समग्र समाचार सेवा
देहरादून, 19 मार्च।
कुम्भ नगरी हरिद्वार में जूनापीठाधीश्वर आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज के श्रीमुख से श्रीहरिहर आश्रम हरिद्वार में आयोजित श्रीमद्भागवत कथा का तृतीय दिवस संपन्न हुआ।
तृतीय दिवस की कथा का आरंभ करते हुए पूज्य आचार्य श्री कहते हैं कि धर्म अभ्युदय और श्रेयस कारक है। हमारी संस्कृति में कामादि पुरुषार्थ भी मान्य हैं उनकी निंदा नही है किंतु काम संतुलित नियंत्रित और मूल्य आधारित होना चाहिए। धर्म की सिद्धि कैसे हो इसका समाधान करते हुए पूज्य श्री कहते हैं कि शरीर ही धर्म सिद्धि का एक मात्र साधन है,देवताओं और पितरों की सामर्थ्य सीमित है क्योंकि उनके पास शरीर नही है,वो स्वर्ग के अधिकारी तो हैं किन्तु मोक्ष प्राप्त नही कर सकते। पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि अनन्तता के उपार्जन हेतु हमें निरंतर शुभ कर्म करते रहना चाहिए। धर्म की एक विशेषता यह भी है कि यह संत सत्पुरुषों के सान्निध्य में ही जागृत होता है। मन की प्रवृत्तियां स्वभावतः पतन की है, वह हेय वस्तुओं की ओर आकर्षित होता है,इसलिए धर्म का अबलम्बन लीजिए धर्म से ही जीवन में दिव्यता का आरोहण होता है।
अजामिल उपाख्यान का वर्णन करते हुए पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि सैद्धांतिक निष्ठा के अभाव में व्यक्ति किस प्रकार पदभ्रष्ट हो जाता है,तदनन्तर पूज्य श्री सत्संग और संगदोष का विवेचन करते हुए कहते है कि सदाचार सहेजकर रखने की वस्तु है प्रायः संग दोष के कारण व्यक्ति पदभ्रष्ट हो जाता है।
वृत्तासुर का प्रसंग सुनाते हुए पूज्य गुरुदेव कहते हैं कि वृत्तियों की असुरता ही वृत्तासुर है,उसे विवेक के द्वारा ही नियंत्रित किया जा सकता है।जो सहज है, अकाम है जिसने कभी क्रोध न किया हो उन्ही महात्मा दधीचि की अस्थियों द्वारा वृत्तासुर का वध किया जा सकता है।