ठोकरें भी जरूरी होती है मंजिल को पाने के लिए

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अंशु सारडा'अन्वि'
     अंशु सारडा’अन्वि’

अंशु सारडा’अन्वि’।  महान रूसी साहित्यकार मैक्सिम गोर्की के नाम से कौन साहित्य प्रेमी अपरिचित होगा। अपने अनेक उपन्यासों और साहित्यिक रचनाओं में से वे अपने उपन्यास ‘मां’ और अपनी आत्मकथा ‘मेरा बचपन’, ‘जीवन की राहों पर’, ‘मेरे विश्वविद्यालय’ के लिए अधिक जाने गए। उन्हें जब भी उनके प्रशंसक कहते कि वह बहुत अच्छा लिख रहे हैं, उनका उत्तर होता था कि-
‘मुझे यह तो नहीं पता कि मैं अपनी रचनाओं से बेहतर हूं भी या नहीं पर मुझे यह पता है कि हर रचनाकार को अपनी रचना से बेहतर और उच्चतर होना चाहिए। आखिर रचना क्या होती है….. एक महान रचना भी शब्दों की मृतप्राय काली छाया भर ही होती है। इसलिए एक बुरा आदमी भी एक अच्छी किताब से बेहतर होता है….इस पृथ्वी पर मनुष्य से बढ़कर कुछ भी नहीं।”
प्रत्येक व्यक्ति का जीवन हर दिन एक नई सीख के साथ आता है और वह सीख उसको कोई किताब नहीं दे जाती बल्कि उसके आसपास के लोग जिनसे उसका पाला पड़ता है, वे ही ठोकर देकर सिखाते हैं। इसलिए किसी से अपेक्षा क्यों? जबकि अधिकांशतः हमें जीवन में उपेक्षा ही मिलती है। और किसी से मिली उपेक्षा के बाद भी उससे अपेक्षा करना एक बड़ी ही मूर्खता का सबब है। इसलिए अपनी जिंदगी में प्रतिभागी और प्रतिद्वंद्वी दोनों हम खुद ही होते हैं। अपेक्षा न करें किसी से तभी उपेक्षा से आहत होने से बच सकते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति अपने और अपने परिवार के चारों तरफ सुविधाओं का एक मकड़जाल बुनकर रखता है कि उन्हें कोई तकलीफ न आने पाए। पर ऐसा हो नहीं पाता बल्कि यह देखा गया है और यह मेरा अपना अनुभव भी रहा है जो कि बार-बार और बराबर होता रहा है कि हम जिस चीज से, जिस बात से जितना भागना चाहते हैं और जितना नापसंद करते हैं, वह हमारे उतना ही नजदीक आती जाती है। शायद यह बात मैं पहले भी कहीं अपने लेख में लिख चुकी हूं और फिर दोहरा रहीं हूं। हम अपनी परेशानियों से, मुश्किलों से दूर रहने की कोशिश में अनेक सुविधाओं का दरवाजा और अवरोध लगाने की कोशिश करते रहते हैं पर समस्याएं या परेशानियां तो उन हवाओं की तरह होती है जिन्हें लाख चाहे जितना भी रोक लो उन्होंने आना है तो वह कहीं ना कहीं से दबे पांव जरूर आ ही जाएंगी। क्या करें? अवरोधों को, दरवाजों को एक बार खोल ही देना चाहिए क्या और हिम्मत और समझदारी से उन समस्याओं का सामना कर लेना चाहिए।
एक तीर भी जब छोड़ा जाता है तो उसे भी आगे जाने के लिए पीछे हटना ही पड़ता है। जितना पीछे हटा, उतना ही आगे को गया। बस ध्यान न चुके अपने लक्ष्य से और न ही इतना पीछे हटे की धागा ही टूट जाए। उम्मीद और आशा जरूर रखिए कि पीछे हटे हैं तो जरूर ही कुछ अच्छा होने को है इसलिए पीछे हटे हैं या कुछ ऐसा होने को है जो कि हमारे लिए अच्छा नहीं होगा इसलिए उससे बचने के लिए हमें दूर हटाया जा रहा है। अब जब समस्या सामने आ ही गई है तो कुछ देर का मानसिक विचलन स्वाभाविक होता है। पर चूंकि समस्या को खत्म करना अपने हाथ में नहीं होता है इसलिए समस्या का रोना रोने की जगह, दूसरे की मदद का इंतजार करने की जगह दीपक से सीख लेकर अपने थोड़ी सी रोशनी के सहारे ही उस समस्या से खुद-ब-खुद लड़ने का साहस करना चाहिए। साहस करने से रास्ते खुलेंगे भी और बंद भी मिल सकते हैं पर मन में यह विश्वास जरूर रखना चाहिए कि सामने जो भी परिस्थिति आएगी उससे हम टक्कर ले सकते हैं। देखिएगा और अनुभव कीजिएगा उस विषम परिस्थिति ने अगर हमें मुश्किलों के भंवर जाल में फंसाया है तो हमारे अंदर एक उत्तेजना, एक गर्मी, एक साहस भी पैदा किया है। तब हमें लगेगा कुछ तो सकारात्मक घटित हुआ है। लीक से हटकर, चलकर हमने एक मौलिक काम किया है। जब तक नदी के किनारे खड़े होते हैं, नदी के बारे में सिर्फ बात कर सकते हैं पर अनुभव नहीं बता सकते। पानी में उतरते ही अनेकों अनुभवों से दो -चार हो जाते हैं और अनुभवहीन व्यक्ति सिर्फ शाब्दिक यात्रा करता है और अनुभवजनित व्यक्ति अपने अनुभव से उपजे शब्दों की माला पिरोता है।
दीपावली के जले हुए दीपकों को जब हटाने के लिए उठाने लगी तो उसके जिस भाग ने बत्ती को अपने ऊपर जलाया था, वह काला हो गया था और शेष भाग जस का तस था। इसका मतलब चैतन्यता का, रोशनी का अर्थ तो खुद को तपाना ही हुआ न। इसका अर्थ समस्याओं पर विजय पाने के लिए समस्याओं से दो चार होना भी बहुत जरूरी है। यह हमारी अपनी जीवन गाथा है, इसका हर पन्ना खुद से, खुद के द्वारा, खुद के लिए लिखा जाना चाहिए और वह भी उत्कंठा के साथ। जिसमें पात्र बदलते रहते हैं, कहानी चलती रहती है। कुछ पात्र अपनी पसंद के होते हैं कुछ पसंद नहीं आते हैं। कुछ आपको पसंद करते हैं, कुछ नापसंद करते हैं पर फिर भी वे सभी साथ -साथ चलते जाते हैं। दिन गुजरता है, रात भी बीतती है और कब रास्ते एक होते हैं और कब उनके साथ रास्ते अलग भी हो जाते हैं, कोई नहीं जानता। जो छूट जाता है, अलग हो जाता है उसे घसीट कर फिर अपने साथ चलने के लिए नहीं पकड़ा जा सकता है। बल्कि ऐसा करना हमारी जिंदगी के सफर को और भी बोझिल बना सकता है। इसलिए नए मुसाफिरों के साथ जुड़ने और साथ चल रहे मुसाफिरों से बिछड़ने के लिए खुद को हमेशा ही तैयार रखना चाहिए।

” मुश्किलें और बुरे हालात जीना सिखा देते हैं जिंदगी,
ठोकरें भी जरूरी होती है मंजिल को पाने के लिए।”

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