तमिलनाडु : अपनी भूमि पर दीप जलाने के लिए संघर्ष करती हिंदू सभ्यता
जब अपने ही देश में परंपराएँ “अनुमति” की मोहताज हों -
पूनम शर्मा
अगहन पूर्णिमा से दीपोत्सव की परंपरा दक्षिण भारत के हर मंदिर—विशेषकर तमिलनाडु के मुरुगन मंदिरों—में सदियों से चली आ रही है। पूरा दक्षिण इसे “दक्षिण की अयोध्या” का पवित्र पर्व मानता है। लेकिन यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज भी हिंदुओं को अपनी ही धरती पर दीप जलाने, पूजा करने और कार्तिक पर्व मनाने के लिए अदालतों और प्रशासन से लड़ना पड़ रहा है।
यह केवल एक विवाद नहीं—यह इस बात का प्रमाण है कि सदियों से हिंदू समाज को व्यवस्थित तरीके से निशाना बनाया गया है, और आज भी वही प्रहार जारी हैं।
2. मदुरै का अरुलमिगऊ सुब्रमण्यम स्वामी मंदिर—इतिहास, धरोहर और विवाद
मदुरै का यह मंदिर भगवान मुरुगन के छह पवित्र धामों में पहला माना जाता है। मान्यता है कि यहीं पर भगवान मुरुगन ने सुरपद्मन असुर का संहार करने के बाद देवनई से विवाह किया था। यह स्थान हजारों वर्षों से शानदार आध्यात्मिक विरासत का केंद्र है।
लेकिन लगभग 150 वर्ष पहले कुछ मुस्लिम समूहों ने मंदिर के पीछे पहाड़ी की चोटी पर एक दरगाह बना दी और उसे सिकंदर बादशाह की दरगाह कहा। इसके बाद वहां बकरे काटने की परंपरा शुरू कर दी गई। जब हिंदू समुदाय ने इस पर आपत्ति की, मामला अदालत तक पहुँचा। 1931 में प्रिवी काउंसिल ने यह स्पष्ट किया कि दरगाह और सीढ़ियों को छोड़कर पूरी पहाड़ी मंदिर का ही हिस्सा है। यानी कानून साफ था। इतिहास साफ था। परंपरा भी साफ थी। फिर भी संघर्ष जारी है।
3. वर्तमान विवाद: दीप जलाने का अधिकार और प्रशासन की पक्षपातपूर्ण कार्रवाई
इस वर्ष भी मुस्लिम संगठनों ने पहाड़ी पर बकरा काटने की अनुमति मांगी, जिसके खिलाफ हिंदू संगठनों ने शांतिपूर्वक विरोध दर्ज कराया। उन्होंने कहा—
“यह दक्षिण की अयोध्या है। इसके पवित्र पर्व को कोई बाधित नहीं कर सकता।” लेकिन हुआ क्या?
• जिला प्रशासन ने पहली बार दिसंबर से निषेधाज्ञा लागू कर दी।
• दीप प्रज्ज्वलन के लिए उच्च न्यायालय ने हिंदुओं के पक्ष में फैसला दिया।
• इसके बावजूद प्रशासन ने हिंदू प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर लिया।
• जब कोर्ट की अवमानना का मामला उठा, तब तमिलनाडु की स्टालिन सरकार इस फैसले के खिलाफ सीधे सुप्रीम कोर्ट पहुँच गई।
यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है—
कानून हिंदुओं के पक्ष में है, इतिहास हिंदुओं के पक्ष में है, न्यायालय हिंदुओं के पक्ष में है—
फिर भी प्रशासन और सरकार किसके दबाव में काम कर रहे हैं?
4. क्या हिंदू उत्सवों को “समायोजन” की वस्तु मान लिया गया है?
क्या कोई भी पवित्र पर्व “एक सप्ताह बाद” मनाया जा सकता है? क्या दीपोत्सव या कार्तिगई दीपम को किसी और तारीख पर शिफ्ट किया जा सकता है?क्या क्रिसमस, रमज़ान या मुहर्रम को कभी प्रशासन “भीड़ प्रबंधन” के नाम पर आगे-पीछे करता है?
धार्मिक तिथियों पर समझौता सनातन धर्म में असंभव है। लेकिन हिंदुओं से बार-बार यही अपेक्षा क्यों की जाती है?
यही समस्या है—
जब हिंदू धर्म को लचीला कहा गया, तो उसे कमजोर समझ लिया गया।
जब हिंदुओं ने सहिष्णुता दिखाई, तो इसे आत्मसमर्पण मान लिया गया।
जब हिंदुओं ने संवाद चुना, तो अन्य ने उस पर कब्ज़ा करने का अधिकार समझ लिया।
5. प्रशासनिक शक्तियों का एकतरफा उपयोग—सवालों के घेरे में लोकतंत्र
तमिलनाडु प्रशासन ने जिस तरह कोर्ट के खुले निर्देशों को नजरअंदाज़ किया, वह बहुत बड़े प्रश्न खड़ा करता है:
• क्या पुलिस कमिश्नर अदालत के आदेशों को “एकतरफा” रद्द कर सकता है?
• धार्मिक स्थलों पर अधिकार तय करने का हक किसे है—न्यायपालिका को या प्रशासन को?
• यदि कोर्ट कह चुका है कि दीप प्रज्ज्वलन मंदिर का अधिकार है, तो उसे “सांप्रदायिक खतरा” बताने वाला कौन?
• और यदि अधिकारी जवाबदेही से बच रहे हैं, तो यह किस शक्ति का परिणाम है?
यह स्पष्ट है— एंटी-हिंदू ताकतें सीधे प्रशासनिक संस्थाओं के भीतर प्रवेश कर चुकी हैं।
6. मुस्लिम समाज की एकजुटता बनाम हिंदू समाज की विखंडित भावनाएँ
यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि मुस्लिम समुदाय अपनी धार्मिक आस्था के लिए जाति, भाषा और क्षेत्रीय भेद पूरी तरह भूल जाता है।
इसलिए उनकी आवाज़ ज़्यादा ताकतवर दिखती है। इसके ठीक विपरीत— हिंदू समाज जाति, क्षेत्र, भाषा, राजनीतिक मत और सामाजिक विभाजनों में इतना बिखरा हुआ है कि सामूहिक हित हमेशा दब जाता है। जब तक हम “हिंदू” होकर नहीं सोचेंगे, तब तक हमारे पर्व, मंदिर और परंपराएँ लगातार निशाने पर रहेंगी।
7. निष्कर्ष: अपनी ही भूमि में संघर्ष क्यों?
यह कितना विचित्र और दुखद है कि—
• मंदिर हमारी विरासत
• पर्व हमारी परंपरा
• इतिहास हमारे पक्ष में
• कानून हमारे पक्ष में
• अदालत हमारे पक्ष में
फिर भी संघर्ष हमें ही करना पड़ता है।यह दर्शाता है कि सनातन धर्म के खिलाफ लड़ाई 150 साल पुरानी नहीं—हज़ारों वर्षों से चल रही है और आज भी जारी है। और आज भी हिंदू समाज से उम्मीद की जाती है कि वह झुके, समायोजन करे, और “शांति” के नाम पर अपने अधिकार छोड़ दे। लेकिन एक प्रश्न हर हिंदू को खुद से पूछना चाहिए—