भारतीय परिधानों का अपमान क्यों?

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   * अंशु सारडा’अन्वि’     
     एक घटना शायद बहुत छोटी सी, हो सकता है आपकी नजर में आई भी नहीं होगी  या शायद ध्यान देने लायक नहीं लगी होगी क्योंकि आज कल जब तक कोई खबर सनसनीखेज, वी वी आई पी या ब्रेकिंग न्यूज़ ना हो तब तक हमारा ध्यान उस पर जाता ही नहीं है। खबर थी कि दिल्ली के एक रेस्तरां में एक महिला को सिर्फ इसलिए अंदर नहीं जाने दिया गया क्योंकि महिला अपने परंपरागत भारतीय परिधान साड़ी में थी। आप भी कहेंगे कि साड़ी में क्यों रेस्तरां में नहीं जाने दिया गया? आखिर हम भारत में रहते हैं। भारत की महिलाओं का यह तो परंपरागत परिधान है फिर आखिर उस में दिक्कत क्या हुई? रेस्तरॉ के कर्मचारियों का तर्क था कि साड़ी एक स्मार्ट कैजुअल वेयरिंग नहीं है इसलिए उस महिला को अंदर जाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। आश्चर्य लग रहा है ना आपको भी! आखिर इस स्मार्ट कैजुअल वेयरिंग की परिभाषा क्या है? परंपरागत भारतीय परिधान में धोती- कुर्ता, पायजामा, साड़ी, मेखला, फेरन,लूंगी, पूंछी, घाघरा -चोली, सलवार- कमीज आदि आते हैं। यें परिधान हमारे देश के पारंपरिक पहनावे का और संस्कृति का एक बहुत जरूरी भाग हैं। आखिर किसी भी देश की संस्कृति, संस्कार और सुंदरता उसके परिधानों में, लोकगीतों में, लोकाचारों  में ही तो झलकती है। तो फिर अपने ही देश में, अपने ही देश के परंपरागत परिधानों का विरोध क्यों? क्या हमारे देश का एक वर्ग आज भी गुलाम और गुलामी की मानसिकता से आजाद नहीं?

क्या आधुनिकता की दौड़ में परिवार, प्रेम, घर, आदर्श, धर्म, संस्कृति जैसी बातें बेकार और बेनामी होती जा रही हैं? ऐसा नहीं है कि इस तरह की घटना पहली बार हुई हो कि वस्त्रों के आधार पर भेदभाव का मामला सामने आया हो। कभी ट्रेन में चढ़ने से रोक दिया जाता है, तो कभी मॉल में, तो कभी क्लब में घुसने से। क्या भारत का संविधान किसी को भी इस प्रकार के भेदभाव की या अपनी मर्जी के नियमों को बनाने की अनुमति देता है, जहां देसी वस्त्रों का और उसको पहनने वालों का अपमान किया जाए? क्या यह भारतीयता और किसी भी भारतीय नागरिक के मौलिक अधिकारों को चुनौती नहीं? क्या आजादी के 75 वर्षों बाद भी एक गुलाम मानसिकता के शिकार हैं हम? क्या आज भी हम ऐसे समाज में रहते हैं जहां अपने देश की पोशाक को स्मार्ट कैजुअल वेयरिंग का दर्जा नहीं है?

       ऐसा हम कई बार देखते हैं और ये हमारे अपने अनुभव भी रहे होंगे कि चप्पल पहनने के कारण डिस्को, बार, लाउंज, बड़े होटल आदि में प्रवेश नहीं मिलता है। हमारी स्वदेशी वेशभूषा हमारी संस्कृति और संस्कारों की पहचान होती है। साधारण या आम आदमी की बात को अगर किनारे कर भी दे तो इस तरह का घटनाक्रम सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज के साथ भी  घटित हुआ है जब उन्हें भी क्रिकेट क्लब में प्रवेश करने से रोक दिया गया है क्योंकि वे परंपरागत पोशाक में थे। ठीक है कि वर्तमान के लिए अतीत का मूल्यांकन आवश्यक है लेकिन मुद्दा केवल वर्तमान परिस्थितियों से निपटने का नहीं बल्कि मानसिकता में बदलाव का है। यहां तक कि कई बार ऐसा भी हमारे साथ होता रहा है कि फाइव स्टार होटल में हम खुद ही अपने टू व्हीलर्स को अंदर नहीं ले जाते हैं। एक तो हमारी अपनी छोटे दिखने की मानसिकता की गुलामी और दूसरे इन पांच सितारा होटलों की टू व्हीलर्स को प्रवेश न देने की नीतियां भी तो हमें इस छोटा दिखने की मानसिकता का एहसास कराती हैं। अब मूल प्रश्न यह है कि क्या देश में रहकर भी देश के नागरिकों को अपनी देश की पारंपरिक वेशभूषा पहनने का अधिकार नहीं? क्या पांच सितारा होटल, मॉल या रेस्तरां इस प्रकार की नीति निर्धारण करने वाले होते हैं? क्या हम अभी भी उस अंग्रेजियत में बंधी गुलाम मानसिकता के चक्रव्यूह में और अधिक फंसते जा रहे हैं? अपने पारंपरिक परिधान सामान्य जीवनचर्या में पहनना क्या एक आउटडेटेड, ओल्ड फैशन्ड माइंडसेट को दिखाता है?

       याद आया है मुझे कि मेरे दादाजी सफेद झक धोती- कुर्ता पहन कर, सर पर  टोपी लगाए क्या शान से निकला करते थे और जीवन पर्यंत यही उनकी वेशभूषा रही। तो क्या आज पारंपरिक कपड़ों को सिर्फ पारंपरिक त्यौहारों या पारंपरिक जगहों तक ही सीमित कर देना चाहिए? आज भी हमारे घरों में महिलाएं साड़ी पहना करती हैं। तो फिर बड़े शहरों या बड़े होटल या सोसाइटी में पारंपरिक वेशभूषा पहनने वालों को नौकर, काम वाली बाई या गांव वाला जैसे अपमानजनक शब्दों का सामना क्यों करना पड़ता है? यह प्रत्येक व्यक्ति की अपनी इच्छा और आवश्यकता है कि उसे कब, क्या पहनना चाहिए। आखिर देश का संविधान इस बात का प्रत्येक नागरिक को मौलिक अधिकार देता है। पर यह अफसोस की बात है कि कहीं तो हम इतने पारंपरिक और कट्टर बन जाते हैं कि अपने घर की बहुओं को साड़ी के अतिरिक्त अन्य कोई परिधान पहनने की इजाजत नहीं देते हैं, वह भी सिर पर घूंघट लेकर तो कहीं शौकिया पारंपरिक कपड़ों का उपहास उड़ता हुआ भी देखते ही रहते हैं, मौन रहकर।

भारत में सिर्फ तमिलनाडु ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां पारंपरिक वेशभूषा को पहनने वालों को कहीं भी प्रवेश करने से रोकना कानूनन अपराध है। इसके अतिरिक्त किसी भी राज्य में इस तरह के कानून नहीं बनाए गए हैं। संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों का हनन पूरी तरह असंवैधानिक होता है। अब यह सोचना है कि भेदभाव सिर्फ रंग के, जाति के, आर्थिक आधार पर ही नहीं कपड़ों के आधार पर भी हो रहा है तो उसे कैसे रोका  जा सकता है। भारत की लौह महिला इंदिरा गांधी से लेकर सुषमा स्वराज, निर्मला सीतारमण, स्मृति ईरानी, माननीय प्रतिभा पाटिल जैसी बड़ी हस्तियों ने  साड़ी को अपने पूर्णकालिक परिधान के रूप में अपनाया भी और आत्मविश्वास के साथ अपने कार्य क्षेत्र में अपने आप को स्थापित भी किया है।

        आपने देखा होगा कि जब विदेशी सैलानी हमारे देश में आते हैं वे भारतीय परिधानों को पहनना भी पसंद करते हैं और पहनने वालों की फोटोग्राफी भी करते हैं। तब हम कैसे पीछे मुड़कर उनको आश्चर्य से देखा करते हैं। आधुनिक होने का अर्थ ज्ञान और अनुभव की उपेक्षा नहीं, धार्मिक विश्वास और जीवन पद्धति का उपहास भी नहीं बल्कि विचार पद्धति के खोखलेपन को दूर करना होता है। विचारों में आधुनिकता जरूरी है, अज्ञानता नहीं। अतः देश के पारंपरिक वस्त्रों का सम्मान भी उतना ही आवश्यक है जितना भारतीय राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे का। आखिरकार देश की गौरवशाली संस्कृति पर ही तो देश का ध्वज शान से खड़ा हो सकता है।
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