अंशु सारडा’अन्वि’।
जब इस कॉलम को कागज-कलम लेकर लिखने बैठती हूं तब न जाने कितने विषयों के विचारों की लहरें दिमाग में ठोकर मार रही होती हैं क्योंकि आंखें दिमाग तक वह सब कुछ पहुंचा चुकी होती हैं जो वह देख रही होती हैं, पढ़ रही होती हैं। अब इस मंथन में विषय वही जीतता है, जिसके विचारों का प्रभाव अधिक प्रबल होता है। इस समय में घूम रहे हैं दिमाग में बहुत से विचार, कोरोना काल में बुजुर्गों की स्थिति, नहीं-नहीं उन किशोरो की स्थिति जो ऊर्जावान होकर भी घर में ऐसे समय में ऊर्जाहीन होकर बैठे हैं, उन बच्चों की स्थिति जिन्होंने अपने माता-पिता दोनों या उनमें से किसी एक को खो दिया है इस विभीषिका में या लिखूं उस महिला की स्थिति जो या तो अपने या अपने पति के इलाज के लिए अस्पताल में हैं पर फिर भी शिकार बन रही है शारीरिक हवस का, मानसिक प्रताड़ना का। जमाने की गंध भरी सच्चाई लिखूं या दिल को भरमाता सकारात्मक लेख? जब अतीत की ओर मुड़कर देखती हूं तब अतीत नित नूतन, नवीन लगता है और जब भविष्य को देखती हूं तब….अरे! ऐसा क्यों? यह आजकल हमेशा उदासीन क्यों लगने लगा है। अपने पौधों को देखती हूं कुछ छोटे-बड़े पौधों की पत्तियां इतनी गर्मी में पानी की कमी से उदास, मुंह लटकाए हुए हैं तो कुछ छोटे-बड़े पौधे उसी गर्मी में पानी की कमी में भी दृढ़ता के साथ खड़े हैं। परिस्थितियां समान, पोषण समान और देखभाल भी समान, बस फर्क संवेदनशीलता का है। यह संवेदनशीलता भी इस समय मास्क लगाए मुंह छुपाए कहीं छुपी बैठी है। कहीं बात ब्लैक फंगस की तो कहीं व्हाइट फंगस की हो रही है पर बात तो यहां सबसे बड़ी समूचे सामाजिक ढांचे को फंगस लगने की नजर आ रही है।
लोग, संस्थाएं ऑक्सीजन सिलेंडर मुहैया कराने में जुटे हैं, प्लाज्मा दान देने की अपील हो रही है। पिछले वर्ष इन दिनों जहां राशन वितरण व्यवस्था को लेकर जद्दोजहद चल रही थी, वहीं इस बार वैक्सीन लगाने को लेकर है जो कि सबके लिए नितांत आवश्यक है। मातम अभी भी पसरा हुआ है चारों ओर, पर अब रोते को कोई चुप कराने वाला भी नहीं। अरे यह क्या दूर सड़क से आवाज आ रही है, “हरि बोल”। धन्य है वह व्यक्ति जिसको इस विभीषिका के दौर में अंत समय में चार कंधे और हरि बोल का स्वर अंतिम यात्रा में मिला अन्यथा सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो चला है और शव को चार कंधों का भरोसा छोड़ सही रूप से अंतिम क्रिया हो जाए उसका भी ठिकाना नहीं है। और हमारी अपनी परिधि सिकुड़ कर हमें और अधिक संकीर्ण कर दे रही है। अब चुनौती चतुर्दिक है जहां खुद को जिंदा रखने की चुनौती है वहीं रोजी-रोटी बचाने की भी चुनौती है तथा सामाजिक ताने-बाने को बचाने के साथ-साथ इस दहशत से मनोवैज्ञानिक तौर पर निपटने की चुनौती भी खड़ी है। लगता है ऑक्सीजन सिलेंडर के साथ-साथ तनाव को दूर करने के सिलेंडर की भी आपूर्ति करनी होगी या लंगर लगाना होगा। सरकारें कहती हैं घर से बाहर ना निकले, पर मानव जरूरत कहती है कि निकले बिना भूख-प्यास जैसी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे संभव है। प्रसिद्ध मानवतावादी मनोवैज्ञानिक अब्राहम मास्लो की निम्नांकित पंक्तियां आज के हालात पर सटीक बैठती हैं-
” या तो आप विकास के कदम आगे बढ़ाएंगे
या आप सुरक्षा में कदम पीछे ले आएंगे।”
अब प्राथमिकताएं हमारी हैं कि हमारी आवश्यकताएं वाकई में क्या है? सबसे पहली भूख-प्यास जैसी दैहिक जरूरतें हैं, दूसरी सुरक्षा की जरूरत, तीसरी हमारी भावनात्मक जरूरत, चौथी हमारी आत्म-सम्मान की जरूरत है और आखिरी जरूरत है- जिंदगी के अर्थ को तलाशने की, समझ के विकास की। ये किसी भी इंसान की वें जरूरतें हैं जो उसके आगामी जीवन की दिशा और दशा दोनों तय करती हैं। हालांकि आलोचनाओं से परे कुछ भी नहीं, यह जरूरत का सिद्धांत भी नहीं। पर हां समय की आवश्यकताओं के अनुसार हमारी प्राथमिकताएं एक दूसरे की जगह का अतिक्रमण जरूर करती रहती हैं जो कि एक बार फिर पर्सन टू पर्सन भिन्न हो सकती हैं। पर एक बात तो है कि इस समय रोटी और कपड़े की जरूरत के साथ-साथ बेहतरीन चिकित्सा सुविधाओं की जरूरत भी हमारी प्राथमिकता बन चुकी है।
प्रत्येक व्यक्ति निराश है, उसकी समस्या सबसे बड़ी, ऐसा उसको लगता है। कहानी स्मरित हो आई, अपनी परेशानियां कागज पर लिखकर, बंदकर एक दूसरे से बदल कर के देखिए। बदल कर देखिए अपनी परेशानियों को डॉक्टरों, नर्सों, मीडिया कर्मियों, सैनिकों और पुलिस वालों के साथ जिनका कोई वर्क फ्रॉम होम नहीं, जिनके ऊपर तमाम तरह की जिम्मेदारियां हैं। बदल कर के देख पाएंगे क्या आप? उनके ऊपर के तनाव को जब हम महसूस करेंगे तब हमें हमारी समस्या खुद-ब-खुद छोटी ही नजर आएगी। महात्मा गौत्तम बुद्ध ने भी कहा है कि
“जीवन वह नहीं है जो हमें मिला है, वरन् वह है जो हम इसे बना रहे हैं।”
जीवन को गतिशीलता देना, जीवन को प्रेरणा देना, जीवन को जिम्मेदारी देना जरूरी है। जीवन कला है तो जीवन विज्ञान भी है, जीवन को गणित की संख्या नहीं बनाना है। जीवन सुंदरता भी है तो जीवन प्रयोग भी है पर जोड़-घटाव होने के बाद भी अंकगणित नहीं है। और इतनी निराशाजनक परिस्थिति में भी आप खुद अपने प्रेरणा स्रोत हैं, आप खुद अपने लिए एक रोशनी हैं, यह विश्वास खुद को खुद पर ही रखना है। 26 मई, बुद्ध पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ अंत में पूरे लेख का सार सिर्फ एक पंक्ति में उद्धृत किया जा सकता है-
” अप्प दिपो भव:…. सम्मासती”
‘ अपने दीए खुद बनो, स्मरण करो कि तुम भी एक बुद्ध हो।’
