पूनम शर्मा
मालेगाँव बम ब्लास्ट केस, जो कभी भारत में तथाकथित “हिंदू आतंकवाद” के सबूत के रूप में प्रस्तुत किया गया था, आज न्यायालय की टिप्पणियों और सबूतों की जांच के बाद एक सुनियोजित राजनीतिक षड्यंत्र के रूप में सामने आ रहा है।
एक ऐसा षड्यंत्र, जिसमें आतंकवाद से लड़ने की बजाय उसे गढ़ा गया — और वो भी सत्ता के गलियारों में बैठे कुछ ‘धर्मनिरपेक्ष रचयिताओं’ द्वारा।
साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और कर्नल पुरोहित जैसे नामों को बिना पर्याप्त सबूतों के सालों तक जेल में रखा गया, और इसे एक “भगवा आतंकवाद” की कहानी बनाकर मीडिया व राजनीति के गलियारों में प्रचारित किया गया। अब सवाल उठता है कि क्या यह पूरा केस एक राजनीतिक नैरेटिव को गढ़ने के लिए गढ़ा गया था?
ATS की जाँच अपने आप में संदेहास्पद रही। साध्वी प्रज्ञा के खिलाफ कोई प्रत्यक्ष या निर्णायक सबूत नहीं मिला। कर्नल पुरोहित के खिलाफ भी केवल संदिग्ध बातचीत और काल्पनिक साजिश के आरोप थे। रिपोर्टों के अनुसार, गवाहों पर दबाव डाला गया, टॉर्चर किया गया, जबरन बयान उगलवाए गए और साक्ष्य गढ़े गए। यह एक निष्पक्ष जाँच नहीं, बल्कि राजनीतिक पटकथा के अनुसार की गई कार्रवाई थी।
कोर्ट ने भी इन पहलुओं को गंभीरता से लिया। फैसला सुनाते हुए अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि अभियुक्तों के खिलाफ किसी भी प्रकार की साजिश, मीटिंग या आतंकी फंडिंग के प्रमाण नहीं हैं। LIC पॉलिसी और बैंक ट्रांजैक्शन जैसी सामान्य वित्तीय गतिविधियों को जबरन आतंकवाद से जोड़ने की कोशिश की गई, जो न्यायिक कसौटी पर पूरी तरह विफल रही। कोर्ट ने कहा कि यह केस तथ्यों पर नहीं, बल्कि पूर्वनियोजित राजनीतिक एजेंडे पर आधारित था।
कहानी पहले ही लिख दी गई थी: अपराध बाद में खोजा गया
घटना के तुरंत बाद ही कुछ विशेष पत्रकारों, वामपंथी विचारधारा से जुड़े नेताओं, और पुरस्कार-वापसी गैंग ने एकमत होकर यह तय कर लिया था कि इस ब्लास्ट में किसी “हिंदू” नाम का होना जरूरी है।
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भगवा वस्त्रों में दिखती एक साध्वी,
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और सेना का एक राष्ट्रवादी ऑफिसर,
बस इन तीनों को मिलाकर बना दी गई “हिंदू आतंकवाद” की थ्योरी ।
एटीएस की जाँच या राजनीतिक स्क्रिप्ट?
मालेगाँव बम ब्लास्ट केस में जिस तरह की लापरवाही, पूर्वाग्रह और निर्ममता दिखाई दी, उसने खुद पुलिसिंग की नैतिकता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया:
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साध्वी प्रज्ञा की मोटरसाइकिल का इस्तेमाल तो हुआ, लेकिन ये साबित नहीं हो पाया कि उन्होंने किसी भी प्रकार की आतंकी गतिविधि में हिस्सा लिया।
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कर्नल पुरोहित को बिना ठोस सबूत के सालों जेल में डाला गया।
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जबरदस्ती एफिडेविट भरवाए गए, गवाहों पर दबाव डाला गया, और स्वीकारोक्ति बयान उगलवाए गए।
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फोरेंसिक रिपोर्टों में विरोधाभास थे, फिर भी इन्हें आधार बनाकर कार्रवाई की गई।
यह केवल सबूतों की कमी का मामला नहीं था, बल्कि सबूत गढ़ने की कोशिश थी।
आतंकवाद” की थ्योरी से किसे राजनीतिक लाभ मिला? कांग्रेस पार्टी ने खुलकर इस केस को “हिंदू टेरर” का उदाहरण बताया, ताकि इस्लामिक आतंकवाद का राजनीतिक संतुलन साधा जा सके और अपने वोटबैंक को खुश रखा जा सके। इसने ना सिर्फ निर्दोष व्यक्तियों की ज़िंदगी तबाह की, बल्कि देश में सामाजिक वैमनस्य भी फैलाया।
इस पूरे मामले में अब सबसे बड़ा सवाल यही है — जब कोर्ट ने सबूतों को खारिज कर दिया, जब जांच एजेंसियों की भूमिका पर सवाल खड़े हो गए, तो क्या उन अधिकारियों और राजनीतिक नेताओं पर कोई कार्रवाई होगी जिन्होंने यह झूठा केस गढ़ा? क्या कांग्रेस पार्टी उन निर्दोषों से माफी मांगेगी जिन्होंने सालों तक जेल की यातना झेली?
कांग्रेस और ‘सेक्युलर नैरेटिव’ के ठेकेदार
यह कोई छिपी बात नहीं कि कांग्रेस की तत्कालीन सरकार ने इस केस को “हिंदू आतंकवाद” का चेहरा बना दिया।
उनका उद्देश्य था:
- इस्लामी आतंकवाद के बैलेंस में एक “हिंदू चरमपंथ” दिखाना,
- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुड़े संगठनों को बदनाम करना,
- वोटबैंक को साधना।
लेकिन सवाल उठता है — क्या इसके लिए बेकसूरों की ज़िंदगी बर्बाद करना जायज था?
वर्तमान समय में यह माँग उठ रही है कि अब “उलटी जाँच ” होनी चाहिए — मतलब यह पता लगाया जाए कि इस झूठी थ्योरी के पीछे असली साजिशकर्ता कौन थे। ATS ने किसके इशारे पर यह झूठी जांच की? किस नेता या ताकतवर व्यक्ति के दबाव में यह फर्जी केस तैयार किया गया? और क्या मीडिया, एनजीओ और तथाकथित सेक्युलर गैंग ने जानबूझकर इस नैरेटिव को फैलाया?
कौन देगा न्याय उन लोगों को जो 10 साल जेल में रहे?
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जिनका घर उजड़ गया,
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जिनकी साख खत्म कर दी गई,
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जिनकी देशभक्ति को आतंकवाद के रंग में रंगा गया,
उनका हिसाब कौन देगा?
क्या वो जाँच अधिकारी, जिन्होंने टॉर्चर कर झूठ उगलवाया, जवाबदेह होंगे?
क्या कांग्रेस पार्टी, जिसने इस केस को चुनावी औजार बना लिया, माफी मांगेगी?
मालेगाँव बम ब्लास्ट केस सिर्फ एक आतंकी घटना नहीं थी, बल्कि यह उस तरीके का प्रतीक बन गया है जिससे राजनीति और विचारधारा के नाम पर न्याय का गला घोंटा जा सकता है। यह एक चेतावनी है कि कैसे साजिशन धर्म को आतंकवाद से जोड़ा जाता है और कैसे लोकतंत्र को एक झूठे नैरेटिव से गुमराह किया जा सकता है।
आज जब कोर्ट ने इस झूठ को नकार दिया है, तब अब बारी उन लोगों की है जिन्होंने यह झूठ फैलाया था। अगर हम सच में न्यायप्रिय और लोकतांत्रिक राष्ट्र बनना चाहते हैं, तो हमें “हिंदू आतंकवाद” जैसे गढ़े गए झूठों को बेनकाब करने और उनके जिम्मेदारों को कटघरे में खड़ा करने से पीछे नहीं हटना चाहिए।