सनातन धर्म की दिग्विजय यात्रा

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आचार्य लोकेन्द्र

वैशाख शुक्ल पंचमी,,,,,

आज की तिथि थी…जब
केरल के एक छोटे से गाँव कालड़ी से वो प्रकाश की किरण निकली जिसने अवैदिक मान्यताओं के गहन अंधकार में जाते हुए भारतवर्ष में पुन: सनातन धर्म का प्रकाश किया और सनातन विरोधी समस्त शक्तियों को परास्त किया..

केरल से कश्मीर, पुरी (ओडिशा) से द्वारका (गुजरात), श्रृंगेरी (कर्नाटक) से बद्रीनाथ (उत्तराखंड) और कांची (तमिलनाडु) से काशी (उत्तरप्रदेश) तक,,

हिमालय की तराई से नर्मदा-गंगा के तटों तक और पूर्व से लेकर पश्चिम के घाटों तक उन्होंने यात्राएं करते हुए, अवैदिक मतावलम्बियों को शास्त्रार्थ में पराजित करते हुए अपना सम्पूर्ण जीवन वैदिक सनातन धर्म की सेवा में लगा दिया….

हम सब सनातन धर्मी ऋणी हैं उन भगवान शंकराचार्य के…
जिन्होंने मृतप्राय होने जा रहे सनातन धर्म को जीवंत कर दिया..

बाल्यावस्था से ही असाधारण प्रतिभा और संसार के प्रति वैराग्य उन्हें विशेष बनाता था…
अल्पायु में आचार्य शंकर ने पिता शिवगुरु के सान्निध्य में ही विविध भाषाओं तथा शास्त्रों को सीख लिया था…

आद्य जगद्गुरू भगवान शंकराचार्य ने शैशव में ही संकेत दे दिया कि वे सामान्य बालक नहीं है।
सात वर्ष के हुए तो वेदों का अध्ययन और बारहवें वर्ष में सर्वशास्त्र अध्ययन और सोलहवें वर्ष में ब्रह्मसूत्र- भाष्य रच दिया।

उन्होंने, अष्टोत्तरसहस्रनामावलिः, उपदेशसहस्री, चर्पटपंजरिकास्तोत्रम्‌, तत्त्वविवेकाख्यम्, दत्तात्रेयस्तोत्रम्‌
द्वादशपंजरिकास्तोत्रम्‌, पंचदशी आदि #शताधिक ग्रंथों की रचना, शिष्यों को पढ़ाते हुए कर दी।

लुप्तप्राय सनातन धर्म की पुनर्स्थापना,, शास्त्रार्थ करते हुए
तीन बार भारत भ्रमण, शास्त्रार्थ दिग्विजय, भारत के चारों कोनों में चार शांकर मठ की स्थापना, चारों कुंभों की व्यवस्था, वेदांत दर्शन के दशनामी नागा संन्यासी अखाड़ों की स्थापना, आदि बहुत से कार्य आचार्य शंकर ने किए….

वैदिक धर्म के प्रचार के लिए चिद्विलास, विष्णु गुप्त, हस्तामलक, समित पाणि, ज्ञानवृन्द, भानु गर्भिक, बुद्धि विरंचि, त्रोटकाचार्य, पद्मनाम, शुद्धकीर्ति, मंडन मिश्र, कृष्ण दर्शन आदि उद्भट विद्वानों को संगठित कर उनके सहयोग से वेद धमार्नुयायियों की एक विशाल धर्म सेना बनायी।….

नास्तिकतावाद के अंहकार को कुचलने के लिए ईश्वर की सत्ता सिद्ध करने हेतु उन्होंने अद्वैत ब्रह्म का सहारा लिया जो तात्कालिक रूप से जल्प वितण्डा होते हुए भी पौधे की रक्षा हेतु लगाये कांटों की बाड़ के समान सही था।

देशभर में आचार्य शंकर के इन सतत प्रयत्नों का फल यह हुआ कि जनता के मानस में धर्म सम्बन्धी जो भी भ्रान्तियां घर कर रही थीं, वे सब दूर होने लगीं।सनातन धर्म पुन : प्रतिष्ठापित होने लगा…

इनके अतिरिक्त आचार्य शंकर ने एक जो सबसे बड़ा कार्य किया उससे कम ही लोग परिचित हैं….
राजा सुधन्वा को उन्होंने वैदिक धर्म का ध्वज सम्पूर्ण विश्व में लहराने के लिए दिग्विजय की आज्ञा दी….

सम्राट सुधन्वा अवन्ति के शासक थे। माहिष्मती नगरी उनकी राजधानी थी… इस क्षेत्र को वर्तमान में माहेश्वर के नाम से लोग जानते हैं…

गुरु आदि शंकराचार्य की शिक्षा और प्रेरणा एवं राजा सुधन्वा का पराक्रम एवं शौर्य (शास्त्र और शस्त्र) दोनो के गठबंधन ने सनातन धर्म ध्वजा को विश्व की चारो दिशाओ में लहराकर भारत विश्व विजय का स्वर्णिम इतिहास रचा था।

आचार्य चाणक्य और चन्द्रगुप्त की कहानी ज्ञात है पर आचार्य शंकर एवं राजा सुधन्वा के इतिहास से लोग अभी भी अनभिज्ञ हैं….

मठाम्नाय – महानुशासनम : यह ग्रन्थ आदिशंकराचार्य द्वारा प्रणीत हैं,, तथा श्रृंगगिरी (श्रृङ्गेरी) मठ के लिए प्रमाणभूत है। इसमें भी राजा सुधन्वा का उल्लेख आदि शंकराचार्य जी ने किया है।

जीवन के अंतिम क्षण तक,,अहर्निश वैदिक सनातन धर्म का प्रचार करते रहे ,, भारत की संस्कृति को बचाते दुष्ट जनों के षड़यंत्र से 32 वर्ष की आयु में ही शरीर से पृथक हो गए.. ..

इस सनातन धर्म और संपूर्ण भारतवर्ष पर अमूल्य ऋण है भगवान शंकराचार्य का….
आद्य श्री शंकराचार्य जी को नमन।
✍️आचार्य लोकेन्द्र

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