अंशु सारडा’अन्वि’।
आज फिर एक नया रविवार है, मई महीने का दूसरा रविवार यानी अंतरराष्ट्रीय मातृ दिवस। सभी को बहुत-बहुत बधाई। आशानुरूप आप सोच रहे होंगे कि मैं आज इसी विषय पर लिखने वाली हूं पर यहां मैं पिछले सप्ताह पढ़ी गई एक पोस्ट साझा कर रही हूं।
” यदि आपकी रूचि खेलों में है तो आपने लॉन टेनिस के महान खिलाड़ी ऑर्थर ऐश का नाम जरूर सुना होगा, तीन बार के ग्रैंड स्लैम विजेता। सन 1983 या उसके आसपास उनके दिल के ऑपरेशन के दौरान उन्हें गलती से संक्रमित रक्त चढ़ा दिया गया और वे एड्स की चपेट में आ गए। उनके किसी प्रशंसक ने पूछा, “आर्थर, तुम ही क्यों?” ऐश ने कहा, ” दुनिया में कोई पांच करोड़ बच्चे टेनिस सीखने की कोशिश करते होंगे, पचास लाख बच्चे टिके रहते हैं, पांच लाख प्रोफेशनल के स्तर तक पहुंचते होंगे, पांच हजार को टीम में जगह मिलती होगी, 50 विम्बलडन तक आ पाते हैं, दो फाइनल खेलते हैं और अंत में एक ट्रॉफी उठाता है। जब मैं जीता तो मैंने भगवान से यह नहीं कहा, मैं ही क्यों? तो अब मैं क्यों कहूं कि मैं ही क्यों?”
कहानी का सार यह है कि जब सुख में हम भगवान को याद करके धन्यवाद नहीं देते कि मुझे ही सुख क्यों मिला तो कष्ट- परेशानी के समय में भी हमें भगवान पर दोषारोपण करने का अधिकार नहीं है। मैंने अपने आस-पास अपने कई मित्रों को देखा है, यहां तक कि मैं खुद भी इस उपक्रम का हिस्सा रहीं हूं कि जब -जब कठिनाइयों का दौर आता है, हम साथ -साथ शिकायतों का दौर भी शुरू कर देते हैं। एक तरफ तो हमारे शारीरिक- मानसिक तनाव का कारण यह बाहरी कठिनाइयां हैं और दूसरी ओर इन पर हम शिकायतों का छौंका लगाकर, उसकी तीव्रता को द्विगुणित कर देते हैं। हम में से हर एक आदमी को यह तो जरूर ही पता होता है कि दूसरे लोगों को अपनी जिंदगी को कैसे जीना चाहिए या जीना है पर उन्हें अपने बारे में कुछ भी नहीं पता होता है। वे दूसरे की जिंदगी के विषय में टीका -टिप्पणी कर लेंगे पर अपने गिरेंबान तक किसी का हाथ पहुंच जाए, यह उन्हें कतई गवारा नहीं। एक पत्थर की लकीर जैसी खींच देना चाहते हैं वे दूसरों के लिए, उनके विषय में अपनी ओर से और उम्मीद भी करते हैं कि यही सच माना जाए। पर खुद की उनकी पत्थर की लकीर हर परिस्थिति, स्थिति, देश -काल के परिवर्तन के हिसाब से बनती -बिगड़ती रहती है। असल में समझाने की प्रक्रिया जितनी सरल है, समझने की प्रक्रिया उतनी ही कठिन होती है। कुछ ऐसा ही दृश्य देखने को मिला एक वैक्सीनेशन सेंटर में, जहां वैक्सीनेशन के लिए इंतजार करने वालों को इंतजार का समय भारी लग रहा था, वहीं वैक्सीन लगवाने के कार्य में लगे कार्यकर्ताओं के लिए हर आदमी एक भीड़ का हिस्सा था, एक गिनती थी और दोनों ही आतंकित थे अपने -अपने काम को पूरा हो जाने को लेकर। तो जाहिर ऐसे में तनाव की स्थितियों को बनने से कोई नहीं रोक सकता। ऐसे माहौल में दोनों पक्ष एक दूसरे पर दोषारोपण करने में लग जाते हैं। गलती किसकी रही, यह समझने और समझाने की प्रक्रिया एक बार फिर कठिन हो जाती है। हम सब ज्योतिषी बने फिरते हैं, दूसरों की हथेलियां देखना, चाल -ढाल देखना हमें बड़ा ही पसंद आता है पर अपना नंबर आते ही, उसे साफ रखने के नाम पर हम बिदक जाते हैं।
असल में सबसे ज्यादा जरूरी है कि हम अपने मन द्वारा पैदा की जा रही अव्यवस्था को नियंत्रित करें। नकारात्मक विचार आज के समय में स्वभाविक है, जब हम खुद या हमारा कोई प्रियजन नकारात्मक परिस्थितियों का शिकार हो नकारात्मकता के जाल में फंस जाता है। वह क्या कर रहा है उस समय में, इस से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि आपने क्या किया उस समय में, नकारात्मकता के जाल को और फैलाने में सहायक बने या सकारात्मकता से उसका उपाय किया हमने। हम परिस्थितियों को अनुकूल बनाने की आखिरी सांस तक कोशिश कर सकते हैं और करते भी हैं पर इन परिस्थितियों से डरने या लड़ने की बजाय उसको स्वीकार कर लेना भी तो जरूरी है। खुद को सकारात्मक एवं दूसरों को सकारात्मक रखना दोनों ही सीखना और सिखाना जरूरी है। जहां हमारी सावधानी हटी इन परिस्थितियों में, हमारे ऊपर हमारा दुश्मन तो घात लगाए बैठा ही है। वह तो इसी फिराक में कि कब हम कुछ ढील दे अपनी जिंदगी में और वह प्रतिघात को तैयार हो जाए। अब यहां अपनी शिक्षा कितनी काम आती है, उसके साथ- साथ प्रकृति ने हमें क्या सिखाया, इस कठिन दौर में वह भी बहुत जरूरी है सीखना। सीखना है तो बच्चों से सीखना चाहिए, न तो वे खुद खाली बैठते हैं और न ही हमें खाली बैठने देते हैं। बिना कोई कारण के खुश भी हो जाते हैं और सबसे बढ़कर एक सकारात्मक विचार जो वे दे जाते हैं कि जो चाहिए उसे पूरी ताकत के साथ कैसे हासिल किया जाए, अपने सारे संसाधनों का वे उसमें प्रयोग कर लेते हैं। तो हमें भी अपने अंतिम संसाधन के पास रहने तक नकारात्मकता के वातावरण में नहीं घिरना है और सकारात्मक बने रहना है।
और हां, मानव जो कि हमेशा खुद को सबसे ज्यादा शक्तिशाली होने का दंभ भरता रहा है, इस समय वह अपने घुटनों पर है। जिससे हमें यह समझना जरूरी है कि जो खुद को सबसे ज्यादा शक्तिशाली होने का दिखावा करता है दरअसल सबसे बड़ा शक्तिहीन तो वह ही होता है और हां यहां एक और मजे की बात है कि हम लोग खुद से सकारात्मक संभावनाओं को तैयार भी नहीं करते हैं बल्कि हम दूसरों से उस सकारात्मक जवाब की अपेक्षा भी कर लेते हैं जो कि सारी समस्याओं के लिए उत्तरदायी है। अब यहां च्वाइस हमारी है कि जिंदगी को साथ- साथ जीना है, तकलीफों के लिए ऊपर वाले को शिकायत करें बिना या शिकायत करते -करते नकारात्मक हवाओं में फंस कर स्वयं को चोट पहुंचाकर जीना चाहते हैं हम। इस समय जीवन से हमारी अपेक्षाओं से अधिक जरूरी है कि जीवन की हम से क्या अपेक्षाएं हैं। इसलिए अपने काम को, अपने स्वयं को पूरी अहमियत देना, नई बातों, नए विचारों से नया कुछ करना अपनी पूरी दुगुनी ताकत के साथ, जिससे हर एक नये दिन की शुरुआत एक नई ऊर्जा के साथ हो…..
