क्योंकि हंसना इसी का नाम है

कृपया इस पोस्ट को साझा करें!

अंशु सारडा’अन्वि’।
आज सुबह-सुबह लाडली बेटी का एक वॉइस मैसेज सुना, उसमें उसकी खनकदार हंसी और बातों ने हम सबको खूब हंसाया। इस तरह की यह उन्मुक्त, निर्लिप्त, निर्दोष हंसी अब भले ही हमारी जिंदगी की जद्दोजहद में हमसें छिन गई हो पर इन बच्चों के साथ वह हमें गाहे-बगाहे मुस्कुराने का एक कारण जरूर दे देती है। आज़ वर्ल्ड लाफटर डे है, जो कि प्रत्येक वर्ष मई महीने के पहले रविवार को मनाया जाता है। सन् 1998 में डॉ. मदन कटारिया द्वारा इसका प्रारंभ किया गया था, जो कि विश्व लाफ्टर योगा आंदोलन के जनक हैं। हंसना और हंसाना एक प्रकार का सामाजिक तंत्र है जिसके द्वारा हम न केवल अपने दोस्तों से बल्कि अन्य लोगों से भी जुड़ते हैं। वर्तमान समय के कठिन दौर में हम जब चारों ओर कई तरह की परेशानियों, मानसिक संताप, शारीरिक कष्ट और सामाजिक विसंगतियों में जी रहे हैं, ऐसे में हास्य की बात करना कहीं ना कहीं चुभता जरूर है। आज जिस तरह से हम अपने आस-पास, दूरदराज के परिचितों, अपरिचितों को मृत्यु के मुंह में जाता देख रहे हैं, हमारे लिए एक बड़ी ही उलझाव की, नैराश्य की स्थिति पैदा हो गई है और हम उसी में उलझ कर रह गए हैं। जिंदगी जब इतनी छोटी और अनिश्चितता से भरी हुई है तो इतना उलझाव किस लिए रखना है।
हो सकता है आज हमारे पास नहीं हंसने की हजारों वजहें होंगी लेकिन वास्तव में एक वजह भी ऐसी हो सकती है जो हमें हंसा दे। अगर अपने जीवन से हमने हंसी खो दी है, तो सब कुछ खो दिया है। आज के बच्चों के पास में हंसने के साधन कुछ अलग तरह के हैं पर वों साधन नहीं जो हमारे पास हुआ करते थे। कॉमेडी धारावाहिक और फिल्में हुआ करतीं थीं, जिनमें विशुद्ध हास्य हुआ करता था , फुहड़ता नहीं। मुल्ला नसीरुद्दीन, बीरबल, शेखचिल्ली, तेनालीराम, मुंगेरीलाल, चार्ली चैपलिन, मि. बीन, लाफिंग बुद्धा एक समय हमारे जीवन का हिस्सा हुआ करते थे। किसी की अजीबोगरीब वेशभूषा, किसी के ख्याली पुलाव, तो किसी का वाक चातुर्य, किसी का तेज दिमाग, किसी का शारीरिक सौष्ठव तो किसी का दार्शनिक प्रतिफलन हम सभी को आश्चर्यचकित भी करता था, तो लुभाता भी, हंसाता भी तो चुपचाप एक सीख भी दे जाता था जिंदगी की जंग की। इतने सीधे-सरल, सहज किस्से हुआ करते थे जैसे हमारी जीवन के ही हिस्से हों।
कहा जाता है कि संसार का प्रत्येक जीव हंसता है। फूलों को तो हवा के झोंको में हमने हंसते देखा ही है, जानवरों का तो पता नहीं पर आजकल इंसान को भी हंसते कहां देखते हैं हम। अपने में ही गुमशुदा इंसान तयशुदा सेंटीमीटर्स के दायरे में मुस्कुरा कर काम चला लेता है। याद आती होंगी आपको भी वह बातें जिनके कारण आप खुद ही खुद ब खुद, खुद पर हंस पड़े होंगे कभी। आंखों पर चश्मा लगाकर आपने अपने ही चश्मे को सब जगह ढूंढा होगा, लिफ्ट में घुसने के बाद बटन को दबाना भूलकर उसके चलने का इंतजार भी किया होगा, शादी-ब्याहों में हंसी-मजाक के दौर के खूब लुत्फ उठाऐं होंगे, स्कूल- कॉलेजों की बदमाशियां याद करके आपको खुद पर ही हंसी आ गई होगी। ऐसे ही अनेकों किस्से, मस्ती भरे हादसे कहीं न कहीं हमारे साथ होते रहें होतें हैं, जो कि हमें खुद पर और दूसरों के साथ हंसने का मौका देतें रहें हैं। ‘हंसी तो फंसी’ और किसी की मुस्कुराहटों पर फिदा हो जाना अभी बीते दिनों की बातें नहीं हैं। और इन दिनों हम सबसे ज्यादा जो मिस कर रहे हैं वह है हमारे दोस्तों के साथ की मुलाकातें जो कि हमारे लिए हंसने -हंसाने का, बेतकल्लुफ़ होने का एक बड़ा मौका रहे हैं। फिलहाल विशुद्ध हास्य तो अब हमारी जिंदगी में जैसे बचा ही नहीं है, एक बेमानी सा शब्द हो चला है यह जिंदगी के आज के दौर में। ऐसे नाजुक समय में जब आज मौत चौपड़ के खेल में एक के बाद एक जिंदगी को दांव पर लगाती जा रही है, हमें हंसी की बात सूझेगी भी तो कैसे सूझेगी। लेकिन जितनी यह बात सच है उतनी ही यह बात भी सच है कि ऐसे समय में इस अवसाद के माहौल से लड़ने के लिए हमें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। नहीं तो लॉफ्टर योगा जैसे शब्दों का यूं ही ईजाद नहीं होता।
पर यह हंसी कभी -कभी नश्तर के समान चुभने जैसा भी काम करती है। बेवक्त की गई हंसी या किसी का किया गया उपहास एक विद्रुपता पैदा करता है। कहा जाता है कि महाभारत के युद्ध का कारण भी यह उपहास ही बना था। किसी की मजबूरी पर हंसना और किसी का अपमान करने के बाद की हंसी, कितना दर्द देती है यह एहसास मेरे, आपके और हममें से कइयों के अंदर जीवित होगा। ऐसे उपहास के बाद मन कुरुक्षेत्र का मैदान बन जाता है और हमारे तमाम ख्यालात और भावनाएं महाभारत का युद्ध लड़ने लग जाते हैं। जिसमें जीत किसी की भी हो पर मंगल किसी का भी नहीं होता है। हास्य – विनोद जीवन की उतनी ही जरूरी अवस्था है जितनी कि हमारी अन्य अवस्थाएं। यह तो हम सभी जानते हैं कि हमारा मानसिक संत्रास, हमारे तनाव को तो यह हमसे दूर करता ही है, हमारी कोशिकाओं, हमारी नसों के लिए भी यह पुनर्जीवन का कार्य करता है, हमारे अंदर एक स्फूर्ति पैदा करता है।
हास्य सामान्यतः उन्मुक्त मनोदशा का परिणाम माना जाता है, यह एक तरह की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया भी है जिसके द्वारा हम अपनी निरोपयोगी नकारात्मक भावनाओं को अपने अंदर से बाहर निकाल कर फेंक सकते हैं। हंसना यानी खुले आकाश के समान फैल जाना, विस्तार पाना, खुद के अंदर एक नई चेतना का, सजीवता का अनुभव करना जैसा होता है। यह एक ऐसा विषय है जिस पर जितना लिखा जाए कम है तो इसकी विशालता का अहसास शब्दों के माध्यम से नहीं बल्कि उस हंसी में जीकर के करिए। हंसी की खुद की एक भाषा होती है, अपनी एक वर्णमाला होती है और अपना ही व्याकरण भी, जिसकी ईबारत पढ़ना आना सबको जरूरी है, विशेषकर इस कठिनतम दौर में।
अंत में डॉ. कुंवर बेचैन को श्रद्धांजलि स्वरूप:
“अधर-अधर को ढूंढ रही है, ये भोली मुस्कान
जैसे कोई महानगर में ढूंढे नया मकान
नयन गेह से निकले आंसू ऐसे डरे- डरे
भीड़ भरा चौराहा जैसे, कोई पार करें
मन है एक, हजारों जिसमें बैठे हैं तूफान
जैसे एक कक्ष के घर में रुके कई मेहमान
सांसों के पीछे बैठे हैं नए- नए खतरे
जैसे लगे जेब के पीछे कई जेब कतरे
तन -मन में रहती हरदम कोई नई थकान
जैसे रहे पिता के घर पर विधवा सुता जवान।।”
 अंशु सारडा’अन्वि 

कृपया इस पोस्ट को साझा करें!
Leave A Reply

Your email address will not be published.