पूनम शर्मा
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जिसकी नींव केवल राजनीतिक स्वतंत्रता पर नहीं बल्कि समानता, सुरक्षा और गरिमा के साथ जीने की संवैधानिक स्वतंत्रता पर रखी गई है। इस व्यवस्था का सबसे मज़बूत स्तंभ न्यायपालिका है, जो नागरिकों की स्वतंत्रता की अंतिम संरक्षक मानी जाती है। लेकिन सवाल यह है कि क्या न्यायपालिका की ऊँचाई तक पहुँचने की प्रक्रिया खुद लोकतांत्रिक और पारदर्शी है?
न्यायपालिका में नियुक्ति और पदोन्नति केवल औपचारिकता नहीं है, बल्कि यह वही प्रक्रिया है जो न्याय-व्यवस्था की आत्मा तय करती है। इसलिए उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति का मुद्दा आज सबसे बड़े सुधारात्मक एजेंडे के रूप में उभर रहा है।
कोलेजियम प्रणाली: मंशा और मुश्किलें
न्यायिक स्वतंत्रता को बचाने के लिए कोलेजियम प्रणाली शुरू की गई थी ताकि कार्यपालिका की दखलंदाजी कम हो सके। लेकिन समय के साथ यह प्रणाली पारदर्शिता और समान अवसर की कसौटी पर खरी नहीं उतर रही। खासकर सुप्रीम कोर्ट के वकीलों को उच्च न्यायालयों में जज बनाने की प्रक्रिया से लगभग बाहर रखा जाना इस असंतुलन को दिखाता है।
सुप्रीम कोर्ट में काम करने वाले वकील जटिल संवैधानिक और अपीलीय मामलों को संभालते हैं। उनका कानूनी अनुभव और दृष्टिकोण व्यापक होता है। ऐसे में सिर्फ़ इसलिए उन्हें हाई कोर्ट के जज बनने से वंचित करना कि वे किसी खास हाई कोर्ट में प्रैक्टिस नहीं करते, अनुचित है।
मेरिट का भ्रम और अनौपचारिक नेटवर्क
उच्च न्यायपालिका की नियुक्ति में “मेरिट” का तर्क अक्सर नेटवर्क और पहचान के लिए छद्म बन जाता है। लॉबीइंग, अनौपचारिक मुलाकातें, और कोर्टरूम से बाहर की गतिविधियां चयन में अहम भूमिका निभाती हैं। यह माहौल महिलाओं और हाशिये के समूहों के लिए और भी कठिन हो जाता है, क्योंकि सामाजिक पूर्वाग्रह उन्हें पेशेवर सीमाओं से बाहर निकलने पर कठोर नजर से देखता है।
जूनियर और ब्रीफिंग काउंसिल की भूमिका
न्यायिक नियुक्ति की बहस में अक्सर एक वर्ग पूरी तरह अनदेखा रह जाता है—वे जूनियर वकील और ब्रीफिंग काउंसिल जो वरिष्ठ अधिवक्ताओं के लिए रिसर्च, ड्राफ्टिंग और रणनीति तैयार करते हैं। कोर्ट में दलील देने वाला अधिवक्ता सिर्फ़ ‘चेहरा’ होता है, जबकि मुकदमे की बौद्धिक नींव इन्हीं जूनियरों पर टिकी होती है।
ऐसे में केवल ‘फ्रंट रो’ में खड़े वकीलों को ही न्यायिक पदोन्नति के लिए योग्य मानना एक बड़ी गलती है। यदि पारदर्शिता और समान अवसर की नीति अपनानी है तो इन ‘साइलेंट मेरिट’ वाले लोगों को भी न्यायिक पदोन्नति में शामिल करना होगा।
संरचनात्मक खामियां और पारदर्शिता का अभाव
वर्तमान प्रणाली में चयन मानक स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं हैं। इससे चयन प्रक्रिया मनमानी और अपारदर्शी लगती है। योग्य उम्मीदवारों को नज़रअंदाज़ किया जाता है और विश्वास का संकट गहराता है। न्यायपालिका पर जनता का भरोसा तभी कायम रह सकता है जब नियुक्ति प्रक्रिया खुली और उत्तरदायी हो।
सुधार का रास्ता : मोप और संरचनात्मक बदलाव
सुप्रीम कोर्ट ने 2016 में एनजेएसी (NJAC) को रद्द करते हुए खुद सुधार की ज़रूरत को स्वीकार किया था। कोर्ट ने मेमोरेंडम ऑफ़ प्रोसिजर (MoP) में बदलाव का सुझाव दिया था। इसमें मुख्य बिंदु थे:
योग्यता के मानक तय करना (उम्र, अनुभव, रिपोर्टेड जजमेंट, प्रो बोनो काम)
पारदर्शिता (नियम और प्रक्रिया वेबसाइट पर सार्वजनिक करना)
स्वतंत्र सचिवालय (डेटा और रिकॉर्ड बनाए रखने के लिए)
सीधा संवाद और जवाबदेही (उम्मीदवारों से इंटरैक्शन और शिकायत निवारण तंत्र)
इनमें से कई सिफारिशें आज भी लागू नहीं हो पाई हैं। अब समय है कि इन्हें ठोस रूप दिया जाए।
सुप्रीम कोर्ट वकीलों को हाई कोर्ट में जगह
सुधार के तहत सुप्रीम कोर्ट के वकीलों के लिए हाई कोर्ट जज बनने की औपचारिक व्यवस्था बनानी चाहिए। यह वही प्रक्रिया हो सकती है जैसी वरिष्ठ अधिवक्ता (Senior Advocate) बनाए जाने में अपनाई जाती है—एक औपचारिक आवेदन या नामांकन, जिसके बाद स्थायी समिति तय मानकों पर उसका मूल्यांकन करे।
विकास सिंह का प्रस्ताव और न्यायपालिका का मौका
सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष विकास सिंह ने ‘फैसिलिटेशन ऑफ अपॉइंटमेंट ऑफ जजेज एक्ट’ जैसा विधायी प्रस्ताव पहले ही तैयार कर सरकार को दिया था। यह प्रस्ताव पारदर्शी और जवाबदेह नियुक्ति प्रणाली का रोडमैप हो सकता है। संसद और न्यायपालिका दोनों को इसे गंभीरता से लेना चाहिए।
निष्कर्ष : न्यायपालिका के लिए पारदर्शिता अनिवार्य
उच्च न्यायपालिका में पदोन्नति का सवाल केवल व्यक्तिगत करियर या बार-बेंच की राजनीति का विषय नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र के मूल्यों का सवाल है। एक अच्छा और निर्णायक जज ही न्याय के बोझ को स्पष्टता और दृढ़ता से संभाल सकता है।
न्यायिक नियुक्ति और पदोन्नति को अब नेटवर्क और दृश्यता के आधार पर नहीं बल्कि योग्यता, ईमानदारी और संवैधानिक मूल्यों पर आधारित करना होगा। बार ने संकेत दे दिया है कि वह इस परिवर्तन के लिए तैयार है, अब बेंच को भी आगे आना होगा।
भारत की न्यायपालिका को वही बेहतरीन दिमाग चाहिए जो संविधान की आत्मा को साकार कर सके। इसके लिए नियुक्ति प्रणाली को पारदर्शी, समान और जवाबदेह बनाना ही होगा।