केरल: सबरीमला स्वर्ण घोटाले ने ‘मंदिर भ्रष्टाचार’ उजागर किया

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पूनम शर्मा
केरल के प्रसिद्ध सबरीमला मंदिर में सामने आया ‘स्वर्ण परत घोटाला’ राज्य सरकार के धार्मिक प्रबंधन पर सवाल खड़ा करता है, और यह मंदिर प्रशासन की पारदर्शिता और जवाबदेही की बुनियाद को भी हिला देता है। भगवान अयप्पा के यह पवित्र धाम सम्बंधित मामला अब धार्मिक आस्था से निकलकर एक बड़े राजनीतिक और प्रशासनिक विमर्श का रूप ले चुका है — क्या मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर स्वायत्त संस्थाओं के हवाले किया जाना चाहिए?

स्वर्ण परत घोटाला: एक पवित्र क्षेत्र में भ्रष्टाचार की परतें

हाल ही में केरल के सबरीमला मंदिर के ‘स्वर्ण मंडपम’ (सोने की परत से ढकी भीतरी संरचना) की जांच में भारी गड़बड़ी सामने आई है। जांच रिपोर्टों के अनुसार, सोने की परत की मोटाई और प्रयुक्त मात्रा में भारी असमानता पाई गई। कहा जा रहा है कि करोड़ों रुपये की कीमत का सोना गायब है या उसका हिसाब नहीं दिया गया। यह मामला तब प्रकाश में आया जब देवस्वम बोर्ड की एक आंतरिक रिपोर्ट लीक हुई, जिसमें स्पष्ट रूप से उल्लेख था कि स्वर्ण परत के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च किए गए, लेकिन उसका वास्तविक उपयोग संदिग्ध है।

यह आरोप सरकार के ‘त्रावणकोर देवस्वम बोर्ड’ पर है, जो सबरीमला समेत सैकड़ों मंदिरों का प्रबंधन करता है। बोर्ड के कई अधिकारी अब जांच के घेरे में हैं, जबकि विपक्षी दलों और हिंदू संगठनों ने सरकार से सीबीआई जांच की मांग की है।

मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण का विवाद

भारत के अधिकांश दक्षिणी राज्यों में मंदिरों का प्रबंधन सरकार-नियुक्त बोर्डों के अधीन है। केरल में भी यही व्यवस्था है, जहां ‘देवस्वम बोर्ड’ मंदिरों की आय, संपत्ति और कर्मियों की नियुक्ति का नियंत्रण रखता है।
लेकिन सबरीमला घोटाले के बाद यह सवाल उठ खड़ा हुआ है — जब मंदिर भक्तों के चढ़ावे और दान से चलते हैं, तो सरकार को उनके प्रबंधन में इतनी गहरी भूमिका क्यों होनी चाहिए?

हिंदू धार्मिक संगठन और कثير सामाजिक विचारकों का कहना है कि सरकारीकरण करने से ही भ्रष्टाचार की जड़ होगी। जब गैर-धार्मिक नौकरशाहों के हाथों में मंदिर की संपत्ति, दान और फैसले हो जाते हैं, तो वहां त 并 पारदर्शिता ही समाप्त हो जाती है और भक्त भावना भी।

भक्त समुदाय की प्रतिक्रिया: “हमारा मंदिर हमें लौटाओ”

सबरीमला के धर्मियों के समुदाय ने इस घोटाले के बाद चपटी प्रतिक्रिया दी है। “सबरीमला करप्शन फ्री मिशन” नाम पर एक नया आंदोलन शुरू हुआ है, जो मंदिर के स्वायत्त संचालन की माँग  कर रहा है।
इस आंदोलन के आयोजकों का कहना है कि जब वक्फ बोर्ड मुस्लिम धार्मिक स्थलों का प्रबंधन स्वतंत्र रूप से करता है और चर्च अपने संस्थानों को खुद संचालित करता है, तो हिंदू मंदिरों को सरकारी नियंत्रण में क्यों रखा जाए?

सक्सेना का तर्क है कि मंदिरों को जघन्य विकास-रहित प्रशासकों के हाथों में देने से न केवल भ्रष्टाचार कम होगा, बल्कि मंदिरों की आय का काम धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक प्रगति के लिए और तेजी से किया जा सकेगा।

राजनीतिक प्रतिक्रिया और बढ़ता विवाद

विपक्षी दलों ने इस मामले को विधानसभा में उठाने का संकेत दिया है। भाजपा और आरएसएस जैसे संगठनों से जुड़े संगठनों ने इसे हिंदू मंदिरों पर राज्य के दखल का परिणाम बताया है। वहीं, वामपंथी सरकार ने कहा है कि “जाँच  निष्पक्ष होगी और दोषियों को छोड़ा नहीं जाएगा।”
हालांकि, सरकार के आश्वासन से भक्त समुदाय संतुष्ट नहीं दिख रहा। कई लोग इसे “राजनीतिक सफाई” बताकर ठुकरा चुके हैं।

सबरीमला घोटाला ऐसे समय में सामने आया है जब दक्षिण भारत में ‘मंदिर स्वायत्तता आंदोलन’ पहले से ही गति पकड़ रहा है। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में भी समान मांगें उठ रही हैं — कि मंदिरों का संचालन श्रद्धालुओं और धार्मिक न्यासों को सौंपा जाए।

मंदिरों की स्वायत्तता: समय की माँग

भारत में मंदिर सिर्फ पूजा स्थल नहीं हैं; वे सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन के केंद्र हैं। इसलिए जब इन संस्थानों पर सरकारी नियंत्रण भ्रष्टाचार, पक्षपात या राजनीतिक स्वार्थों के कारण ग्रस्त हो जाता है, तो यह केवल धार्मिक व्यवस्था का नहीं, इसलिए सांस्कृतिक अस्मिता का भी प्रश्न बन जाता है।

सबरीमला घोटाला यह भूलने की याद दिलाता है कि श्रद्धा और भ्रष्टाचार साथ नह. कभी चल सकते। अगर सरकारें वास्तव में आस्था का सम्मान करना चाहती हैं, तो उन्हें मंदिरों को उनके असली संरक्षकों — भक्तों और पुजारियों — के हाथों में सौंप देना चाहिए।

निष्कर्ष

सबरीमला स्वर्ण परत घोटाला आर्थिक घोटाला ही नहीं यह आस्था, स्वायत्तता और पारदर्शिता की कसौटी पर सरकारी तंत्र की विफलता को उजागर करता है।
समय आ गया है कि भारत यह सोच ले — राजनीतिक संपत्ति हैं मंदिर या दिव्यता के केंद्र, जिन्हें वापस भक्तों के हाथों लौटाना ही न्यायसंगत होगा?

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