैं, याद कीजिए अमित शाह का 40 मिनट का वह लीक ऑडियो क्लिप जिसमें दावा हुआ था कि जाट भाई तो हमारे अपने हैं। एक ओर अब जहां भाजपा के जाट नेता पश्चिमी यूपी के गांव-गांव घूम कर नाराज़ जाटों को मनाने का काम करेंगे कि ‘देखो प्रधानमंत्री जी ने आपकी बात मान ली है, अब गुस्सा छोड़ो, साथ आओ।’ वहीं जाटों के एक प्रमुख नेता चौधरी चरण सिंह के पौत्र जयंत चौधरी की ओर भाजपा अब दोस्ती का हाथ बढ़ा रही है। भाजपा रणनीतिकार जयंत को यह समझाने के प्रयासों में जुटे हैं कि रालोद को सपा या कांग्रेस से मित्रता कभी रास नहीं आई है, इन पार्टियों से गठबंधन कर 2014 और फिर 2019 के आम चुनावों में रालोद की झोली बिल्कुल खाली रही। 2017 में सपा से गठबंधन कर इन्हें मात्र एक विधानसभा सीट पर ही जीत का मुंह देखने को मिला, वहीं अटल के जमाने में जब 2009 में पार्टी ने भाजपा से गठबंधन कर 7 सीटों पर चुनाव लड़ा तो पार्टी ने उसमें से 5 सीटों पर जीत दर्ज कर ली। जयंत फिलवक्त जनता का मूड भांपने में लगे हैं कि क्या सचमुच जाटों ने भाजपा को माफ कर दिया है? इसके अलावा भाजपा रणनीतिकारों ने लगातार बसपा सुप्रीमो मायावती से भी अपने तार जोड़ रखे हैं, चुनावी नतीजों के बाद अगर भाजपा बहुमत से 15-16 सीटें पीछे रह जाती है तो यह कमी मायावती पूरी कर सकती हैं।
योगी-चौहान को सख्त फरमान
सियासत में संकेतों के आइने ही तय करते हैं नायक व प्रतिनायकों के चेहरे। अब यहां दो घटनाओं का जिक्र करते हैं, पहली घटना मध्य प्रदेश की है, यह 15 नवंबर की घटना है, जब पीएम मोदी गोंडरानी कमलापति रेलवे स्टेशन का उद्घाटन करने भोपाल पहुंचे थे। इस मौके पर एमपी के सीएम शिवराज सिंह चौहान पीएम के कदम से कदम मिला कर चल रहे थे और चलते हुए उनसे कुछ बात भी कर रहे थे कि उद्घाटन स्थल तक पहुंचने से पहले अचानक एसपीजी अवतरित होती है और वह शिवराज का हाथ पकड़ कर उन्हें पीएम से पीछे कर देती है। पर पीएम पीछे मुड़कर देखते तक नहीं हैं इस घटना पर बाद में भोपाल के कलेक्टर का बयान आता है कि प्रशासन को सीएम को कुछ बेहद जरूरी मैसेज पहुंचाना था जो एसपीजी के माध्यम से उन तक पहुंचाया गया। पर यह बात हजम होने वाली है नहीं, चाहे कलेक्टर साहब अपने सीएम के फेस सेविंग के लिए कुछ भी कहते रहें। इसके अगले ही रोज यानी 16 नवंबर को ऐसी ही एक घटना आदित्यनाथ योगी के साथ हो जाती है। 16 नवंबर को यह पूर्वांचल एक्सप्रेसवे के उद्घाटन का अहम मौका था, लोग थे, कैमरों की गवाही थी, एसपीजी ने योगी की आंखों के आगे पीएम को अपने घेरे में लिया और पीएम अपनी गाड़ी में सवार होकर आगे निकल पड़ते हैं। कैमरों में दिखा कि कैसे पैदल ही तेज कदमों से चलते सीएम योगी पीएम की गाड़ी के पीछे चल रहे हैं। सोशल मीडिया पर मजाक भी चल पड़ा-’अभी तो चुनाव के नतीजे भी नहीं आए हैं और योगी को पैदल कर दिया गया है।’ पीएम चाहते तो योगी को अपने साथ गाड़ी में बिठा सकते थे पर क्या उनकी मंशा एक साफ संदेश देने की थी। वैसे भी दिल्ली में नए निज़ाम के बाद 2014 से प्रोटोकॉल में भी कई बदलाव आए हैं, जैसे कि कैमरों के फोकस में पीएम सबसे आगे चलेंगे निपट अकेले, नायकत्व की आन-बान में उलझे, राजनाथ सिंह ने भी गणतंत्र दिवस की परेड पर राजपथ पर इसे बूझ लिया था, पीएम के साथ चलते-चलते अचानक से वे पीछे हो गए थे, फेसबुक मुख्यालय में मार्क जुकरबर्ग इसे नहीं समझ पाए तो पीएम ने ही उन्हें हाथ पकड़ कर पीछे कर दिया, पीएम के विमान का भी यही प्रोटोकॉल है कि अगले गेट से सिर्फ पीएम उतरेंगे, निपट अकेले, बाकी के लोग विमान के पिछले दरवाजे से बाहर निकलेंगे। नायकत्व की यह दरकार भी है और उसका ऐलान भी।
ऊपरी सदन के पेंच में उलझी मोदी सरकार
सीबीआई और ईडी प्रमुखों का कार्यकाल पांच साल तक बढ़ाने के लिए मोदी सरकार एक अध्यादेश लेकर आई है, जिसे एक विधेयक के तौर संसद के दोनों सदनों यानी लोकसभा और राज्यसभा में पास कराना सरकार के लिए अनिवार्य होगा, तब ही यह एक कानून का रूप ले सकता है। लोकसभा में भाजपा का बंपर बहुमत है, सो वहां कोई दिक्कत आनी नहीं है, पर राज्यसभा में पेंच फंस सकता है। जहां भाजपा के अपने केवल 97 सदस्य हैं, एनडीए सहयोगियों और निर्दलियों को लेकर यह आंकड़ा 116 तक जा पहुंचता है। सदन में अगर सारे सदस्य उपस्थित हैं तो बहुमत के लिए जरूरी नंबर 123 का है। अब तक वाईएसआर कांग्रेस के 6 और बीजू जनता दल के 9 यानी ये 17 सदस्य मिल कर सरकार के लिए जरूरी आंकड़ों का बंदोबस्त कर देते थे। बहुत जरूरी हुआ तो मायावती भी अपने 3 सदस्यों के साथ सेवा देने के लिए हाजिर रहती हैं। पर इस बार जगन और नवीन पटनायक बीएसएफ कानून यानी सीमा सुरक्षा बल के अधिकार क्षेत्र में विस्तार से नाराज़ हैं, सो वे इस बार सरकार का साथ देने से पलटी मार सकते हैं। आपको याद होगा कि एक से ज्यादा मौकों पर सरकार ने संसद में मार्शलों के सहयोग से कई बिल पास कराए हैं जैसा कि कृषि बिल या जनरल इंश्योरेंस कंपनियों के निजीकरण बिल के दौरान देखने को मिला, जहां विपक्षी दल वोटिंग की मांग करते रहे और सरकार ने मार्शलों के दम पर बिल पास करा लिया। पर सूत्र बताते हैं कि इस बार ऐसा नहीं होगा, सरकार सदन में जोर जबर्दस्ती के बजाए संसदीय प्रबंधन कौशल के जरिए यह नया बिल पास करवाना चाहती है।
सोरेन परिवार में मचा घमासान
झारखंड में गुरू जी यानी शिबू सोरेन परिवार में जबर्दस्त घमासान मचा है। जब से हेमंत सोरेन प्रदेश के मुख्यमंत्री की गद्दी पर काबिज हुए हैं उनके दिवंगत बड़े भाई दुर्गा सोरेन की पत्नी और उनकी ही पार्टी की विधायक सीता सोरेन ने उनके खिलाफ विरोध का झंडा उठा रखा है। दुर्गा व सीता सोरेन की दोनों पुत्रियों जयश्री और राजश्री सोरेन ने अपने पिता के नाम पर एक गैर राजनीतिक मंच ‘दुर्गा सोरेन सेना‘ का गठन कर इस बवाल में तूफान का छौंक लगा दिया है। हेमंत को यह भी लगता है कि इस गैर राजनैतिक संगठन के बहाने उनकी भाभी पार्टी में उनके विरोधियों को एक मंच देने का प्रयास कर रही है। वहीं हेमंत को लगता है कि उनकी भाभी ने अपनी बेटियों के नाम पर जो कंस्ट्रक्शन कंपनी बना रखी है, यह सारा हंगामा उस कंपनी के लिए सरकारी ठेके पाने को लेकर है। सूत्रों की मानें तो हेमंत अपनी भाभी को तो दो दफे से विधानसभा टिकट भी नहीं देना चाहते थे, सीता की जामा सीट से वे खुद चुनाव मैदान में उतरना चाहते थे। हेमंत की अपने छोटे भाई वसंत सोरेन से भी ठनी हुई है जिन्होंने उनके मना करने के बावजूद उत्तराखंड की एक लड़की से कुछ महीने पहले दूसरा ब्याह रचा लिया है। वसंत की पहली पत्नी की गुहार पर जब हेमंत की पत्नी वसंत को समझाने उसके घर गई तो कहते हैं वंसत और उनकी नई पत्नी ने अपनी भाभी के साथ अशोभनीय व्यवहार किया। इससे दोनों भाईयों के दरम्यान तल्खी और बढ़ गई है। वसंत की नई पत्नी के भाजपा के कुछ नेताओं से बेहद अच्छे ताल्लुकात हैं सो हेमंत को लगता है कि वसंत और उसकी नई पत्नी भाजपा के शह पर झामुमो में दोफाड़ करवाना चाहते हैं। हालांकि इस वक्त निर्विवाद रूप से हेमंत झामुमो के सबसे बड़े नेता के तौर पर उभरे हैं। जब हेमंत के पिता शिबू सोरेन अपने पीक पर थे तो उन्होंने 1991 के चुनाव में झामुमो को सबसे ज्यादा 21 सीटों पर जीत दिलवाई थी, जबकि पिछले चुनाव में हेमंत अपनी पार्टी झामुमो को 29 सीटें दिलवाने में कामयाब रहे हैं। उनके पिता और मां दोनों हेमंत के साथ रहते हैं, इस नाते भी पार्टी में उनकी बादशात को उनके परिवार के सदस्यों से कोई गंभीर चुनौती नहीं मिल सकती है।
ज्यादा योगी मठ उजाड़
यूपी चुनाव को भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने अपनी नाक का सवाल बना दिया है। पहले से दर्जन भर मंत्री यूपी चुनाव में सक्रिय थे। अब तीन नए हैवीवेट को मैदान में उतारा गया है। अमित शाह को ब्रज और पश्चिमी यूपी का जिम्मा मिला है, जो भाजपा के नजरिए सबसे मुश्किल क्षेत्र है। अवध और काशी की जिम्मेदारी राजनाथ सिंह को मिली है। कानपुर और गोरखपुर जेपी नड्डा के हवाले किया गया है। वैसे भी भगवा पार्टी ने यूपी चुनाव का पूरा फोकस अब योगी से हटा कर मोदी पर कर दिया है। ऐसा लग रहा है कि मानो पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व और भारत सरकार मिल कर यूपी चुनाव में उतरे हैं। पीएम भी अब अपना ज्यादा से ज्यादा वक्त यूपी में लगाने वाले हैं, क्योंकि उन्हें इस बात का अच्छी तरह से इल्म है कि दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर जाता है। संघ से जुड़े सूत्र खुलासा करते हैं कि अगर 2022 में यूपी में भाजपा की सत्ता में पुनर्वापसी होती है तो योगी की जगह किसी अति पिछड़े को (संभवतः केशव प्रसाद मौर्य) यूपी का नया सीएम बनाया जाएगा, जिससे कि प्रदेश की 54 फीसदी पिछड़ी आबादी को 2024 की बाबत साधा जा सके। क्या योगी आदित्यनाथ अगले सुशील मोदी बनने की राह पर हैं?
…और अंत में
जब से राहुल दरबार से के. राजू की विदाई हुई है, सियासी बियांवा में भटक रहे वी.जॉर्ज की गांधी परिवार में जोरदार वापसी हुई है। अभी हाल में ही पार्टी ने एके एंटोनी की अध्यक्षता वाले अनुशासन समिति की गठन का ऐलान किया है, जिसका तारिक अनवर को सदस्य सचिव बनाया गया है। वी जॉर्ज ने अपने प्रिय पी.परमेश्वर को इसमें शामिल करा दिया है। अंबिका सोनी को भी इसका एक मेंबर बनाया गया है, यह वही अंबिका सोनी हैं जिन्होंने राहुल की लीडरशिप को कभी स्वीकार नहीं किया। पर जॉर्ज राहुल को यह समझाने में कामयाब रहे कि अगर जी-23 ग्रुप में फूट डालनी है तो सोनी को कोई अहम जिम्मेदारी देनी होगी। पहले इस कमेटी के लिए सलमान खुर्शीद का भी नाम तय था, क्योंकि वे एक कुशल वकील भी हैं, पर उनकी ही ’पुस्तक बम’ ने उनकी बलि ले ली। आने वाले दिनों में वी.जॉर्ज को और भी ज्यादा प्रो-एक्टिव मोड में देखा जा सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, फिल्मकार, प्रिंट, ब्रॉडकास्ट और डिजिटल मीडिया में तीन दशकों से भी ज्यादा का अनुभव! मौजूदा में प्रतिष्ठित पार्लियामेंटेरेरियन पत्रिका के संपादक हैं)