गृह निर्माण मे वैदिक ऋषि की दूरदर्शिता

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सुबोध कुमार।

AV6.106 आदर्शगृह व्यवस्था अथर्व 6.106

साधारण तौर पर, ज्वालामुखी अग्नि से सुरक्षा और अत्यंत शीतकाल में सुखदायक घर ।

1. आयने ते परायने दूर्वा रोहन्तु पुष्पिणीः ।

उत्सो वा तत्र जायतां ह्रदो वा पुण्डरीकवान् । ।AV6.106.1

हे शाले! (ते) तेरे (आगमे परायणे) सामने से अन्दर आने के मार्ग और पीछे से बाहर जाने के मार्ग में (पुष्पिणी: दुर्वा:) फूल और घास (रोहन्तु) उगें। (वा तत्र उत्स: जायताम्‌) और वहां फुवारे झरने भी हों , (वा) या (पुण्डरिकवान्‌ हृद:) वहां कमल से युक्त सरोवर हों ॥ अथर्व6.106.1॥

2. अपां इदं न्ययनं समुद्रस्य निवेशनं ।

मध्ये ह्रदस्य नो गृहाः पराचीना मुखा कृधि । ।AV6.106.2

(इदम्‌) यह (अपाम्‌) प्रजाओं का (न्ययनम्‌) निवास- स्थान (समुद्रस्य निवेशनम्‌) समुद्र की सी स्थिति में हो। (न: गृहा:) हमारे घर (हृदस्य मध्ये) तालाब के मध्य में हों । अपने गृहों को (मुखा:) ज्वालारूपी अग्नि से (पराचीना कृधि) अग्निदाह का भय नहीं होता ॥ अथर्व6.106.2॥

3. हिमस्य त्वा जरायुणा शाले परि व्ययामसि ।

शीतह्रदा हि नो भुवोऽग्निष्कृणोतु भेषजं । ।AV6.106.3

हे (शाले) निवास स्थान जब (त्वा हिमस्य) तुम हिम शीत से (परिव्ययमासी) चारो ओर से घिरे हो तब (शीतहृदा: भुव) शीतल जल से घिरी हो और (अग्नि: भेषजम्‌ कृणोतु) अग्नि के समान सुरक्षा प्राप्त हो ॥अथर्व.6.106.3॥
✍🏻सुबोध कुमार

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