भारतीय स्थापत्य शास्त्र – 1

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श्रीकृष्ण जुगनू।

वास्तु ! भारत की अद्भुत देन

📚 देश ही नहीं, अब दुनिया में भी एक आवश्यकता हो गया है भारतीय वास्तु शास्त्र। मिस्र, मारिशस, कम्बोडिया आदि के साथ रूस में भारतीय वास्तु शास्त्र के पठन पाठन और अभ्यास की खास चेतना जागी है।

फेंगशुई के चक्र को निराधार समझ कर भारतीय ज्ञान विरासत पर वैश्विक समुदाय के विश्वास का यह एक बड़ा उदाहरण है। चीन इस मोर्चे पर अविश्वनीय… हो भी क्यों नहीं? भारत के पास इस तकनीकी और जनोपयोगी विषय की लगभग 100 किताबें हैं…

पांडवों की सभा : मयशिल्प का कौतुक

🎯शिल्पकार के रूप में मय ने भवन निर्माण के लिए ऐसीविधियां प्रयोग में ली कि जहां द्वार नहीं था, वहां द्वार प्रतीत होता और जहां पानी नहीं था, वहां पानी… आभासी दुनिया का अपूर्व प्रयोग था।

📒  मय के वास्तु, शिल्प मत कैकई देश से सिंहल तक अनेक सदियों तक प्रचलन में रहे। महाभारत के सभा पर्व और रामायण के युद्ध कांड में मय के शिल्प प्रसंग सच में बड़े प्रेरक रहे। और, मय के ग्रंथों का विशिष्ट हिंदी अनुवाद और संपादन हुआ :

• मयमतम् (36 अध्याय) • मयशास्त्रम् (5 अध्याय)

• मयसंग्रह ( मूर्ति विधा)  • तच्चु शास्त्र और

• मयदीपिका (रत्न, धातु व मूर्तिशास्त्र)


विश्‍वकर्मा और उनके शास्‍त्र

(संदर्भ : विश्‍वकर्मा ग्रंथों पर निरंतर आयोजन)

यह मेरे लिए प्रसन्नता का विषय है कि कल तक जो शिल्प और स्थापत्य के ग्रंथ केवल शिल्पियों के व्यवहार तक सीमित और केन्द्रित थे, उन पर आज अनेक संस्थानों से लेकर कई विश्व विद्यालयों तक ज्ञान सत्र आयोजित होने लगे हैं, सेमिनार, राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियां, वेबीनार आदि होने लगे हैं। अनेक विद्वानों की भागीदारी होने लगी हैं। शिल्प के ये विषय पाठ्यक्रम के विषय होकर रोजगार और व्यवहार के विषय हुए हैं।

शिल्‍प और स्‍थापत्‍य के प्रवर्तक के रूप में भगवान् विश्‍वकर्मा का संदर्भ बहुत पुराने समय से भारतीय उपमहाद्वीप में ज्ञेय और प्रेय-ध्‍येय रहा है। विश्‍वकर्मा को ग्रंथकर्ता मानकर अनेकानेक शिल्‍पकारों ने समय-समय पर अनेक ग्रंथों को लिखा और स्‍वयं कोई श्रेय नहीं लिया। सारा ही श्रेय सृष्टि के सौंदर्य और उपयोगी स्‍वरूप के र‍चयिता विश्‍वकर्मा को दिया।

उत्तरबौद्धकाल से ही शिल्‍पकारों के लिए वर्धकी या वढ़्ढी संज्ञा का प्रयोग होता आया है। ‘मिलिन्‍दपन्‍हो’ में वर्णित शिल्‍पों में वढ़ढकी के योगदान और कामकाज की सुंदर चर्चा आई है जो नक्‍शा बनाकर नगर नियोजन का कार्य करते थे। यह बहुत प्रामाणिक संदर्भ है, इसी के आसपास सौंदरानंद, हरिवंश आदि में भी अष्‍टाष्‍टपद यानी चौंसठपद वास्‍तु पूर्वक कपिलवस्‍तु और द्वारका के न्‍यास का संदर्भ आया है। हरिवंश में वास्‍तु के देवता के रूप में विश्‍वकर्मा का स्‍मरण किया गया है…।

प्रभास के देववर्धकी विश्‍वकर्मा यानी सोमनाथ के शिल्पिकारों का संदर्भ मत्‍स्‍य, विष्‍ण्‍ाु आदि पुराणों में आया है जिनके महत्‍वपूर्ण योगदान के लिए उनकी परंपरा का स्‍मरण किया गया किंतु शिल्‍पग्रंथों में विश्‍वकर्मा को कभी शिव तो कभी विधाता का अंशीभूत कहा गया है। कहीं-कहीं समस्‍त सृष्टिरचना को ही विश्‍वकर्मीय कहा गया।

विश्‍वकर्मावतार, विश्‍वकर्मशास्‍त्र, विश्‍वकर्मसंहिता, विश्‍वकर्माप्रकाश, विश्‍वकर्मवास्‍तुशास्‍त्र, विश्‍वकर्म शिल्‍पशास्‍त्रम्, विश्‍वकर्मीयम् … आदि कई ग्रंथ है जिनमें विश्‍वकर्मीय परंपरा के शि‍ल्‍पों और शिल्पियों के लिए आवश्‍यक सूत्रों का गणितीय रूप में सम्‍यक परिपाक हुआ है। इनमें कुछ का प्रकाशन हुआ है। समरांगण सूत्रधार, अपराजितपृच्‍छा आदि ग्रंथों के प्रवक्‍ता विश्‍वकर्मा ही हैं। ये ग्रंथ भारतीय आवश्‍यकता के अनुसार ही रचे गए हैं।

इन ग्रंथों का परिमाण और विस्‍तार इतना अधिक है कि यदि उनके पठन-पाठन की परंपरा शुरू की जाए तो बरस हो जाए। अनेक पाठ्यक्रम लागू किए जा सकते हैं। इसके बाद हमें पाश्‍चात्‍य पाठ्यक्रम के पढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़े। यह ज्ञातव्‍य है कि यदि यह सामान्‍य विषय होता तो भारत के पास सैकड़ों की संख्‍या में शिल्‍प ग्रंथ नहीं होते। तंत्रों, यामलों व आगमों में सर्वाधिक विषय ही स्‍थापत्‍य शास्‍त्र के रूप में मिलता है। इस तरह से लाखों श्‍लोक मिलते हैं। मगर, उनको पढ़ा कितना गया। भवन की बढ़ती आवश्‍यकता के चलते कुकुरमुत्ते की तरह वास्‍तु के नाम पर किताबें बाजार में उतार दी गईं मगर मूल ग्रंथों की ओर ध्‍यान ही नहीं गया…। इस पर लगभग सौ ग्रंथों का संपादन और अनुवाद मैंने किया है और कर रहा हूं।

विश्‍वकर्मा के चरित्र पर स्‍वतंत्र पुराण का प्रणयन हुआ। पिछले वर्षों में ‘महाविश्‍वकर्मपुराण’ का प्रकाशन हुआ।

जय-जय।

✍🏻श्रीकृष्ण जुगनू

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