शरजील, खालिद की जमानत: ‘ट्रायल से पहले सज़ा’
दिल्ली दंगों की बड़ी साजिश मामले में सुप्रीम कोर्ट में UAPA आरोपियों की जमानत याचिका पर सुनवाई जारी; वरिष्ठ वकील सिंघवी ने कहा- 'ट्रायल का अंत नज़र नहीं आ रहा'
- अहम सुनवाई: सुप्रीम कोर्ट में दिल्ली दंगों की बड़ी साजिश (UAPA) मामले में आरोपी शरजील इमाम, उमर खालिद, गुलफिशा फातिमा और अन्य की जमानत याचिकाओं पर सुनवाई जारी है।
- सिंघवी का तर्क: आरोपी गुलफिशा फातिमा की ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने दलील दी कि ट्रायल का अंत नज़र नहीं आ रहा है, इसलिए निरंतर जेल में रखना ‘मुकदमे से पहले की सज़ा’ है।
- न्याय प्रणाली पर सवाल: सिंघवी ने ट्रायल को जल्दबाजी में चलाने या स्थानांतरित करने के किसी भी प्रयास को ‘हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली का मज़ाक’ बताया।
समग्र समाचार सेवा
नई दिल्ली, 2 दिसंबर: दिल्ली दंगों की कथित ‘बड़ी साजिश’ (UAPA) मामले में गिरफ्तार किए गए प्रमुख आरोपियों शरजील इमाम उमर खालिद जमानत याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में आज एक अहम सुनवाई हुई। यह सुनवाई मुख्य रूप से इस बात पर केंद्रित रही कि किसी आरोपी को बिना दोषी ठहराए लंबे समय तक हिरासत में रखना, विशेषकर UAPA जैसे कानूनों के तहत, न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है या नहीं।
‘मुकदमे से पहले की सज़ा’
वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने सुप्रीम कोर्ट में तर्क दिया कि उनके मुवक्किल गुलफिशा फातिमा (और इसी मामले के अन्य आरोपियों) को बिना किसी निष्कर्ष के लंबे समय तक हिरासत में रखा गया है। उन्होंने राज्य के बार-बार के इस दावे पर आपत्ति जताई कि यह एक ‘गंभीर अपराध’ है, जिसके कारण जमानत नहीं मिलनी चाहिए।
सिंघवी ने जोर देकर कहा:
“आप बार-बार यही दोहरा रहे हैं कि यह एक गंभीर अपराध है, लेकिन ट्रायल का अंत नज़र नहीं आ रहा है।”
उन्होंने तर्क दिया कि एक ऐसे मामले में जहां सुनवाई शुरू भी नहीं हो पाई है और वर्षों लग सकते हैं, आरोपी को अनिश्चितकाल के लिए सलाखों के पीछे रखना ‘प्री-ट्रायल पनिशमेंट’ (मुकदमे से पहले की सज़ा) के समान है।
“इस तरह की सज़ा तब तक नहीं मिलनी चाहिए जब तक कि उसे दोषी न ठहराया जाए। यह मुकदमे से पहले की सज़ा है।”
ट्रायल को जल्दबाजी में चलाने पर आपत्ति
सुनवाई के दौरान, सिंघवी ने ट्रायल को जल्दबाजी में चलाने या उसे एक विशेष अदालत में स्थानांतरित करने के किसी भी संभावित कदम पर भी कड़ी आपत्ति व्यक्त की। उन्होंने कहा कि ट्रायल को जल्दबाजी में चलाना या ‘जल्दबाज़ी में ट्रांसफर चलाना’ अपीलीय, राज्य और याचिकाकर्ता तीनों के अधिकारों के लिए हानिकारक होगा।
उन्होंने कहा:
“जल्दबाज़ी में ट्रायल चलाना ग़लत विचार है।” “यह हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली का मज़ाक [बनाना] है।”
सिंघवी का रुख यह स्पष्ट करता है कि जमानत याचिका पर विचार करते समय, अदालत को केवल अपराध की गंभीरता ही नहीं, बल्कि ट्रायल में हो रहे अत्यधिक विलंब को भी ध्यान में रखना चाहिए, क्योंकि लंबे समय तक हिरासत में रहना संवैधानिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है। उन्होंने कहा कि वह नहीं चाहते कि हाई कोर्ट इस पर विचार करे (अर्थात वे चाहते हैं कि ध्यान केवल जमानत के मौलिक सवाल पर केंद्रित रहे)।
यह मामला देश की न्यायिक प्रणाली के सामने एक बड़ा प्रश्न खड़ा करता है: UAPA जैसे कड़े कानूनों के तहत, जहां जमानत मिलना कठिन है, क्या ट्रायल में देरी के आधार पर जमानत देना आरोपी के मौलिक अधिकार के तहत आता है? सुप्रीम कोर्ट इस मामले में क्या रुख अपनाता है, यह भविष्य में राजनीतिक मामलों में UAPA के दुरुपयोग और जमानत के अधिकार के बीच संतुलन को परिभाषित करेगा।