पूनम शर्मा
भारत के विश्वविद्यालयों में वैचारिक घुसपैठ कोई नया मुद्दा नहीं है। लेकिन टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (TISS), मुंबई में 13 अक्टूबर 2025 को जो हुआ, उसने इस बहस को अचानक बहुत तीखा बना दिया है। यह सिर्फ एक कैंपस की घटना नहीं, बल्कि एक गहरी वैचारिक रणनीति का हिस्सा है—जहां विद्रोह को रोमांटिक बनाकर युवाओं को ‘राज्य विरोधी’ मानसिकता में ढाला जा रहा है।
भारत के विश्वविद्यालयों में वैचारिक घुसपैठ कोई नया मुद्दा नहीं है। लेकिन टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (TISS), मुंबई में 13 अक्टूबर 2025 को जो हुआ, उसने इस बहस को अचानक बहुत तीखा बना दिया है। यह सिर्फ एक कैंपस की घटना नहीं, बल्कि एक गहरी वैचारिक रणनीति का हिस्सा है—जहां विद्रोह को रोमांटिक बनाकर युवाओं को ‘राज्य विरोधी’ मानसिकता में ढाला जा रहा है।
क्या हुआ था TISS में
TISS के कुछ छात्रों पर FIR दर्ज की गई है। आरोप है कि उन्होंने जी.एन. साईबाबा की बरसी पर कार्यक्रम आयोजित किया और शर्जील इमाम व उमर खालिद जैसे आरोपितों के समर्थन में नारे लगाए। यह कोई साधारण घटना नहीं है। यह संकेत है कि विश्वविद्यालयों में वर्षों से चल रही वैचारिक ‘लॉन्ग मार्च’ अब एक निर्णायक चरण में पहुंच चुकी है।
‘लॉन्ग मार्च’ की वैचारिक रणनीति
अमेरिकी विचारक क्रिस्टोफर रूफो ने अपनी किताब America’s Cultural Revolution में लिखा था कि कैसे 60 के दशक की कट्टर विचारधारा धीरे-धीरे संस्थानों में घुसपैठ कर लेती है और उन्हें अंदर से बदल देती है। यही प्रक्रिया भारत में भी देखी जा रही है।
शुरुआत में यह सब ‘बौद्धिक असहमति’ के नाम पर शुरू हुआ। लेकिन अब यह बहस नहीं, वैचारिक ब्रेनवॉश में बदल चुका है। विश्वविद्यालयों में आज बहस की जगह कट्टर नारेबाज़ी और राज्य विरोधी विचारधारा ने ले ली है।
नक्सल आंदोलन और ‘शहीदों’ का निर्माण
वामपंथी नक्सल आंदोलन कभी गांवों तक सीमित था। लेकिन जब उसका जनाधार कमजोर पड़ा, तो उसका बौद्धिक वर्ग शहरों में सक्रिय हो गया। अब उन्होंने नया तरीका अपनाया है—‘शहीद’ गढ़ने का। स्टैन स्वामी को ‘शहीद’ बताने की मुहिम इसका ताज़ा उदाहरण है।
वे जानते हैं कि राष्ट्रभक्ति और शहादत का भाव भारतीय समाज में गहराई से बसा है। इसलिए अब वही प्रतीक और भाषा का इस्तेमाल कर राज्य को कठघरे में खड़ा किया जा रहा है।
प्रोफेसर या प्रचारक ?
इस पूरे खेल में कई शिक्षकों की भूमिका भी संदेह के घेरे में है। आरोप हैं कि कुछ शिक्षक छात्रों को अकादमिक बहस के बजाय निजी ठिकानों पर बुलाकर उन्हें विचारधारा में ‘ग्रोम’ करते हैं—कभी नारेबाज़ी से, कभी सुविधाओं के लालच से।
शिक्षण का यह मॉडल ‘आचार्य’ नहीं, ‘प्रचारक’ जैसा है। इन प्रोफेसरों ने विचारधारा के नाम पर कैंपस को ‘राज्य विरोधी प्रयोगशाला’ में बदल दिया है।
विद्रोह का रोमांटीकरण
आज के वामपंथी आंदोलनों की सबसे बड़ी ताकत है—‘विद्रोह का रोमांटीकरण’।
जब कोई छात्र किसी आरोपित व्यक्ति के नाम पर कार्यक्रम करता है और उसे ‘शहीद’ कहता है, तो यह एक प्रतीकात्मक संदेश देता है—कि चरमपंथ अब सामान्य बात है, विरोध ही नैतिकता है, और राष्ट्रप्रेम ‘रिएक्शनरी’।
यह ‘फ्रीडम ऑफ स्पीच’ नहीं, विचारधारा के नाम पर वैचारिक तानाशाही है।
‘अधिकार’ और ‘वामपंथी पाखंड’
इन घटनाओं के बाद बचाव में सबसे पहले संविधानिक अधिकारों का नाम लिया जाता है। लेकिन यह वही विचारधारा है जो स्टालिन, माओ और लेनिन के शासन में किसी भी तरह के अधिकारों को कुचलती रही है।
भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र में वही वामपंथी लोग अधिकारों का झंडा उठाते हैं जो अपने आदर्श देशों में इन्हें कुचलते रहे हैं। यह अधिकारों की रक्षा नहीं, उनका राजनीतिक शोषण है।
संविधान बनाम विचारधारा
भारत का संविधान अधिकारों के साथ-साथ उनके ‘युक्तिसंगत प्रतिबंधों’ की भी बात करता है। संविधानकारों को पता था कि राज्य ही नागरिक अधिकारों का संरक्षक है। अगर राज्य को ही वैचारिक हमलों से खोखला कर दिया गया, तो अधिकार भी बेमानी हो जाएंगे।
यही वजह है कि संविधान ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता और सुरक्षा को सर्वोच्च रखा है।
अब क्या किया जाए
TISS जैसी घटनाएँ रोकने के लिए केवल नारेबाज़ी नहीं, ठोस कदम जरूरी हैं —
संस्थागत निगरानी: राजनीतिक कार्यक्रमों के लिए सख्त अनुमति प्रक्रिया।
प्रोफेसरों की जवाबदेही: विचारधारा के नाम पर छात्रों को भड़काने वालों पर कार्रवाई।
छात्र जागरूकता: असहमति और अस्थिरता में फर्क समझाना।
कानूनी सतर्कता: देशविरोधी गतिविधियों पर त्वरित कार्रवाई।
TISS की घटना कोई एकाकी मामला नहीं है। यह वैचारिक कब्ज़े की उस लहर का हिस्सा है जो विश्वविद्यालयों को राष्ट्र के खिलाफ वैचारिक मोर्चे में बदलना चाहती है। अगर समय रहते इस प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं लगाया गया तो उच्च शिक्षा संस्थान ‘ज्ञान के मंदिर’ नहीं बल्कि ‘विचारधारा की फैक्ट्रियां’ बन जाएंगे।
राष्ट्र को ऐसे समय में ठोस निर्णय लेने होंगे—ताकि हमारे विश्वविद्यालय विचार, तर्क और संवाद के केंद्र बने रहें, न कि चरमपंथ के अड्डे।