प्रियंक खड़गे का ‘आर एस एस विरोधी ’दांव: डी.के. शिवकुमार को चुनौती
कांग्रेस में पकड़ मज़बूत करने की कोशिश
पूनम शर्मा
कर्नाटक में राजनीतिक सरगर्मी इन दिनों एक नए मोड़ पर है। राज्य के आईटीबीटी मंत्री प्रियंक खड़गे ने सरकारी कर्मचारियों पर आरएसएस से जुड़े कार्यक्रमों में भागीदारी को सीमित करने की बात कहकर न केवल एक नई बहस छेड़ दी है, बल्कि कांग्रेस के भीतर भी अपनी राजनीतिक स्थिति को और मजबूत करने की कोशिश शुरू कर दी है। राजनीतिक विश्लेषक इसे केवल वैचारिक मुद्दा नहीं, बल्कि पार्टी के भीतर शक्ति संतुलन की जंग के रूप में देख रहे हैं।
प्रियंक खड़गे का बयान और उसका राजनीतिक संकेत
प्रियंक खड़गे ने हाल ही में कहा कि सरकारी कर्मचारियों को आरएसएस जैसे संगठनों की गतिविधियों में भाग लेने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। उनका कहना है कि सरकारी तंत्र को “तटस्थ और धर्मनिरपेक्ष” रहना चाहिए, और किसी विचारधारा या संगठन से जुड़ाव शासन की निष्पक्षता को प्रभावित करता है।
हालांकि, यह बयान सिर्फ एक प्रशासनिक राय नहीं है। यह उस समय आया है जब राज्य में कांग्रेस सरकार के दो प्रमुख चेहरों—मुख्यमंत्री सिद्दारमैया और उपमुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार—के बीच ताकत की अंदरूनी खींचतान भी चल रही है। ऐसे में प्रियंक खड़गे का यह आक्रामक ‘एंटी-RSS’ स्टैंड उन्हें पार्टी के एक मजबूत ‘विचारधारा आधारित’ नेता के रूप में प्रोजेक्ट कर रहा है।
कांग्रेस में दो पावर सेंटर और तीसरे खिलाड़ी की एंट्री
कर्नाटक कांग्रेस में फिलहाल दो बड़े पावर सेंटर माने जाते हैं—सिद्दारमैया और डी.के. शिवकुमार। शिवकुमार को पार्टी के संगठनात्मक धड़े का नेता माना जाता है जबकि सिद्दारमैया जनाधार और प्रशासनिक अनुभव के साथ अपनी पहचान बनाए हुए हैं।
अब प्रियंक खड़गे इस समीकरण में तीसरे प्रभावशाली चेहरे के रूप में जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं। वे Mallikarjun Kharge के बेटे हैं, जो वर्तमान में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। इस पारिवारिक राजनीतिक पृष्ठभूमि के साथ प्रियंक खड़गे युवा चेहरा और आक्रामक वक्ता होने के कारण अपनी स्वतंत्र पहचान भी बनाना चाहते हैं।
‘एंटी-RSS’ कार्ड क्यों?
कांग्रेस पार्टी की राजनीति में आरएसएस हमेशा एक ‘टारगेट’ संगठन रहा है। प्रियंक खड़गे ने इस कार्ड को इसलिए चुना क्योंकि—
यह कांग्रेस की पारंपरिक विचारधारा के अनुरूप है।
इससे वे पार्टी के वैचारिक आधार पर अपने लिए स्पेस बना सकते हैं।
यह उन्हें ‘हिंदुत्व बनाम सेक्युलरिज्म’ की बहस में राष्ट्रीय फलक पर भी जगह दे सकता है।
इसके अलावा, डी.के. शिवकुमार को अक्सर ‘प्रग्मैटिक पॉलिटिक्स’ (व्यावहारिक राजनीति) वाला नेता माना जाता है, जबकि प्रियंक अब खुद को ‘विचारधारा आधारित’ नेता के रूप में पेश कर रहे हैं। इससे उन्हें पार्टी में एक अलग पहचान मिल सकती है।
सरकारी कर्मचारियों पर दबाव या वैचारिक स्पष्टता?
प्रियंक खड़गे का यह बयान प्रशासनिक रूप से भी एक बड़ा सवाल खड़ा करता है। क्या सरकार अपने कर्मचारियों को किसी वैचारिक संगठन से दूर रहने के लिए बाध्य कर सकती है?
कई कर्मचारी संघों ने इसे ‘राजनीतिक हस्तक्षेप’ बताया है। वहीं, कांग्रेस समर्थक वर्ग का मानना है कि सरकारी सेवकों को किसी एक विचारधारा से जुड़ना शासन की निष्पक्षता को नुकसान पहुंचाता है। इस मुद्दे ने प्रशासनिक हलकों में भी बहस को जन्म दिया है।
बीजेपी और आरएसएस की तीखी प्रतिक्रिया
प्रियंक खड़गे के बयान पर भाजपा ने तीखी प्रतिक्रिया दी है। भाजपा नेताओं ने कहा है कि कांग्रेस अब खुले तौर पर आरएसएस से नफरत को संस्थागत रूप देने की कोशिश कर रही है। भाजपा प्रवक्ताओं ने याद दिलाया कि आरएसएस कोई प्रतिबंधित संगठन नहीं है और लाखों लोग इसमें अपनी मर्जी से जुड़े हुए हैं।
बीजेपी इसे ‘हिंदू भावनाओं पर हमला’ करार दे रही है और इस मुद्दे को आने वाले चुनावी दौर में भुनाने की तैयारी में है। आरएसएस से जुड़े संगठनों ने भी इसे ‘विचार की स्वतंत्रता पर हमला’ बताया है।
प्रियंक की महत्वाकांक्षा और कांग्रेस की रणनीति
पार्टी सूत्रों का कहना है कि प्रियंक खड़गे आने वाले समय में खुद को न केवल एक मंत्री के रूप में बल्कि एक राज्य स्तरीय पावर सेंटर के रूप में भी स्थापित करना चाहते हैं। उनका यह स्टैंड एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा हो सकता है—
शिवकुमार से राजनीतिक स्पेस छीनना,
पार्टी के विचारधारा वाले गुट में अपना प्रभुत्व बढ़ाना,
और राष्ट्रीय नेतृत्व के नजदीक रहना।
कांग्रेस हाईकमान भी इस समय राज्य में शक्ति संतुलन बनाए रखना चाहता है ताकि किसी एक गुट का वर्चस्व न बढ़ सके। ऐसे में प्रियंक की भूमिका “किंगमेकर” जैसी भी बन सकती है।
राज्य की राजनीति में नया मोड़
कर्नाटक की राजनीति में यह मुद्दा अब सिर्फ आरएसएस बनाम कांग्रेस की बहस तक सीमित नहीं रहेगा। यह कांग्रेस के अंदरूनी पावर गेम का हिस्सा बन गया है। डी.के. शिवकुमार की बढ़ती लोकप्रियता और संगठन पर पकड़ के बीच प्रियंक खड़गे ने अपने लिए एक विचारधारा आधारित रास्ता चुना है, जिससे वे ‘वैकल्पिक चेहरा’ बन सकें।
निष्कर्ष
प्रियंक खड़गे का ‘एंटी-RSS’ बयान केवल वैचारिक टिप्पणी नहीं बल्कि एक राजनीतिक दांव है। इससे उन्होंने पार्टी में अपने लिए एक खास स्पेस बनाया है और डी.के. शिवकुमार को अप्रत्यक्ष चुनौती दी है। अब देखना यह होगा कि कांग्रेस हाईकमान इस उभरते तीसरे पावर सेंटर को किस रूप में देखता है — एक सहयोगी के तौर पर या एक संभावित प्रतिद्वंद्वी के रूप में।
एक बात स्पष्ट है—कर्नाटक में कांग्रेस की राजनीति अब दो नहीं बल्कि तीन ध्रुवों में बंटने की ओर बढ़ रही है। और इस नए समीकरण का सीधा असर राज्य की सत्ता संतुलन और आने वाले चुनावी परिदृश्य पर पड़ेगा।