क्या आधुनिकता की दौड़ में परिवार, प्रेम, घर, आदर्श, धर्म, संस्कृति जैसी बातें बेकार और बेनामी होती जा रही हैं? ऐसा नहीं है कि इस तरह की घटना पहली बार हुई हो कि वस्त्रों के आधार पर भेदभाव का मामला सामने आया हो। कभी ट्रेन में चढ़ने से रोक दिया जाता है, तो कभी मॉल में, तो कभी क्लब में घुसने से। क्या भारत का संविधान किसी को भी इस प्रकार के भेदभाव की या अपनी मर्जी के नियमों को बनाने की अनुमति देता है, जहां देसी वस्त्रों का और उसको पहनने वालों का अपमान किया जाए? क्या यह भारतीयता और किसी भी भारतीय नागरिक के मौलिक अधिकारों को चुनौती नहीं? क्या आजादी के 75 वर्षों बाद भी एक गुलाम मानसिकता के शिकार हैं हम? क्या आज भी हम ऐसे समाज में रहते हैं जहां अपने देश की पोशाक को स्मार्ट कैजुअल वेयरिंग का दर्जा नहीं है?
भारत में सिर्फ तमिलनाडु ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां पारंपरिक वेशभूषा को पहनने वालों को कहीं भी प्रवेश करने से रोकना कानूनन अपराध है। इसके अतिरिक्त किसी भी राज्य में इस तरह के कानून नहीं बनाए गए हैं। संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों का हनन पूरी तरह असंवैधानिक होता है। अब यह सोचना है कि भेदभाव सिर्फ रंग के, जाति के, आर्थिक आधार पर ही नहीं कपड़ों के आधार पर भी हो रहा है तो उसे कैसे रोका जा सकता है। भारत की लौह महिला इंदिरा गांधी से लेकर सुषमा स्वराज, निर्मला सीतारमण, स्मृति ईरानी, माननीय प्रतिभा पाटिल जैसी बड़ी हस्तियों ने साड़ी को अपने पूर्णकालिक परिधान के रूप में अपनाया भी और आत्मविश्वास के साथ अपने कार्य क्षेत्र में अपने आप को स्थापित भी किया है।